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- चक्रव्यूह में फंसी...
गरिमा सिंह: आए दिन महिलाओं की उपलब्धियों और पुरुषों के साथ उनके बढ़ते कदम पर चर्चा होती और उनके सशक्तीकरण पर खुशी जाहिर की जाती है। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रशंसा और प्रेम प्रकट करते हुए महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं।
ऐसे में इस बात पर विचार करना बहुत आवश्यक हो जाता है कि जिस समता, समानता, अधिकार की हम बात कर रहे हैं, वास्तव में वह तस्वीर कितनी मुकम्मल बन पाई है? सुबह की लालिमा से लेकर रात के सियाहपन तक वह कौन-सी धुन है, जिसमें स्त्रियां अपने आप को रोज गर्क करती हैं, फिर भी उनके जीवन में बहुत कुछ अधूरा रह जाता है, पीछे छूट जाता है, अगले दिन के लिए। सब समेटने की कोशिश में जो सबसे पीछे रह जाता है, वह है स्त्री का स्वत्व। यह बात ठीक वैसी ही जान पड़ती है जैसे कि हमारे समाज में लड़की को विवाह में तो सब कुछ उसकी पसंद से दिया जाता है, सिवाय उसके वर के।
आखिर कौन-सी वे गिरहें हैं, जिन्हें हमें समझने, सुलझाने और तोड़ने का अनवरत प्रयास करते रहना है। एक धागा सुलझता है, तो फिर दूसरा उलझने लगता है। हमारा संविधान पूरी उदारता से स्वत्व, समानता और सुरक्षा का अधिकार महिलाओं को प्रदान करता है, पर आज भी यह जानने-समझने की बात है कि आखिर पितृसत्ता का वह कौन-सा चक्रव्यूह है, जिसे भेदना आज भी उनके लिए कठिन जान पड़ता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पुरुषों के समकक्ष स्त्रियों ने हर क्षेत्र में अपनी योग्यता सिद्ध की है और अपेक्षित प्रगति भी की है, पर समाज में अभी बहुत कुछ ऐसा है, जो टूट नहीं पाया है। इसलिए आज भी स्त्रियां दोयम दर्जे से ऊपर नहीं बढ़ पाई हैं।
यह सिलसिला लड़की के जन्म से ही शुरू हो जाता है, जो जीवन भर चलता रहता है। उसकी पढ़ाई-लिखाई, परवरिश, खानपान से लेकर उसकी इच्छाओं तक पर पहरेदारी करता हमारा समाज स्त्री के स्वत्व और समान अधिकारों की बात तो करता है, पर अमल में लाने से परहेज करता है। वह लड़की समाज और परिवार की प्रतिष्ठा बन जाती है, जिसे वह अपनी अस्मिता से जोड़ कर देखता है। कुछ पढ़े-लिखे तबके को छोड़ दें तो कस्बाई और ग्रामीण भारत में आज भी लड़की का जन्म दुख का अवसर होता है।
उसका पढ़ना, आगे बढ़ना, भाइयों के समान हक रखना और अपनी इच्छा के मुताबिक जी पाना उसके लिए एक अवगुण से अधिक कुछ नहीं होता, जिसकी कीमत उसे चुकानी पड़ती है। उसे कदम कदम पर नाना तरह की चुनौतियां मिलती हैं। घर, दफ्तर, सार्वजनिक जीवन का हर क्षेत्र उसे शंकालु नजरों से देखता। एक भयावह दुश्चक्र है, जिसमें जीवन भर पिसती रह कर एक स्त्री सदा सर्वदा अपने होने को ही कोसती रहती है और अपनी नियति पर आंसू बहाते देह को छोड़ कर चली जाती है।
संविधान और विधि के अपने दायरे हैं और समाज के अपने। समाज के अपने मान और मूल्य हैं, जो बहुधा अमानवीय होने की हद तक निरंकुश होते हैं। हम यह न भूलें कि अदालतों, दफ्तरों, पुलिस थानों और वर्चस्ववादी अधिकरणों में इसी समाज के लोग काबिज हैं, जो अपने पुरातन संस्कारों के हिसाब से हर चीज को तय करते हैं। इसलिए जब भी स्त्री के स्वत्व और स्वाधीनता की बात आती है, तो जरूरत पारंपरिक मानसिकता को बदलने की होती है, क्योंकि इसे बदले बिना स्त्री को सचमुच उसका अधिकार मिलना संभव नहीं लगता।
अब जरूरत है कि स्त्रियां स्वयं अपने प्रयासों से समाज में वंचित होने की सीमा का अतिक्रमण कर आगे बढ़ें। बात केवल महिला दिवस मनाने की नहीं है, उसे अमल में लाने की भी है। यदि स्त्रियों के अधिकारों का सम्मान किए बिना मौके-बेमौके केवल उनका गुणगान किया जाता है, तो इससे उनको सशक्त नहीं किया जा सकता। महिलाओं को समाज के हर क्षेत्र में समान भागीदारी की जरूरत को समझना होगा और इसके लिए काम भी करना होगा। इस औचित्य को पूरे सामाजिक ढांचे के तहत देखे बिना बात नहीं बनती।
हमें यह समझना होगा कि स्त्री केवल घर की एक बहू या सास नहीं, ननद या बहन-बेटी नहीं। दादी या मां नहीं। वह एक नागरिक है और उसी तरह की नागरिक है, जिस तरह पुरुष है। उसे वांछित जीवन जीने का हक है। समाज के हर क्षेत्र में पुरुषों के बराबर खड़ा होने का हक है। वह परिवार की मर्यादा और कथित प्रतिष्ठा से आगे एक मनुष्य है, जिसे एक वस्तु की तरह देख कर खाप पंचायतों के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता। ये वे बुनियादी प्रश्न हैं, जिन पर विचार किए बिना स्त्री अस्मिता और पुरुषों के बराबर उनके समान अधिकारों की थोथी बात करना व्यर्थ है। असल बात व्यावहारिक स्तर पर बराबरी की स्थिति को देखने-समझने की है, जिसकी जरूरत कम मानी जाती है।