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कविता एक सांस्कृतिक व सामाजिक प्रक्रिया है। इस अर्थ में कि कवि जाने-अनजाने, अपने हृदय में संचित
अतिथि संपादक : प्रो. चंद्ररेखा ढडवाल
हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -1
विमर्श के बिंदु
1. कविता के बीच हिमाचली संवेदना
2. क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
3. भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
4. हिमाचली कविता में स्त्री
5. कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
6. हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
7. कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
8. कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
9. हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
10. प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
11. कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
12. अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
13. हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
14. हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
15. प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
16. हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
17. गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी
कविता एक सांस्कृतिक व सामाजिक प्रक्रिया है। इस अर्थ में कि कवि जाने-अनजाने, अपने हृदय में संचित, स्थिति, स्थान और समय की क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त भाव-संवेदनाओं के साथ-साथ जीवन मूल्य भी प्रकट कर रहा होता है। और इस अर्थ में भी कि प्रतिभा व परंपरा के बोध से परिष्कृत भावों को अपनी सोच के धरातल से ऊपर उठाते हुए सर्वसामान्य की मीन पर स्थापित कर रहा होता है। पाठक को अधिक मानवीय बनाते हुए और एक बेहतर समाज की अवधारणा देते हुए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रचनात्मकता का विश्लेषण और मूल्यांकन जरूरी है। यथार्थ के समग्र रूपों का आकलन आधारभूत प्राथमिकता है। यदि यह आधार खिसक गया तो कवि कर्म पर प्रश्न उठेंगे।…हिमाचल प्रदेश में कविता व गज़़ल की सार्थक तथा प्रभावी परंपरा रही है। उसी को प्रत्यक्ष-परोक्ष, हर दृष्टि और हर कोण से खंगालने की चेष्टा यह संवाद है।… कुछ विचार बिंदुओं पर सम्मानित कवियों व समालोचकों की कुम्हार का चाक/छीलते काटते/जो घड़ दे एक आकार। 'हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में शीर्षक के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण विचार आप पढ़ेंगे। जिन साहित्यकारों ने आग्रह का मान रखा, उनके प्रति आभार। रचनाकारों के रचना-संग्रहों की अनुपलब्धता हमारी सीमा हो सकती है। कुछ नाम यदि छूटे हों तो अन्यथा न लें। यह एक प्रयास है, जो पूर्ण व अंतिम कदापि नहीं है…
प्रो. चंद्ररेखा ढडवाल, मो.-9418111108
कविता बहुत तरतीब मांगती है। भाव-विचार में जितनी, उतनी ही भाषा व शिल्प में भी। शब्द संयोजन में शब्द स्फीति यदि सही नहीं है तो अतिरिक्त मितव्ययता भी उचित नहीं है। आग्रह-दुराग्रह से ऊपर उठते हुए वस्तुनिष्ठ होना आवश्यक है तो विषयीगत संवेदना से इतर भी नहीं होना है। सहभाव समाज की जरूरत है। परंतु रचनाकार की दृष्टि प्रतिरोध पर भी रहनी चाहिए। बिखरते हुए सकारात्मक (सकारात्मक होने, नहीं होने का प्रश्न विस्तृत चर्चा मांगता है) प्रतिरोध को एकजुट करते हुए एक ताकत में तब्दील करना है।…कवि वह है जो हमें हर जगह और हर स्तर पर रची जा रही, निजी स्वार्थों की साजिश का सच दिखाए। वस्तुस्थिति दिखाने का खतरा उठाते हुए हमें उन सच्चाइयों से अवगत करवाए जिनका बोध हमें पहले नहीं था।… कुछ ताकतें ऐसी हैं जो आदमी को मंतव्यगत शर्तों पर स्वीकार और अस्वीकार करने में सिद्धहस्थ हैं। कविता की कोशिश होनी चाहिए कि वह आदमी को उसके अपने स्वरूप में समझते हुए, उसके निज धरातल पर खड़े होने की सहूलियत और हिम्मत दे। रचनाधर्मी को ठीक एक पेड़ की तरह ऊपर-ऊपर उठते हुए, नीचे गहरे धंसते चले जाना है।
समकालीनता की समझ के लिए परंपरा की समझ अपेक्षित है। समझ के इसी बिंदू से स्व का विस्तार होता है। व्यक्तिगत दु:ख, समस्त जन का दु:ख और सुख की कामना सारे संसार के लिए शुभेच्छा की कामना हो जाए तो कविता सर्वोच्च मूल्य का विकल्प होने की हैसियत में आ जाती है। अपने स्थान और समय की चिंताओं को संबोधित करती कविता यथार्थोन्मुख मानसिक गढऩ का निमित्त बने। एक जि़द हो जाए व्यक्ति की रीझ और जीवट को तमाम अवरोधों और मृत्यु के समानांतर अजर-अमर कर देने की। कविता की सृजन प्रक्रिया के केंद्र में देखना है, परंतु इस देखने में बहुत भटकन है। दृश्य के भीतर दृश्य और विचार के भीतर विचार है। लेकिन हमारी दृष्टि सतही आभासों में ही उलझ कर रह जाती है। यहीं से संकट शुरू होता है। जीवन में और कविता में भी। तो बात इस देखने को धारदार बनाने की है। कि आंख चीजों को परत दर परत उघाड़ते हुए अर्थ और उसके अभिप्राय को उसके समग्र परिप्रेक्ष्य में अतिरिक्त संवेदना से देख सके।
धार को निरंतर पैना करते रहने के लिए भीतर-बाहर एक बहस का जारी रहना जरूरी है। भीतर चलती बहस आत्मविश्लेषण और अनुभूत की पड़ताल है। बाहर की बहस शब्द की सत्ता और महत्त्व को रेखांकित करते हुए रचनात्मकता की मूल बनावट और समसामयिकता का दिशा-निर्देश है। कविता के भाव व शिल्प पर वह टिप्पणी है जो सामान्य पाठक के महसूस कर पाने को प्रभावी बनाते हुए कविता को संप्रेषणीय बनाए। कविता उस तक पहुंचे और स्वयं को स्वतंत्र इकाई के रूप में पहचान लेने के बाद व्यक्ति, प्रायोजित उन्मादग्रस्त भीड़ का तिलिस्म झुठलाते हुए हालात को देखते हुए फैसले ले सके। व्यक्ति स्वातंत्र्य केवल एक आदर्श मूल्य मात्र नहीं है। व्यक्ति के अस्तित्व की आधारभूत शर्त है। यह अलग बात है कि आज हवाओं में चाकू की तरह एक डर ठहरा है- तलबगार जिं़दगी के चुप ही रहा करेंगे/जिन्हें शौक खुदकुशी का चर्चा किया करेंगे। …संवाद, परिसंवाद और समीक्षा कृति व कृतिकार के लिए मूल्यवान है। कृतिकार की मुख्य चिंता दृष्टि-बिंदू और कलात्मक परिदृश्य की है। जिसमें स्थान विशेष का दखल लाजि़मी है। यही उसका उपजीव्य होकर उसकी अनुभूति को प्रासंगिकता के संदर्भ देता है। निशब्द और निराकार रहते हुए भी मुखर और साकार। मिट्टी का रच-रचाव यदि जड़ों में है तो हरयावल में भी है।…समीक्षक से भाव, रचनात्मक प्रारूप और परिवेशगत उपस्थिति तीनों स्तरों पर प्रतिबद्धता खोजने की अपेक्षा है। सृजनात्मक और आधुनिक बोध की पड़ताल जरूरी है।
भाषा का रचनात्मक प्रारूप, स्थिति व घटना के अनुरूप शब्द-विन्यास, प्रतीक और बिंब विधान में है। तो आधुनिक बोध आज की चिंताओं और ज्वलंत मुद्दों के प्रति सरोकार में है।…यह चिंता का उपक्रम और सरोकार, अनुभव के स्तर पर कितना प्रामाणिक और अभिव्यक्ति के स्तर पर कितना ईमानदार है। यह प्रश्न अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। रचनाकार, सुखद व अनुकूल सृजन परिवेश की अपेक्षा और प्रतीक्षा मात्र कर रहा है या स्थितियों को समझते-उघाड़ते हुए सच को रेखांकित करने का जोखिम उठा रहा है? इस प्रश्न का उत्तर रचनाकार की आंतरिक नैतिकता और निद्र्वन्द्व कह सकने की सामथ्र्य पर निर्भर करता है।
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