सम्पादकीय

खिड़की जो खुली रहती है

Subhi
27 Jun 2022 5:35 AM GMT
खिड़की जो खुली रहती है
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चार दीवारों वाले बंद कमरे में एक हवादार खिड़की किसको पसंद नहीं। खिड़की हमारे दिल का हर शोर सुनती है, मगर दरवाजा हमेशा आजमाता है। कहता है कि इसको ठीक से परख कर ही भीतर आने दो। मगर खिड़की सरल है

पूनम पांडे: चार दीवारों वाले बंद कमरे में एक हवादार खिड़की किसको पसंद नहीं। खिड़की हमारे दिल का हर शोर सुनती है, मगर दरवाजा हमेशा आजमाता है। कहता है कि इसको ठीक से परख कर ही भीतर आने दो। मगर खिड़की सरल है, वह सबको अपना लेती है। अपने आंचल से सारी दुनिया की शीतल मंद सुगंधित पवन हम पर वार देती है। खिड़की के पास चुंबकीय अपनापन है।

हमारी खुमारी, लाचारी, बैचैनी, नींद, करवट, सपने आदि के सारे गोपन रहस्य, ढंके-छिपे राज इस खिड़की को ही तो मालूम हैं। हम तो खिड़की पर टिक कर दो आंसू बहा कर फिर जरा-सा कसमसाकर, उलट-पलट होकर हालात के आगे खुद को समर्पित कर ही देते हैं, लेकिन वह गीलापन उस खिड़की के आंचल में तब तक नमी से सराबोर रहता है और बेचैन खिड़की तब तक मलय पवन को हमारे बाल सहलाने भेजती रहती है, जब तक उस हमराज खिड़की को पूरा यकीन नहीं हो जाता कि हम अब चौंक कर न तो घबरा जाएंगे और न ही नींद से घबरा कर उठ बैठेंगे।

किसी बात से आहत होकर घुट रहे बोझिल मन के लिए निशुल्क दवा है खिड़की। जो खिड़कियों पर सिर टिकाते ही आनंद में डूब जाते हैं, वही जानते हैं कि इसकी जीवन में कितनी अहमियत है। उनके लिए यह हमेशा खिलखिलाती एक अंतरंग मित्र है, जिसकी बातें शहद से मीठी, चांदनी से शीतल होती हैं। तब यह महज खिड़की नहीं, बल्कि सीने में धड़कती है और एक अच्छा-खासा दिल लिए एक आदमजात लगती है, जो अदृश्य इंद्रियों से हमारा समूचा अवलोकन किए जा रही है।

सिगमंड फ्रायड तो मानते थे कि हर वस्तु हमारे अबोले यानी मानसिक लफ्ज को भी सुनती है, इसीलिए बगीचे में वह पौधा हवा के जोर से ही, पर खिंच कर हमको छू लेना चाहता है, क्योंकि वह हमको प्रेम करता है। हमारी हर सांस एक खिले हुए फूल की तरह ही तो है, पर यह कुसुम भी कुम्हला जाता है अगर इसको तनाव, निराशा, बेचैनी आदि की गरम हवा लगती रहे। परिचित और मित्र मंडली भी अक्सर दूर हो जाती है, मगर इस मूक सहेली खिड़की का व्यक्तित्व ऐसा है कि हर मौसम, हर मौके पर साथ रोने-हंसने को तत्पर रहती है।

मनोविज्ञान कहता है कि संतुलन का सिद्धांत बहुत खास है। इसमें भौतिक सुख नहीं, ऐसे इंतजाम महत्त्वपूर्ण हैं जो आत्मा को सुकून दें। सच्चा आनंद वह है, जो हमारी सांसों को हमेशा जटिलता से सरलता की ओर ले जाता है। एक खिड़की की संगति ही वह अजूबा है, जो हर महंगे मनोरंजन पर भारी पड़ता है। खिड़की पर बैठ कर प्रकृति से, रात को चांद-तारों से गपशप भी ऐसी ही है कि कहने वाला अपने सारे दुख कह देता है और खिड़की कहने वाले का मन रूई जैसा हल्का कर देती है। खिड़की कभी किसी गम पर हंसती नहीं, किसी बात का विरोध नहीं करती, मन को और मुखर होने का मौका देती है।

कभी-कभी वहां से जीवन झांकता है, चिंतन को दिशा मिल जाती है। रवींद्रनाथ ठाकुर तो शांतिनिकेतन में अपनी खिड़की वाली कुटिया के आरपार दिखने वाले अनोखे दृश्यों पर अपने मित्रों, शिष्यों से चर्चा भी कर लिया करते थे। वे इसी खिड़की पर सिर टिकाने और एकदम ध्यान की अवस्था में चले जाने को महत्त्वपूर्ण अनुभव कहते थे। खिड़की जैसे कहती भी है कि समर्पण तो मेरा मूल स्वभाव है। जब मन बैचेन हो तो कभी लाड़ से, तो कभी झिंझोड़ कर बताती है कि आकाश की तरह जीवन में संभावनाओं का संसार बहुत विशाल है, उम्मीद से बंधे रहो। खिड़की कमरे में रहने वाले के हर कदम की थकन भांप जाती है।

साधनहीन मजदूर या लंबी पदयात्रा से बोझिल राहगीर अपनी कुटिया में घास-फूस के गद्दे पर टिक जाते हैं, तो वहां एक खिड़की हौले-हौले लोरी बन कर कब उन्हें मीठी नींद के आगोश में ले जाती है, उनको इस जादू की खबर नहीं रहती। हम बहुत प्रसन्न होते हैं तो एक कप चाय लेकर इसी खिड़की पर शाही अंदाज में घूंट-घूंट पीते हैं। हमारी खुशी, गम और कल्पना का अथाह संसार कभी-कभी गहरी नींद में कहे गए कुछ साफ और धुंधले शब्द सब इस खिड़की की स्मृतियों में सहेजे हुए हैं।

संतोष को सफलता से भी कहीं ऊंचा स्थान दिया गया है, क्योंकि संतोष हमारा मूल्यांकन है, जबकि सफलता तो औरों के लिए है। 'पिया जिसे चाहे सुहागन तो वही' मानी जाएगी। तो फिर, बस अपनी दोस्ती हो जाए खिड़की से, फिर यह कौन देखता है कि बाहर से कितने अमीर या गरीब हैं। मन को एक संवाद-सेतु मिल जाए तो मन की रईसी सौ गुना बढ़ जाती है। फिर इस सुकून के परिणाम से चेहरे की रौनक देख कर चाहे कोई कहता रहे कि भई कमाल है, 'पीने को पानी नहीं और छिड़कने को गुलाब जल'।


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