सम्पादकीय

यूक्रेन संकट की जड़ तक पहुंचने के साथ ही यह जानना भी जरूरी है कि इसमें भारत के लिए क्या सबक छिपा है

Rani Sahu
4 March 2022 3:33 PM GMT
यूक्रेन संकट की जड़ तक पहुंचने के साथ ही यह जानना भी जरूरी है कि इसमें भारत के लिए क्या सबक छिपा है
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रूस ने भले ही करीब एक सप्ताह पहले यूक्रेन पर हमला बोला हो

डा. तुलसी भारद्वाज।

रूस ने भले ही करीब एक सप्ताह पहले यूक्रेन पर हमला बोला हो, लेकिन इस हमले केबीज बहुत पहले ही बोए जा चुके थे। 2008 में जार्जिया को खंडित करने के साथ ही रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने स्पष्ट कर दिया था कि वह नाटो की घेराबंदी बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करेंगे। इसी मकसद से उन्होंने 2014 में क्रीमिया पर कब्जा किया और अब उसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए यूक्रेन के खिलाफ जंग छेड़ दी। सोवियत संघ के जिस गौरवशाली इतिहास का सपना पुतिन संजोए हैैं, उसके अतीत में जर्मन नाजियों का विश्वासघात भरा रक्तरंजित अध्याय है। यह द्वितीय विश्व युद्ध के समय की बात है, जब हिटलर ने मोलोटोव-रिबेंट्रोप संधि का उल्लंघन करते हुए 1941 में सोवियत संघ पर हमला बोलकर रूसी तानाशाह जोसेफ स्टालिन समेत पूरी दुनिया को हैरान कर दिया था। करीब चार साल तक चली उस जंग में लाखों रूसी मारे गए। जैसे-तैसे रूसी रेड आर्मी हमलावरों को खदेडऩे में कामयाब हुई।

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद दुनिया अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध में फंस गई। इस दौरान अमेरिका ने नाटो नाम से सैन्य संगठन का गठन किया। उसके जवाब में सोवियत संघ ने वारसा पैक्ट बनाया। सोवियत संघ के विघटन के बाद वारसा पैक्ट निष्प्रभावी हो गया, जबकि नाटो का लगातार विस्तार होता गया। पहले चेक रिपब्लिक, हंगरी और पोलैंड को नाटो में शामिल किया गया। फिर पूर्व में सोवियत संघ का हिस्सा रहे बाल्टिक देश लिथुआनिया, लातविया और एस्टोनिया को। नाटो की इस घेराबंदी का विरोध रूस 1997 से ही करता आ रहा है। तब तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से नाटो को समाप्त करने का अनुरोध किया था, लेकिन उसका कोई फल नहीं निकला। उलटे नाटो का दायरा बढ़ता ही गया। यदि यूक्रेन भी नाटो का हिस्सा बन जाता तो रूस पूरी तरह विरोधी ताकतों से घिर जाता।
भौगोलिक स्थिति के कारण यूक्रेन रूस और यूरोपीय देशों के बीच बफर स्टेट जैसा हो सकता है। उस पर कब्जा कर रूस काले सागर पर भी अपना आधिपत्य जमा सकता है। यूक्रेन के इसी महत्व को देखते हुए रूसी क्रांति के जनक लेनिन ने कहा था कि रूस के लिए यूक्रेन को गंवाना ठीक वैसे ही होगा, जैसे शरीर से एक हिस्से को अलग कर दिया जाए। प्राकृतिक संसाधनों की अधिकता के कारण भी यूक्रेन बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
यह उल्लेखनीय है कि यूक्रेन के स्वतंत्र राष्ट्र बनने के बाद भारत ही वह प्रथम देश था, जिसने वहां अपना दूतावास खोला था। हालांकि यूक्रेन ने भारत के प्रति सदाशयता नहीं दिखाई। फिर चाहे कश्मीर का मसला हो या परमाणु परीक्षणों का, कीव ने नई दिल्ली को निराश ही किया। वह भारत पर परमाणु अप्रसार का दबाव बनाने वाली लाबी का भी हिस्सा रहा। इतना ही नहीं वह पाकिस्तान को सैन्य आपूर्ति भी करता रहा है। देखा जाए तो यूक्रेन को अमेरिका और ब्रिटेन की दोस्ती बहुत महंगी पड़ी, क्योकि 1993 तक यूक्रेन विश्व की तीसरी परमाणु शक्ति हुआ करता था, लेकिन अमेरिका और ब्रिटेन के कहने पर 1994 में बुडापेस्ट समझौते पर हस्ताक्षर कर उसने अपने सभी परमाणु हथियार त्याग दिए। तब रूस के साथ अमेरिका और ब्रिटेन ने उसकी सुरक्षा की गारंटी ली थी। अब अमेरिका और ब्रिटेन यूक्रेन की सीधी मदद करने से कन्नी काट रहे हैैं। वे यूक्रेन का हौसला बढ़ा रहे हैं, लेकिन उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि यदि लड़ाई लंबी खिंची तो पूरी दुनिया को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है।
भले ही भारत संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ आए प्रस्तावों पर मतदान के वक्त तटस्थ रहा हो, लेकिन उसने यूक्रेन की संप्रभुता के हनन को सही नहीं ठहराया। उसने एक तरह से रूस को नसीहत भी दी। भारत की दिक्कत यह है कि यदि वह भविष्य में रूस पर अपनी सैन्य निर्भरता को कम कर दे, तब भी क्या उसके जैसा विश्वसनीय मित्र और कोई दिख रहा है? क्या कोई अन्य देश चीन और पाकिस्तान को नियंत्रित करने में भारत की मदद कर सकता है? ध्यान रहे कि जब सोवियत संघ का विघटन हुआ था तो अमेरिका मीडिया ने कहा था कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत अनाथ हो गया। भारत इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि अमेरिका किस तरह अभी हाल तक पाकिस्तान को हथियार और पैसे देता रहा, जबकि वह भारत में आतंकी हमले करा रहा था। इसमें संदेह नहीं कि रूस हमेशा भारत का साथ देता रहा है, लेकिन यूक्रेन संकट के चलते चीन और रूस के बीच बढ़ती नजदीकी हमारे लिए चिंता का विषय है। रूस की चीन पर बढ़ती आर्थिक निर्भरता चीन को और ताकतवर बना सकती है, जो भारत के साथ-साथ अन्य देशों की संप्रभुता के लिए ठीक नहीं होगी। यह ठीक है कि भारत, अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया क्वाड के जरिये चीन को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैैं, लेकिन वह अभी तक बेलगाम ही दिख रहा है। चीन एक अर्से से अपने विस्तारवादी इरादे प्रकट कर रहा है। वह ताइवान को भी हड़पने की कोशिश कर रहा है। इसी तरह वह न केवल लद्दाख में अतिक्रमण करने की कोशिश कर रहा है, बल्कि अरुणाचल प्रदेश पर भी अपना दावा जताता है। भारत इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकता कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की हालिया मास्को यात्रा में चीन की भूमिका रही। स्पष्ट है कि भारत के समक्ष फूंक-फूंक कर कदम रखने वाली स्थिति है। चूंकि वैश्विक राजनीति में कोई किसी का स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता, इसलिए भारत को अन्य देशों पर अपनी निर्भरता कम करनी होगी, ताकि भविष्य में अपने हितों की रक्षा के लिए किसी ओर का मुंह न ताकना पड़े।
Rani Sahu

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