सम्पादकीय

बहस के बिना

Subhi
22 Dec 2021 2:34 AM GMT
बहस के बिना
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चुनाव संशोधन विधेयक आखिरकार पारित हो गया। पर जो बहस सदन के भीतर होनी चाहिए, विपक्ष वह बाहर कर रहा है। पहले भी कई कानूनों पर ऐसा हो चुका है। विपक्ष की शिकायत है

चुनाव संशोधन विधेयक आखिरकार पारित हो गया। पर जो बहस सदन के भीतर होनी चाहिए, विपक्ष वह बाहर कर रहा है। पहले भी कई कानूनों पर ऐसा हो चुका है। विपक्ष की शिकायत है कि सरकार उसे सदन में अपनी बात नहीं रखने देती। चुनाव सुधार की मांग लंबे समय से उठ रही थी, मगर सरकार के मतदाता पहचान-पत्र को आधार कार्ड से जोड़ने संबंधी प्रावधान को ही अधिक महत्त्व मिल पाया, जबकि चुनावी चंदे, मतदाता सूची के स्वरूप आदि को लेकर भी सुझाव दिए जा रहे थे। हालांकि सरकार का कहना है कि मतदाता पहचान-पत्र को आधार से जोड़ने का प्रावधान ऐच्छिक है।

अगर कोई व्यक्ति ऐसा नहीं करना चाहता, तो वह नहीं भी जोड़ सकता है। मगर पिछले अनुभवों को देखते हुए कहना मुश्किल है, कि यह नियम सदा बना रहेगा। बैंक खाते और दूसरे अन्य कामों के मामले में भी इसे ऐच्छिक रखा गया था, मगर अब यह अघोषित रूप से अनिवार्य है। इसलिए अगर विपक्षी दल इसे लोगों के निजता के अधिकार में दखल के रूप में देख और प्रचारित कर रहे हैं, तो उसे बेवजह नहीं कहा जा सकता। सवाल है कि सरकार को इस मुद्दे पर विपक्ष की बात सुन लेने में क्या अड़चन आ रही थी। उन्हें अपनी बात रखने का मौका न देकर उसने एक तरह से इस मसले पर भ्रम फैलाने का आधार ही तैयार किया है।
सरकार का काम है कानून बनाना। चुनाव सुधार संबंधी सुझावों के मद्देनजर उसने इससे संबंधी कानून में सुधार करके उसने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। मगर जो कानून संवेदनशील होते हैं या जिन पर विवाद की संभावना अधिक होती है, उन पर विशेषज्ञों और विपक्षी दलों की राय लेना अपेक्षित होता है। यही लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। मगर कुछ सालों से देखा जा रहा है कि लोकसभा में बहुमत होने की वजह से सरकार पहले वहां कोई भी कानून या प्रस्ताव ध्वनिमत से पास करा लेती है और फिर राज्यसभा में हंगामे के बीच उसे बिना बहस के पारित करा लेती है।
कृषि कानूनों के मामले में भी यही हुआ था, जिसका नतीजा किसान आंदोलन और फिर कानून वापसी के रूप में देखने को मिला। जब भी सरकार इस तरह कोई कानून पास कराती है, तो उसे लेकर उसकी मंशा पर भी स्वाभाविक रूप से सवाल उठने शुरू हो जाते हैं और लोगों में एक प्रकार के भ्रम की स्थिति पैदा होती है। जिस कानून को लेकर लोग भ्रम की स्थिति में होते हैं, उसकी सफलता भी संदिग्ध रहती है।
आधार कार्ड में चूंकि लोगों का जैविक आंकड़ा भी दर्ज होता है, इसलिए लोग उसे संदेह की नजर से देखते रहे हैं। मतदाता पहचान के साथ उसे जोड़ने को लेकर भी वही आशंका काम कर रही है। दरअसल, आधार कार्ड व्यक्ति के फोन से जुड़ा होता है और आजकल स्मार्टफोन के जमाने में फोन का संबंध अल्गोरिद्म से है, जिसके जरिए व्यक्ति पर हर समय नजर रखी जा सकती है।
पहले ही मतदान में धांधली के आरोप लगते रहे हैं, इसलिए विपक्ष इसे लेकर भ्रम फैला सकता है कि मतदान मशीन को भी इससे जोड़ा जा सकता है। इसलिए सरकार अगर सदन के भीतर इस मसले पर बहस करा लेती, तो इन भ्रमों को दूर करने में मदद मिलती। यह लोकतंत्र के लिए कोई अच्छी बात नहीं कही जा सकती कि जो बहस सदन के भीतर होनी चाहिए, विपक्ष उसे लेकर सड़कों पर उतरे।

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