सम्पादकीय

भगवान राम के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की आस, बीएसपी को कितनी आएगी रास

Rani Sahu
19 July 2021 1:31 PM GMT
भगवान राम के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की आस, बीएसपी को कितनी आएगी रास
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भगवान राम के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की आस, बीएसपी को कितनी आएगी रास

कार्तिकेय शर्मा । बीएसपी नेता सतीश मिश्रा का ऐलान है कि ब्राह्मण सम्मलेन की शुरुआत राम मंदिर में आशीर्वाद लेकर शुरू की जाएगी कई मामले में चौंकाने वाली है. देश में दलित राजनीति में कई धाराएं रह चुकी हैं. इसमें से आरएसएस की एक, आंबेडकर की दूसरी और गांधी की तीसरी धारा थी. देश में 1980 तक गांधी और अम्बेडकर की धारा में टकराव रहा.

संघ अपना काम चुपचाप करता रहा. उसके काम और गांधी के काम में बस एक ही अंतर था और वो ये कि संघ दलित हित के अलावा हिन्दू समाज को सशक्त करना चाहता था और गांधी केवल दलित समस्याओं को ठीक करना चाहते थे, लेकिन हिन्दू धर्म के दायरे में.
संघ और गांधी के विचार में एक समानता भी थी और वो ये कि दोनों की राय में दलित हिन्दू धर्म का अटूट हिस्सा थे और उनको हिन्दू धर्म से अलग करके नहीं देखा जा सकता था. यहाँ अम्बेडकर का मत अलग था. उनका मानना था कि दलितों का उत्थान हिन्दू धर्म के दायरे में नहीं हो सकता है और यही कारण था कि उनका गांधी जी के साथ पूर्ण मतभेद रहा. पूना पैक्ट में गांधी जी की बात को सम्मान दिया गया और दलितों के लिए चुनाव लड़ने के लिए सेप्रेट इलेक्टोरेट नहीं बनाया गया बल्कि उनके लिए सीटें आरक्षित की गयीं. अम्बेडकर गांधी जी की तो बात मान गए लेकिन बाद में उनका कहना था की ये फैसला गलत रहा. उनका कहना था कि गांधी ने व्रत रख इमोशनल ब्लैकमेल किया.
आज़ादी की बाद दलित राजनीति गांधी की कल्पना की दायरे में रही लेकिन धीरे धीरे हरिजन शब्द का इस्तेमाल खत्म हुआ और दलित शब्द की उत्पति हुई. लेकिन तब भी दलितों का वोट ऊंची जातियों को ही पड़ता रहा. यही कारण है कि अम्बेडकर जीते जी कोइ चुनाव नहीं जीत पाए. वो हिन्दुस्तान में दलितों के सबसे बड़े विचारक रहे और हैं लेकिन चुनावी समीकरण कभी बिठा नहीं पाए.
उन्होंने हिन्दू धर्म भी छोड़ा और आखिर सांस बतौर बौद्ध ली. उनके बाद दलित राजनीति में बदलाव आये और ये सब दलित साहित्य में दिखने लगा. दलित सोच था कि ब्राह्मणवाद को चुनौती. सर्वजन की परिभाषा में ऊंची जाती छोड़ सब शामिल थे. तमिलनाडु में दलित राजनीति द्रविड़ राजनीति से जा मिली. वहां खुल कर हिन्दू भगवानों का सरेआम मज़ाक बनाया गया. कांशीराम की राजनीति में ब्राह्मण नेतृत्व की कल्पना शामिल नहीं थी. लेफ्ट दलित गठबंधन भी ऊंची जातियों के खिलाफ रहा. केवल संघ की राह अलग रही. उसने दलितों के साथ काम किया. ओबीसी के साथ काम किया लेकिन उनको हिन्दू धर्म के दायरे में लाकर. आज उसे सबाल्टर्न हिंदुत्व भी कहा जाता है. राम जन्म भूमि आंदोलन के बाद सभी मुख्यमंत्री ओबीसी हुए. वो सब हिंदुत्व के चेहरे बने. चाहे वो नरेंद्र मोदी हो या कल्याण सिंह . चाहे शिवराज चौहान हो या वसुंधरा राजे . कोई ऊंची जाति से नहीं था . राम मंदिर शिलान्यास की पहली ईंट भी एक दलित यानी कामेश्वर चौपाल ने लगाई थी.
लेकिन कांशीराम की पार्टी का खुल कर ब्राह्मण सम्मलेन करना और उसकी शुरुआत रामजन्मभूमि से करना साफ़ करता है कि दलित राजनीति की अपनी पहचान कम हुई है. दलित राजनीति में फिर एक बड़ा मोड़ आया है, यानि दलित उत्थान का मतलब दलित मुस्लिम वोट बैंक नहीं है. इसका मतलब दलित बनाम ऊंची जाती नहीं है. इसका मतलब है कि संघ ने दलित समाज में काम करके हिन्दू धर्म की जड़ों को ओबीसी और दलित समुदाय में मज़बूत कर दिया है. देश में बाल्मीकि मंदिर रहेंगे और हर गांव और दलित टोले में अम्बेडकर की मूर्ति भी होगी लेकिन दलित बनाम हिन्दू राजनीति नहीं हो पाएगी. सतीश मिश्रा केवल सोशल इंजीनियरिंग कर रहे हैं. 2007 के सपने को दुबारा जीना चाहते हैं जब ब्राह्मणों ने खुल कर मायावती को वोट किया था. लेकिन अब दलितों का एक बड़ा तबका बीजेपी को भी वोट देता है. मायावती खुद उत्तर प्रदेश से नादारद हैं. ऐसे में ब्राह्मण सम्मलेन और भगवान राम के मंदिर से आशीर्वाद लेकर चुनाव की तैयारी करना काफी नहीं होगा. राम जी का आशीर्वाद तो सबके साथ होता है पर मेहनत अपनी अपनी होती है.


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