सम्पादकीय

आलोचना का विवेक

Subhi
5 July 2022 4:46 AM GMT
आलोचना का विवेक
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इंटरनेट आधारित सामाजिक मंचों पर मनमाने बयानों, अविवेकपूर्ण, अशोभन और भड़काऊ टिप्पणियों आदि को लेकर लंबे समय से एतराज जताया जाता रहा है। इसे लेकर अदालतें कुछ मौकों पर नाराजगी जाहिर कर चुकी हैं।

Written by जनसत्ता: इंटरनेट आधारित सामाजिक मंचों पर मनमाने बयानों, अविवेकपूर्ण, अशोभन और भड़काऊ टिप्पणियों आदि को लेकर लंबे समय से एतराज जताया जाता रहा है। इसे लेकर अदालतें कुछ मौकों पर नाराजगी जाहिर कर चुकी हैं। सरकार ने ऐसे लोगों पर नकेल कसने की भी कोशिश की, पर उसका असर नजर नहीं आ रहा। नूपुर शर्मा मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जेबी पारदीवाला की टिप्पणी को लेकर सामाजिक मंचों पर की जा रही टिप्पणियां इसकी ताजा उदाहरण हैं।

न्यायाधीश पारदीवाला ने मौखिक रूप से नूपुर शर्मा को फटकार लगाते हुए कहा था कि उनके असावधानी भरे बयान की वजह से पूरा देश जल रहा है, इसके लिए उन्हें माफी मांगनी चाहिए। उसी टिप्पणी को आधार बना कर सामाजिक मंचों पर उनके खिलाफ व्यक्तिगत हमले शुरू हो गए। स्वाभाविक ही न्यायाधीश उन टिप्पणियों से आहत हुए और एक कार्यक्रम में कहा कि ये हमले 'एजेंडा संचालित' हैं और सामाजिक मंच 'लक्ष्मण रेखा लांघ रहे हैं'।

इसलिए इन्हें कानूनी दायरे में लाने की जरूरत है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों और टिप्पणियों को बड़ी इज्जत के साथ स्वीकार किया जाता है। उन्हें संविधान की रक्षा के लिए जरूरी संकेत के रूप में लिया जाता है। मगर पिछले कुछ सालों में देखा गया है कि बहुत सारे लोग किसी भी फैसले के विरोध में बेहिचक अपनी राजनीतिक धारणाएं व्यक्त करते हैं।

अदालत के किसी फैसले या निर्देश की रचनात्मक आलोचना से न्यायपालिका को कोई एतराज नहीं, पर जब किसी राजनीतिक मंशा से आलोचना की जाती है, तो उसे लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं माना जाता। न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा भी कि अगर इसी तरह लोग बेलगाम टिप्पणियां करते रहेंगे, तो न्यायाधीशों का ध्यान इसी बात पर ज्यादा लगा रहेगा कि मीडिया उनके फैसलों को किस नजर से देखता है।

इस तरह सामाजिक मंचों की मर्यादा तय करने के लिए नियामक तंत्र गठित करने की जरूरत एक बार फिर संजीदगी से महसूस की गई है। यह ठीक है कि संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, मगर इसका यह अर्थ कतई नहीं कि कोई किसी के भी बारे में मनमाने ढंग से कुछ भी बोल, लिख या कह दे। सामाजिक मंचों पर चूंकि खुली आजादी है कि कोई भी व्यक्ति अपनी सामग्री खुद डाल सकता है, बहुत सारे लोग अभिव्यक्ति की आजादी का बेजा फायदा उठाने का प्रयास करते देखे जाते हैं। जबसे राजनीतिक दलों ने सामाजिक मंचों का उपयोग अपने राजनीतिक प्रचार-प्रसार के लिए करना शुरू किया है, तबसे वहां मनमानी कुछ अधिक ही बढ़ गई है।

सामाजिक मंचों ने निस्संदेह लोगों को एक विशाल रचनात्मक फलक दिया है, उनके जरिए बहुत सारे मसले हल करने में आसानी हुई है, कई रूढ़ियों को तोड़ने में मदद मिल रही है। मगर वहां राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धाएं भाषा और अभिव्यक्ति की सारी मर्यादाएं तोड़ती नजर आती हैं। विचित्र है कि इस समस्या का हल खुद सरकार को निकालना है, पर उसके समर्थक भी मर्यादा की हदें लांघते नजर आते हैं।

कई बार तो सामाजिक मंचों पर समांतर अदालतें चलाई जाने लगती हैं। फिर यह समस्या केवल सामाजिक मंचों तक सीमित नहीं है, डिजिटल माध्यमों पर चल रहे समाचार चैनलों में भी 'बेलगाम जुबानें' दिन भर गूंजती रहती हैं। अभिव्यक्ति की आजादी रचनात्मक आलोचना करने के लिए दी गई थी, न कि अविवेकपूर्ण ढंग से, निराधार, पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर कुछ भी कहने, लिखने और छाप-दिखा देने के लिए। बिना विवेक के की गई आलोचना समाज में विकृतियां ही पैदा करती है।


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