सम्पादकीय

अल्लाह, आर्मी और अमेरिका की मदद के बगैर पाकिस्तान एक संकट से दूसरे संकट के बीच झूल रहा है

Gulabi Jagat
6 April 2022 4:52 AM GMT
अल्लाह, आर्मी और अमेरिका की मदद के बगैर पाकिस्तान एक संकट से दूसरे संकट के बीच झूल रहा है
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यह एक हकीकत है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अभी तक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को फोन नहीं किया है
प्रणय शर्मा।
यह एक हकीकत है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (Joe Biden) ने अभी तक पाकिस्तान (Pakistan) के प्रधानमंत्री इमरान खान को फोन नहीं किया है, जबकि उन्होंने लगभग एक साल से अधिक का समय व्हाइट हाउस में गुजार लिया है. फोन पर भी न बात करना, दोनों देशों के बीच संबंधों की मौजूदा स्थिति को दर्शाता है. इसलिए, इमरान खान (Imran Khan) के "नए और स्वतंत्र पाकिस्तान" वाले राजनीतिक बयानबाजी के बावजूद देश में लंबे समय तक संकट बना रहेगा.
पारंपरिक रूप से पाकिस्तान के अधिकांश प्रधानमंत्रियों और सेना अधिकारियों के लिए अमेरिका के साथ मजबूत संबंध बनाए रखना एक अनिवार्य कवायद है. यही वजह है कि विरोधियों ने मजाक में कहा कि देश तीन 'ए'-अल्लाह, आर्मी और अमेरिका के समर्थन पर चलता है. लेकिन यह जरूरी नहीं कि उसी क्रम में मदद भी मिले.
अमेरिका ने अपनी दक्षिण एशिया नीति में एक रणनीतिक बदलाव किया है
दिलचस्प बात यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ भारत और पाकिस्तान के संबंधों की शुरुआत लगभग उस समय हुई थी जब दोनों संप्रभुत्व संपन्न देश के रूप में उभरे थे. 1949 में, भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमेरिकी नेतृत्व से मिलने के लिए 23-दिवसीय "सद्भावना" दौरे पर अमेरिका का दौरा किया था. लेकिन नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति और अमेरिका के शीत युद्ध के प्रतिद्वंद्वी सोवियत संघ की आलोचना करने से इनकार वाली बात वाशिंगटन पचा नहीं पा रहा था. लाजिमी है कि उनका अमेरिकी दौरा बहुत सफल नहीं रहा.
बहरहाल, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली 1950 में अमेरिका की इसी तरह की यात्रा पर गए. उन्होंने भविष्य के साथी के रूप में मास्को के बजाय वाशिंगटन को चुना. जाहिर है अमेरिकियों के लिए वे ज्यादा स्वीकार्य साबित हुए. उन्होंने सैन्य और दूसरे विकास के मुद्दों पर पाकिस्तान को समर्थन देकर उसे शीत युद्ध में एक संभावित सहयोगी के रूप में पालने पोसने लगे. बाद के वर्षों में पाकिस्तान के साथ अमेरिका का सैन्य गठबंधन और मजबूत होता गया क्योंकि अमेरिका ने इस्लामिक ताकतों के हाथों ईरान को खो दिया था और बाद में इराक को जब सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर हमला बोल दिया था.
एशिया में चीन की तीव्र और आक्रामक बढ़ोतरी हो रही है. उधर शीत युद्ध के बाद भारत-प्रशांत क्षेत्र में बीजिंग को रोकने वाली ताकत के रूप में भारत की तरक्की को सभी देख रहे हैं. इन्हीं सबके मद्देनजर अमेरिका ने अपनी दक्षिण एशिया नीति में एक रणनीतिक रि-एलायनमेंट और बदलाव लाने का फैसला लिया.
अब पाकिस्तान अमेरिका का विश्वसनीय सहयोगी नहीं रहा
वर्ष 2000 में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की ऐतिहासिक यात्रा के दौरान भारत और पाकिस्तान के प्रति अमेरिका के रवैये में बदलाव स्पष्ट दिखने लगा. यह यात्रा उपमहाद्वीप में भारत और पाकिस्तान द्वारा किए गए परमाणु परीक्षणों के तुरंत बाद हुई थी. भारत को एक आईटी दिग्गज, आकर्षक निवेश गंतव्य और जीवंत लोकतंत्र के रूप में देखकर क्लिंटन काफी प्रभावित थे. अपनी चार दिवसीय यात्रा के दौरान वे दिल्ली, आगरा और राजस्थान गए और भारतीय संसद को संबोधित किया.
भारत से जाते-जाते उन्होंने अपना मन बना लिया था कि भारत के साथ संबंधों को मजबूत करना है. यह वाशिंगटन में बाद की सत्ता-व्यवस्थाओं के लिए एक नीति बन गई. इतना ही नहीं, बाद के वर्षों में अमेरिकी कांग्रेस में द्विदलीय समर्थन की वजह से भी भारत-अमेरिका संबंध और मजबूत होते गए. इसके विपरीत क्लिंटन कुछ घंटों के लिए ही पाकिस्तान गए थे. अपने प्रवास के दौरान उन्होंने इस्लामाबाद को डांट भी लगाई कि वह अपने पड़ोसी के खिलाफ आतंकवाद को प्रायोजित करता है, राजनीतिक असंतोष को दबाता है और धार्मिक अल्पसंख्यकों को हाशिए पर रखता है. अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा पर पाकिस्तानी विशेषज्ञों की टिप्पणियों से ये साफ हो गया कि दक्षिण एशिया में वाशिंगटन की प्राथमिकता बदल गई है और अब वह भारत के पक्ष में खड़ा है.
भारत से मुकाबला करने के लिए पाकिस्तान आर्थिक और रणनीतिक समर्थन के लिए चीन की तरफ ज्यादा ही झुकता चला गया. नतीजतन, अमेरिका से उसकी दूरी बढ़ती ही चली गई. और ये भी एक हकीकत है कि वाशिंगटन के वैश्विक आधिपत्य को मास्को की बजाय बीजिंग से ज्यादा खतरा है. इसके बाद जब यह पता चला कि 9/11 के आतंकी हमले का मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान के ऐबटाबाद में एक सुरक्षित घर में रह रहा है तो अमेरिका का भरोसा और विश्वास बिल्कुल ही टूट गया. अब पाकिस्तान उसका विश्वसनीय सहयोगी नहीं रहा. मई 2011 में अमेरिकी नेवी सील ऑपरेशन में ओसामा के मारे जाने के काफी समय बाद तक अमेरिकी प्रशासन और नीति नियोजकों के दिमाग में यह बात बनी रही.
पाकिस्तान के वाशिंगटन के साथ संबंध और भी बिगड़ते जा रहे हैं
2018 में पाकिस्तानी सेना ने इमरान खान का समर्थन करने और उन्हें चुनाव जीतने में मदद करने का फैसला लिया. पाकिस्तानी फौज को लगता था कि एक ऑक्सफोर्ड-शिक्षित नेता और खेल आइकॉन पाकिस्तान-अमेरिकी संबंधों को वापस पटरी पर लाने में सक्षम होंगे. बहरहाल, पाकिस्तानी सेना की मदद से तालिबान ने काबुल पर कब्जा जमा लिया और नतीजतन अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की अपमानजनक वापसी हुई. इन सब बातों को लेकर वाशिंगटन और इस्लामाबाद के बीच राजनीतिक संबंध पूरी तरह से टूट गए.
यह एक सच्चाई है कि अफगानिस्तान अब मध्य एशिया में व्यापार और निवेश के लिए प्रवेश द्वार नहीं रहा बल्कि तालिबान के नेतृत्व में अफगानिस्तान अब इस इलाके के लिए एक और बड़ी आपदा साबित हो रहा है. जाहिर है इससे पाकिस्तान की मुश्किलें और बढ़ गई हैं. आज पाकिस्तान में एक लंबे समय से आर्थिक संकट और ठहराव चला आ रहा है, नौकरी और विकास की कमी है, देश में धार्मिक कट्टरवाद और आतंकवादी गतिविधियां बढ़ रही है. इन सबके मद्देनज़र एक कुशल सरकार चलाने की इमरान खान की काबिलियत पर सवालिया निशान लग चुका है. सेना के जनरल की नियुक्ति के खिलाफ इमरान का मुखर होना और फिर एक 'स्वतंत्र विदेश नीति' के तहत न केवल वे चीन के करीब होते गए बल्कि यूक्रेन में रूस के सैन्य अभियान के दौरान मास्को का दौरा भी कर लिया. इन सब बातों से अमेरिका और भी नाराज हो गया क्योंकि वह इसे अपमान के रूप में देखने लगा. पाकिस्तान के वाशिंगटन के साथ संबंध और भी बिगड़ते जा रहे हैं. खास तौर से जब मुसीबतों से घिरे हुए प्रधानमंत्री इमरान खान ने यह आरोप लगाया कि उन्हें अमेरिकी साजिश के तहत सत्ता से बेदखल किया जा रहा है.
पाकिस्तान को अब यह एहसास हो रहा है कि अमेरिका द्वारा छोड़ी गई खाली जगह को चीन या कोई अन्य देश शायद ही भर सकता है. सेना के नेतृत्व को भी यह पता चल गया है कि इमरान खान अब एक समस्या ज्यादा हैं न कि समाधान. बहरहाल, पाकिस्तानी सेना इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं है कि पाकिस्तान में भविष्य का कोई नेता अमेरिका के साथ संबंधों को जल्दी से पटरी पर ला सकता है. खास तौर से अमेरिका और दूसरे वैश्विक खिलाड़ियों के साथ संबंधों को मजबूत करने की भारत की क्षमता को जब हम देखते हैं तो यह कहा जा सकता है कि जब तक अमेरिकी-पाकिस्तान संबंध पटरी पर नहीं आते, तब तक पाकिस्तान की असुरक्षा बढ़ती ही रहेगी चाहे इमरान खान पाकिस्तान के सियासी मंच को अलविदा कह दें.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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