सम्पादकीय

कालातीत और शाश्वत सुरों के साथ अनंत काल तक घर-घर में गूंजती रहेगी लता ताई

Gulabi
7 Feb 2022 8:12 AM GMT
कालातीत और शाश्वत सुरों के साथ अनंत काल तक घर-घर में गूंजती रहेगी लता ताई
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कुछ लोग जीते जी किंवदंती बन जाया करते हैं. उनके अमर होने के संकेत पूरी दुनिया को मिलते रहते हैं
कुछ लोग जीते जी किंवदंती बन जाया करते हैं. उनके अमर होने के संकेत पूरी दुनिया को मिलते रहते हैं. देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं में एक हजार से भी अधिक गानों को स्वर देने वाली 'स्वर कोकिला' के नहीं रहने पर इस तरह के बहुत से रिकॉड उनके नाम स्पष्टतः दिखाई देंगे. रोचक यह भी है कि वह सहज ही किस तरह आम से खास और खास से आम होती गईं. इस सिलसिले में वह हर खास-ओ-आम के करीब भी रहीं.
हम बात उन कुछ प्रसंगों की कर रहे हैं, जहां लता मंगेशकर नाम के एक हाड़-मांस के पुतले को कुछ खास लोग देखते-सुनते समय क्या सोचते रहे. यह जरूर था कि हमारे-आप जैसे उस शरीरधारी को देवतुल्य भी मान लिया गया. तलत महमूद ने तो कहा भी था कि सरस्वती और लक्ष्मी दोनों एक साथ कम ही रहा करती हैं. लता शायद इन दोनों के मेल से अवतरित तीसरी देवी हैं.
लता जी को देवी न भी मानें, तो भी वह विशिष्ट इनसान जरूर थीं. यह तो देश-दुनिया को पता है कि चीन के साथ 1962 के युद्ध के बाद 1963 में सैनिकों के बीच लताजी ने 'ऐ मेरे वतन के लोगों! जरा आंख में भर लो पानी' गाकर सुनाया तो वहां मौजूद अन्य लोगों के साथ प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की आंखें भी भर आईं थीं. निश्चित ही वह माहौल गीत के शब्दों के साथ लता मंगेशकर के सुर की संगति से उत्पन्न हुआ था.
उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब को संगीत जगत में कौन नहीं जानता है. एक बार तो उन्होंने यहां तक कह दिया था- कमबख्त कभी बेसुरी नहीं होती. यह दुलार के शब्द थे. इसमें उन्होंने आगे जोड़ा था,"क्या अल्लाह की देन है!" उस्ताद ने लता मंगेशकर की यह स्नेहभरी प्रशंसा कई बार की थी. एक बार तो पंडित जसराज के सामने ही ऐसा हुआ. वर्ष 1951-52 में दुर्गापूजा के दौरान बड़े-बड़े लाउस्पीकर पर रिकॉर्ड बज रहे थे.
बड़े गुलाम अली खां हमेशा की तरह हाथों में स्वर मंडल पर अंगुलियां फिरा रहे थे. तभी गाने की आवाज आई- "ये जिन्दगी उसी की है, जो किसी का हो गया, प्यार ही में खो गया." आम तौर पर कभी बजाना बंद नहीं करने वाले उस्ताद ने स्वर मंडल बगल में रख दिया और गाने को ध्यान से सुनते रहे. गाना खत्म होते ही उन्होंने जोर से अपने जंघे पर हाथ मारा और बोल पड़े- ''कमबख्त कभी बेसुरी ही नहीं होती."
दौर बदला, संगीत की दुनिया में कई पीढियों ने काम किया, एक साथ कई पीढियां काम कर रही हैं. आज तो टीवी चैनलों पर तरह-तरह की प्रतिभा खोज प्रतियोगिताएं चलती रहती हैं. इन्हीं प्रतियोगिताओं में से एक में उस समय यह समझ में आया कि लताजी होने का क्या मतलब है,जब इंडियन आइडल 10 की एक प्रतियोगी ने 'ये गलियां ये चौबारा' गाकर सुनाया तो जज विशाल ददलानी भावविभोर हो उठे. उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारे अंदर लता दीदी जैसे गुण देख सकता हूं. इससे बड़ा कोई और कॉम्प्लीमेंट मैं तुम्हें नहीं दे सकता.
जीते जी जिसका नाम जुड़ना भी किसी के लिए सबसे बड़ा सम्मान हो जाए, ऐसी लता मंगेशकर की गायकी में आखिर कौन से राज हैं? कहा जाता है कि अमेरिकी वैज्ञानिकों की एक टीम ने उनके अलाप पर शोध किया और किसी परिणाम पर नहीं पहुंच सके. वैज्ञानिक- शोध की बात में पता नहीं कितनी सच्चाई है, पर लता जी के पहले संगीतकार दत्ता डावजेकर का कथन तो काल के कपाल पर दर्ज हो चुका है. हालांकि, उनका कथन भी वैज्ञानिकों के शोध की तरह अनसुलझा परिणाम ही बताता है.
डावजेकर ने एक बार कहा था कि लता गाते वक्त जरूर कोई युक्ति, प्रत्युक्ति करती है, ताकि लोग उसके गाए गानों के मुखड़े गुनगुनाते ही रहें, दोहराते ही रहें. यह यकीन करना कठिन है कि गायन के लिए कोई साधक किसी दैवीय युक्ति का प्रयोग करता है. फिर भी जहां तक लता मंगेशकर की बात है, वह इसे पूजा की तरह जरूर मानती रहीं. तभी तो गायन के समय अथवा रियाज के वक्त वह कभी चप्पल नहीं पहनतीं थीं. पूजा-पाठ में यकीन करने वाले इसे कोई नाम तो देंगे ही.
वैसे, लता कृष्ण-भक्त रहीं और कागज पर कुछ भी लिखने के पहले 'श्रीकृष्ण' अंकित कर दिया करती थीं. वे एक तरफ चेखव, टॉलस्टॉय, खलील जिब्रान जैसे विदेशी लेखकों का साहित्य पसंद करतीं थीं, तो ज्ञानेश्वरी और गीता भी शायद धार्मिक दृष्टि से ही अपने पुस्तकालय और कार्यालय में रखा करती थीं. भारतीय इतिहास और संस्कृति में भी उन्हें कृष्ण, मीरा, विवेकानंद और अरबिंदों बेहद पसंद रहे. उनके आध्यात्मिक गुरु श्रीकृष्ण शर्मा थे. उनके जानने वालों को पता है कि वे महाशिवरात्रि, सावन सोमवार के अलावा गुरुवार को भी व्रत रखती रहीं.
पुस्तक 'स्वरकोकिला लता मंगेशकर' में लता जी के भतीजे बैजनाथ मंगेशकर अपने बचपन में लताजी को याद करते हुए कहते हैं- क्या वह धुएं में लिपटी किसी महिला का रेखाचित्र था, क्योंकि वह हर रोज मंदिर में धर्मनिष्ठता से धूप जलाती थीं? क्या यह उनके असाधारण रूप से लंबे बाल थे, दो चोटियों में बंधे हुए? क्या यह उनकी राजसी एवं निधड़क चाल थी, जैसी केवल शाही परिवारों में देखी जाती है? या क्या यह उनकी पायल की मोहक ध्वनि थी, जो बता रही हो कि रानी अब अंदर आ रही हैं और अब बाहर जा रही हैं? मैं यकीन से नहीं कह सकता, लेकिन ये सभी कल्पनाएं बड़ी आकर्षक थीं और किसी बच्चे के मन को सहज ही मोह सकती थीं. बैजनाथ मंगेशकर का संस्मरण लम्बा है. भाव यह है कि लता जी का संगीत अनंत है, कालातीत है, शाश्वत है.
बैजनाथ मंगेशकर चिंता व्यक्त करते हैं कि अतीत के प्रति बढ़ती अश्रद्धा के चलते अगली पीढ़ी लता जी की संगीत प्रतिभा को मनगढंत कहानी से अधिक नहीं समझेगी. उनकी चिंता आधारहीन ही जाएगी. ऐसा तकनीक के सहारे लता जी की कैद आवाज के बल पर कहा जा सकता है. यश चोपड़ा के इस कथन पर भी अगली पीढ़ी भरोसा कर लेगी कि आम तौर पर संगीत के पीछे गायक होता है, पर संगीत लता जी के पीछे-पीछे जाता है. तब सुप्रसिद्ध गायिका और लताजी की बहन आशा भोसले के इस प्रश्न और स्वयं के उत्तर पर भी अविश्वास का कोई कारण नहीं होगा- आपने कभी जल प्रपात को नीचे से ऊपर की ओर जाते हुए देखा है? मैंने देखा है, सुना है. दीदी की जल-प्रपात जैसी तान जब ठीक उन्हीं सुरों में लौटती है तो लगता है, पहाड़ की ऊंचाई से गिरा हुआ पानी ठीक उसी रास्ते वापस लौट रहा है.
लता जी के वापस लौटते झरने सा अप्रतिम गायन का राज वैज्ञानिक भले न खोज पायें, यह तो तय है कि उसमें नितांत भारतीय गायन परंपरा ही थी. पंडित कुमार गंधर्व जैसे गायक ने कहा था- अगर गंधार को उसके शुद्धतम रूप में सुनना हो तो लता का 'आएगा आने वाला' सुनिए. कम ही लोगों को मालूम है कि बाद में अपने साजिंदों के साथ एक ही बैठक में गाने रिकॉर्ड करा देने वाली लता जी को इस हिट गीत के लिए 22 रीटेक देने पड़े थे. बाद में तो एक ही बैठकी में अलग-अलग भावों का एहसास लताजी से बेहतर कोई नहीं दिला पाया.
यहीं जगजीत सिंह को याद करें, जिन्होंने कहा था कि लता जी ने हम पर अहसान किया है कि वे क्लासिकल गायन में नहीं रहीं. जगजीत सिंह का यह कथन निश्चित ही यह बताता है कि लता मंगेशकर सुर से कभी नहीं भटकीं. उदाहरण के लिए फिल्म 'घर' के गाने 'आपकी आंखों के बारे में एक जगह गुलजार ने बताया है कि अगली लाइन 'आपकी बदमाशियों के ये नये अंदाज हैं' के बारे में पंचम दा परेशान थे. गुलजार से बोल पड़े, 'शायरी में बदमाशी कैसे चलेगी? फिर ये गीत दीदी गाने वाली हैं.'
गुलजार की सलाह पर गीत की लाइन को वैसे ही रहने दिया गया. इस शर्त पर कि लता जी को पसंद नहीं आया तो हटा देंगे. रिकार्डिंग के बाद लताजी से गीत के बारे में पूछा गया. उन्होंने संक्षिप्त सा जवाब दिया 'हां अच्छा था.' फिर अगला सवाल 'वह बदमाशियों वाली लाइन?' जवाब में सुनने को मिला, 'अरे, वही तो अच्छा था इस गाने में. उसी शब्द ने तो कुछ अलग बनाया इस गाने को.' याद करना होगा कि लता जी ने गाते समय खनकदार हंसी में बदमाशियों वाले शब्द का इस्तेमाल किया है.
ऐसा कर उन्होंने उसकी अभिव्यक्ति को चार चांद लगा दिया है. सही मायनों में चार चांद तो उन्होंने सम्पूर्ण गायन परंपरा में लगा दिया, जिससे यह क्षेत्र युग-युग तक रोशन होता रहेगा.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
डॉ. प्रभात ओझा पत्रकार और लेखक
हिन्दी पत्रकारिता में 35 वर्ष से अधिक समय से जुड़ाव। नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित गांधी के विचारों पर पुस्तक 'गांधी के फिनिक्स के सम्पादक' और हिन्दी बुक सेंटर से आई 'शिवपुरी से श्वालबाख' के लेखक. पाक्षिक पत्रिका यथावत के समन्वय सम्पादक रहे. फिलहाल बहुभाषी न्यूज एजेंसी 'हिन्दुस्थान समाचार' से जुड़े हैं.
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