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अमेरिकन वॉर सीरीज ‘होमलैंड’ के आठवें और आखिरी सीजन का पहला एपिसोड मानो उस घटना की भविष्यवाणी कर रहा था
मनीषा पांडेय। अमेरिकन वॉर सीरीज 'होमलैंड' के आठवें और आखिरी सीजन का पहला एपिसोड मानो उस घटना की भविष्यवाणी कर रहा था, जिसके आज हम प्रत्यक्ष गवाह बन रहे हैं. उस एपिसोड में सीआईए का पूर्व डायरेक्टर और अमेरिका का नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर सॉल बेरेनसन अफगान सरकार और तालिबान के बीच शांति समझौता करवाने की कोशिश कर रहा है ताकि अमेरिकी सेना घर वापस लौट सके. कहानी में तो कुछ भी वैसा नहीं होता, जैसा सॉल ने चाहा था. लेकिन इस वक्त अफगानिस्तान में जो हो रहा है, उस देखते हुए लगता है कि मानो कहानी लिखने वाले ने इस कथानक की पटकथा बहुत पहले ही लिख दी थी.
तालिबान और अमेरिकी सेना के बीच शांति समझौता होने जा रहा है. उम्मीद है इस महीने के आखिर तक अफगानिस्तान में बचे अमेरिकी सैनिक घर लौट जाएंगे. अमेरिकियों की अफगानिस्तान से वापसी की इस प्रक्रिया को सुचारू रूप पूरा करने के लिए अमेरिका ने वहां 3000 सैन्य टुकडि़यां तैनात की हैं. राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि वो चाहते हैं कि 11 सितंबर तक अमेरिकी सेना वापस लौट जाए. इसके लिए पूरी तैयारियां भी कर ली गई हैं. उम्मीद है, होमलैंड की तरह अगर आखिरी क्षण में कोई बड़ा ड्रामा नहीं हुआ तो अफगानिस्तान की धरती पर दो दशक लंबे चले अमेरिकी युद्ध का यहां अंत हो जाएगा. एक ऐसा युद्ध, जिसमें अमेरिका ने 850 बिलियन डॉलर यानी 63.75 लाख करोड़ रु. खर्च किए. हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि इसमें कितने जीरो होते हैं. हजार, लाख, करोड़ वाली संख्या में आंकने की कोशिश करें तो 31 खरब के बाद गणना की ईकाई समझ नहीं आती. बस इतना समझ लीजिए कि जितने डॉलर पिछले 20 सालों में अमेरिका ने अफगानिस्तान में बहाए, उतनी तो पिछले 20 सालों की अफगानिस्तान की कुल जीडीपी भी नहीं है.
लब्बोलुआब ये कि सारी कहानी खत्म होने के बाद असल सवाल का जवाब अब भी किसी के पास नहीं है. खुद अमेरिका के पास भी नहीं कि इतनी लंबी लड़ाई का आखिर हासिल क्या रहा? क्या खोया, क्या पाया? आखिर लड़े ही क्यों? अपनी सेना, टैंक, बारूद और गोले के साथ किसी और के मुल्क में घुसे ही क्यों?
ये कहानी वहां से शुरू नहीं होती, जहां से वो सुना रहे हैं. कहानी उससे भी बहुत पहले से शुरू होती है. लड़ाई सिर्फ दो दशक लंबी नहीं है. लड़ाई उससे भी 3 दशक पहले से शुरू होती है, जब सोवियत संघ का विघटन नहीं हुआ था और एक साम्यवादी, कम्युनिस्ट देश के सपने के साथ शुरू हुई बोल्शेविक क्रांति खुद भी दुनिया की साम्राज्यवादी शक्तियों के नक्शेकदम पर चलते हुए अपने साम्राज्य का विस्तार करने के रास्ते पर बढ़ चुकी थी.
कहानी शुरू होती है सोवियत संघ के अफगानिस्तान में कदम रखने से. हालांकि थोड़ा पीछे जाएं तो कहानी वहां से भी शुरू हो सकती है, जब अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा ताकतवर मुल्क नहीं था. शक्ति का केंद्र ग्रेट ब्रिटेन था और आधी दुनिया उसकी कॉलोनी. तब भी ब्रिटेन ने अपने निजी, आर्थिक और सामरिक हितों के लिए अफगानिस्तान को एक युद्ध भूमि की तरह इस्तेमाल किया था. ये 18वीं सदी के अंत की बात है. तब तक रूस में क्रांति और जार का तख्तापलट नहीं हुआ था. रूस और ब्रिटेन आपस में लड़ रहे थे और जंग का मैदान था अफगानिस्तान. अफगानिस्तान के रास्ते रूस अपनी सीमा बढ़ाना चाहता था और ब्रितानियों को डर था कि एक बार अफगानिस्तान रूस के कब्जे में आ गया तो भारत को भी उसके हाथों जाने में देर नहीं लगेगी.
खैर, ये एक लंबी कहानी है. इतिहास का वो अध्याय मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में न सिर्फ अतीत, बल्कि अप्रासंगिक भी हो चुका है. इसलिए बहुत से पन्नों को बिना पलटे सीधे चलते हैं उस दौर में, जब रूस में क्रांति हो चुकी है, दुनिया दो विश्व युद्ध लड़ चुकी है, जर्मनी की हार हुई है और यूक्रेन, लातविया, लिथुआनिया, बेलारूस, जॉर्जिया, आर्मेनिया, अजरबैजान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान के बाद यूरोप का एक बड़ा हिस्सा साम-दाम-दंड-भेद के रास्ते एक-एक कर सोवियत सोशलिस्ट प्रजातंत्र संघ का हिस्सा बनता जा रहा है.
वैश्विक राजनीतिक पटल पर सोवियत संघ एक बड़ी ताकत के रूप में उभर रहा था. भले सोवियत संघ का रास्ता भी साम्राज्यवाद का रास्ता ही हो, लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिए वो एक उभरती हुई चुनौती थी. दोनों देशों के बीच शीतयुद्ध चलता रहता था.
इस बीच रूस ने अफगानिस्तान में अपने पांव पसारने शुरू कर दिए. अफगानिस्तान की सीमा उत्तर में ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान से लगी हुई थी. रूस धीरे-धीरे अफगानिस्तान की सियासत में घुसने लगा. रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के सेक्रेटरी जनरल लियोनिड ब्रेजनेव की 1977 में अफगानिस्तान के पांचवे प्रधानमंत्री और तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद दाऊद खान से मुलाकात काफी मुकम्मल रही. एक कूटनीतिक मुलाकात लंबी दोस्ती में बदल गई. अफगानिस्तान में रूस की पकड़ मजबूत होने लगी.
लेकिन अमेरिका और पाकिस्तान दोनों को ही ये मंजूर नहीं था. दोनों बैकग्राउंड में साथ मिलकर काम कर रहे थे. पाकिस्तान इंटेलीजेंस एजेंसी आईएसआई और अमेरिकन इंटेलीजेंस एजेंसी सीआईए साथ मिलकर दारूद की सत्ता को गिराने और उसे अपनी ओर लाने का काम कर रहे थे. उनका यह सीक्रेट ऑपरेशन सफल भी रहा. जाहिर है सोवियत संघ अपनी अलग ही चाल चल रहा था. इस बीच रूस की मदद से अफगानिस्तान में तख्तापलट हो गया. मोहम्मद दाऊद खान की हत्या कर दी गई. अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट सरकार बन गई, जो रूसी सत्ता की करीबी थी.
अफगानिस्तान में रूसियों के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए अमेरिका ने एक समानांतर सेना खड़ी की. मुजाहिदों की इस सेना को तैयार करने में पाकिस्तान ने भी अमेरिका का साथ दिया. पाकिस्तान सेना ही इन मुजाहिदों को सैन्य प्रशिक्षण दे रही थी. यहीं से जन्म हुआ ओसामा बिन लादेन का, जिसे अमेरिका ने खुद ही रूस के खिलाफ खड़ा किया था.
अफगानिस्तान की धरती एक बार फिर युद्ध की चपेट में थी, लेकिन इस बार आमने-सामने थे तालिब मुजाहिदीन और रूसी सेना. रूस को इस बार काफी क्षति उठानी पड़ी. 1979 में रूसी सेना ने अफगानिस्तान का रुख करना शुरू किया था और एक दशक बीतने से पहले 1988 में ही रूस ने अपनी सेना को वापस बुलाना शुरू कर दिया. तब तक रूस को काफी नुकसान उठाना पड़ चुका था. उनके हजारों सैनिक मौत के घाट उतारे जा चुके थे.
पश्चिम के मीडिया जब ओसामा बिन लादेन की छवि शांतिदूत की थी
पाकिस्तान के रास्ते अमेरिका से अरबों डॉलर तालिबान के मुजाहिदीनों तक पहुंच रहे थे और उन्होंने हथियारबंद होकर न सिर्फ रूस की सेना को खदेड़ दिया था, बल्कि अफगानिस्तान की सत्ता को भी हिलाकर रख दिया था. अमेरिका अपनी चाल में आखिरकार कामयाब रहा. अफगानिस्तान की खूबसूरत सरजमीं को युद्धभूमि में बदल देने के पीछे अमेरिका की मंशा सिर्फ एक ही थी- किसी भी तरह रूस की ताकत को कमजोर करना, उन्हें आगे बढ़ने से रोकना और नेस्तनाबूद कर देना. अगर इस लिहाज से देखें तो अमेरिका अपने मकसद में कामयाब भी रहा.
लेकिन इतिहास ठीक वैसा ही नहीं होता, जैसा हम लिखते हैं. बहुत कुछ हमारे लिखे से परे भी होता है, जो खुद ही अपनी तकदीर और अपना रास्ता लिख रहा होता है. जिस तालिबान को अपने निजी हित के लिए अमेरिका ने खड़ा किया था, किसने सोचा था कि एक दिन वो तालिबान अपने उसी मालिक की जड़ उखाड़ देगा और अमेरिका की जमीन पर इतिहास के सबसे खतरनाक और सबसे विनाशकारी हमले को अंजाम देगा.
जिस ओसामा बिन लादेन को खुद अमेरिका ने जन्म दिया था, जिसके बारे में एक जमाने में पश्चिमी मीडिया में छपने वाली खबरों की हेडलाइनें कुछ इस तरह होती थीं- "एंटी सोवियत वॉरियर पुट्स हिज आर्मी ऑन द रोड टू पीस", वही ओसामा बिन लादेन एक दिन अमेरिका के लिए सबसे बड़ा आतंकवादी बन गया, जब सुसाइड मिशन पर निकले मुजाहिदीनों ने दो हवाई जहाज अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में घुसा दिए. तीसरा व्हाइट हाउस का रुख कर रहा था कि पेंटागन ने उसे बीच में ही मार गिराया.
अफगानिस्तान में अमेरिकी वॉर का दूसरा चैप्टर उसके बाद से शुरू होता है. जो तालिब मुजाहिदीन पहले अमेरिका के दोस्त थे, अब वही सबसे बड़े दुश्मन हो गए. तालिबानों के लिए भी अब अमेरिका, सीआईए, पेंटागन सबसे बड़े सांप थे. अमेरिकी सेना का निशाना था ओसामा बिन लादेन, जिसे 2 मई, 2011 को पाकिस्तान के एबटाबाद में अमेरिकी सेना ने मार गिराया.
अमेरिका का अपना खड़ा किया हुआ दुश्मन तो मर गया, लेकिन एक दुश्मन को मारने में अमेरिका ने कितने अपनों की जान ली, उसका कोई हिसाब नहीं है. दोनों तरफ हजारों बेगुनाह मारे गए, नस्लें तबाह हो गईं. पहाड़ों, नदियों वाली खूबसूरत धरती एक विशालकाय श्मशान में तब्दील हो गई.
और इन सबका हासिल क्या हुआ? इतिहास में ये भी नहीं लिखा जाएगा कि इस युद्ध में अमेरिका को जीत हासिल हुई. इतिहास में सिर्फ मौतों का, लाशों का, तबाहियों का जिक्र होगा. जीत उसके बाद भी न होगी.
युद्ध के मैदान में खड़े जो दुश्मन खुद को भावी विजेता के रूप में देख रहे थे, वो अब युद्ध से दूर खड़े होकर युद्ध को कैसे देखते हैं. अमेरिका पर तो अब करुणा भी नहीं आती क्योंकि ये न ये पहली, न आखिरी बार है. इसके पहले वियतनाम, इराक, ईरान, सीरिया में अमेरिका ने यही किया है और आगे भी यही करता रहेगा. खरबों डॉलर और बेशकीमती जिंदगियां, किसी मां का बेटा, किसी पत्नी का पति, किसी बच्चे का पिता अमेरिकी अहंकार और जिद के नाम पर युद्ध की आग में झोंका जाता रहेगा.
फिलहाल अफगानिस्तान में जो हुआ, वो कुछ और नहीं बल्कि रूस और अमेरिका के बीच ताकत और सत्ता की लड़ाई थी और एक मासूम धरती उस लड़ाई का मैदान बन गई.
रूस तो पहले ही मैदान छोड़कर जा चुका था. अब अमेरिका भी रुखसती की ओर कदम बढ़ा रहा है. इतिहास का एक अध्याय यहां खत्म होता है. इससे हम इंसानियत का सबक सीख लें तो ठीक, वरना तबाही के, बर्बादी के, जंग और हत्या के जितने हथियार हैं मनुष्य के पास, उतने तो निर्माण के भी नहीं है.
कहानी यहां खत्म होती लगती है, लेकिन शायद कहानी यहीं से शुरू होती है. 20 साल के युद्ध से अमेरिका ने क्या सीखा, यहीं से शुरू होता है अमेरिका, अफगानिस्तान और पूरी दुनिया का नया इतिहास.
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