सम्पादकीय

विराट कोहली क्या चयनकर्ताओं की वजह से 'रन आउट' हो जाएंगे?

Rani Sahu
15 Dec 2021 1:57 PM GMT
विराट कोहली क्या चयनकर्ताओं की वजह से रन आउट हो जाएंगे?
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अपनी किताब 'वनडे वंडर्स' की शुरुआत सुनील गावस्‍कर एक दिलचस्प प्रसंग से करते हैं

प्रियदर्शन अपनी किताब 'वनडे वंडर्स' की शुरुआत सुनील गावस्‍कर एक दिलचस्प प्रसंग से करते हैं. यह 1984 में भारतीय क्रिकेट टीम और कप्तान के चयन से जुड़ा वाकया है. टीम चंडीगढ़ के होटल में रुकी है और पास में कहीं चयनकर्ताओं की बैठक हो रही है. बेंसन ऐंड हेजेज और रॉथमेन्स सीरीज़ के लिए कप्तान का चयन हो रहा है. कप्तान के तौर पर कपिलदेव, गावस्‍कर के अलावा रवि शास्त्री के नाम पर भी चर्चा चल रही है. गावस्‍कर रवि शास्त्री के कमरे में ही गपशप कर रहे हैं. अचानक एक फोन आता है- किसी महिला की आवाज़ है. गावस्‍कर समझते हैं कि रवि शास्त्री की किसी फ़ैन ने फोन किया होगा. लेकिन शास्त्री गावस्‍कर से कहते हैं- पम्मी का फ़ोन है- पम्मी, यानी सुनील गावस्‍कर की पत्नी मार्शनील गावस्‍कर. मार्शनील सुनील गावस्‍कर को फोन पर बताती हैं कि उन्होंने पार्टी के लिए जो सामान ऑर्डर किया था, वह आ गया है. गावस्‍कर कुछ हैरान रह जाते हैं. उन्होंने कोई ऑर्डर नहीं किया था. लेकिन वे इशारा समझ जाते हैं. शास्त्री को भी कुछ भनक मिल जाती है. गावस्‍कर अपने कमरे में जाते हैं तो मार्शनील कहती हैं- वेलकम कैप्टन

लेकिन मार्शनील बताती हैं कि चयनकर्ताओं ने उन्हें बुलाया है और हिदायत दी है कि वे होटल के सामने के फाटक से न जाएं, बल्कि पीछे की दीवार फलांग कर आएं, क्योंकि यह कपिलदेव का शहर है और उनके निकलते लोग जान जाएंगे कि उन्हें कप्तान बनाया जा रहा है. इसके बाद हंगामा हो सकता है.
किताब में गावस्‍कर ने लिखा है कि जब वे दीवार फलांग रहे थे तभी उन्होंने तय किया कि उन्हें ऐसी कप्तानी नहीं चाहिए. चयनकर्ताओं की बैठक में उन्होंने यह बता भी दिया. लेकिन उनसे इसरार किया गया कि वे इन दो शृंखलाओं तक बने रहें. लेकिन उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि इन दो शृंखलाओं के बाद वे कप्तान नहीं रहेंगे. इसके पहले भी वे कप्तान बनाए और हटाए जा चुके थे और 1983 में विश्व कप जीतने के बावजूद कपिलदेव को चयनकर्ताओं ने दो साल भी कप्तान के तौर पर नहीं दिए थे.
भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तानी को लेकर रोहित शर्मा और विराट कोहली के बीच जो विवाद देखा-सूंघा जा रहा है, वह दरअसल कई पुराने विवादों की याद दिलाने वाला है. रोहित शर्मा और विराट कोहली में अभी तक तो कोई खुला विवाद है भी नहीं. रोहित शर्मा ने कुछ ही दिन पहले कहा कि वे विराट कोहली की कप्तानी में खेलते हुए आनंद लेते रहे हैं और कोहली ने भी साफ़ किया है कि वे वनडे टीम के लिए उपलब्ध हैं.
लेकिन फिर विवाद कहां है? यह विराट कोहली का ताज़ा बयान बताता है. वे बताते हैं कि उन्हें कप्तानी से हटाए जाने की सूचना टीम के चयन के बस डेढ़ घंटे पहले दी गई. इसके ठीक पहले चयनकर्ता उनसे टेस्ट टीम को लेकर बात करते रहे. जाहिर है, यह ठेस पहुंचाने वाली बात है. बताया जा रहा है कि बीसीसीआई को इंतज़ार था कि खुद विराट कोहली अपनी ओर से कप्तानी छोड़ दें. लेकिन विराट कोहली को ऐसा क्यों करना चाहिए था? क्या इसलिए कि वे देश को टी-20 का वर्ल्ड कप दिला नहीं सके? या इसलिए कि उनकी टीम पाकिस्तान के साथ दस विकेट से मुक़ाबला हार गई?
बेशक, यह बात पहले से उठती रही है कि क्रिकेट के तीनों प्रारूपों- यानी टी-20, वनडे और वर्ल्ड कप के लिए अलग-अलग कप्तान हों. भारत इन दिनों जितने क्रिकेट मैच खेल रहा है, उसको देखते हुए यह बात सही भी लगती है. वैसे इनमें टी-20 की कप्तानी विराट कोहली ने खुद छोड़ दी थी. अगर वे वनडे टीम की कप्तानी जारी रखना चाहते थे तो उन्हें हटाने का औचित्य क्या था? उन पर इल्जाम ये है कि उन्होंने वनडे में सबसे सफल कप्तान होने के बावजूद किसी टूर्नामेंट में जीत नहीं दिलाई. लेकिन दरअसल इस तरह का हिसाब-किताब मीडिया की बहसों के लिए तो दिलचस्प हो सकता है, क्या टीम और कप्तान के चयन की भी कसौटी बन सकता है? किसी टूर्नामेंट में हार-जीत की ठोस वजहें तलाशी जानी चाहिए, न कि किन्हीं सरलीकृत निष्कर्षों पर कप्तान को हटा दिया जाना चाहिए.
यह सच है कि विराट कोहली कप्तानी में अतिरिक्त आक्रामक मुद्रा अख्तियार करते रहे हैं. कई बार टीम को इसका खमियाजा भी भुगतना पड़ता है तो कई बार इससे जीतने का जज़्बा भी पैदा होता है. लेकिन अगर वे वनडे के खराब कप्तान हैं तो टेस्ट टीम के अच्छे कप्तान नहीं हो सकते. कप्तानी का वास्ता प्ररूप से नहीं, खेल और मिज़ाज की समझ से है- यह बात कई कप्तान साबित करते रहे हैं. क्लाइव लॉयड, विवियन रिचर्ड्स, माइक ब्रेयरली, स्टीव वॉ, महेंद्र सिंह धोनी, सौरभ गांगुली जैसे कप्तान यह साबित करते रहे हैं. बल्कि कप्तानी को लेकर एक दिलचस्प आकलन है जो शायद ऑस्ट्रेलिया के महान कप्तान रहे रिची बेनो का है. रिची बेनो का कहना था कि कप्तानी नब्बे फ़ीसदी क़िस्मत है और दस फीसदी योग्यता. लेकिन वह दस फ़ीसदी योग्यता न हो तो नब्बे फ़ीसदी क़िस्मत काम नहीं आती. वैसे क़िस्मत गच्चा भी देती रहती है. टी-20 वर्ल्ड कप में विराट कोहली लगातार टॉस हारते रहे जबकि भारत में न्यूजीलैंड के ख़िलाफ़ सीरीज़ में रोहित शर्मा लगातार टॉस जीतते रहे. कहने की ज़रूरत नहीं कि इन मैचों में टॉस की अपनी अहमियत थी.
वैसे यह मामला भारत में चयनकर्ता बनाम सितारा खिलाड़ियों के बीच का रहा है. चयनकर्ता अपने अजीबोगरीब चयन से खिलाड़ियों को पहले भी हैरान करते रहे हैं. कभी मोहिंदर अमरनाथ ने चयनकर्ताओं को जोकरों का समूह कह दिया था. श्रीकांत ने शिकायत की थी कि वे एक मैच में कप्तान थे और अगले मैच में टीम से बाहर बिठा दिए गए. सुनील गावस्‍कर ने भी 1979 की इंग्लैंड सीरीज़ में खुद को कप्तान न बनाए जाने पर हैरानी जताई थी. गावस्‍कर ने कहा कि वेस्ट इंडीज़ के साथ जिस सीरीज़ में उन्हें कप्तान बनाया गया, उसमें उन्होंने 700 से ज़्यादा रन बनाए और शृंखला भी जीती, लेकिन इंग्लैंड की सीरीज़ में उनसे कप्तानी ले ली गई- शायद इसलिए कि उन्होंने कैरी पैकर सर्कस को लेकर एक तरह का खुलापन दिखाया था- हालांकि तब भी टीम को उन्होंने प्राथमिकता दी थी. इसके पहले पाकिस्तान के साथ सीरीज़ हारने पर बिशन सिंह बेदी को फ्लाइट में ही बता दिया गया था कि वे अब टीम के कप्तान नहीं हैं. अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए, जब अंबाटी रायडू ने विश्व कप की टीम से बाहर किए जाने पर 3 डी ट्वीट कर चयनकर्ताओं पर निशाना साधा था.
तो भारतीय क्रिकेट में यह रस्साकशी पुरानी है कि खिलाड़ी कब कप्तान बनाए जाएं और कब हटाए जाएं. क्या यह उनकी मर्ज़ी पर छोड़ा जाना चाहिए? या इसमें चयनकर्ताओं की मर्ज़ी चलनी चाहिए? बेशक, चयनकर्ताओं को भी अपना काम बिना किसी दबाव के करना चाहिए- कम से कम अभी जो चयन समिति है, वह पुरानी चयन-समितियों जैसी नहीं है- वह बिना दबाव के चल भी सकती है.
लेकिन भारत में क्रिकेट का जुनून अजब तरह का है. खेल यह टीम का है, लेकिन जैसे खिलाड़ी भी अकेले खेलते हैं और उनके फैन भी. सुनील गावस्‍कर, कपिलदेव, सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, महेंद्र सिंह धोनी या विराट कोहली जैसे खिलाड़ी टीम से बड़े नज़र आते हैं. टीम हार जाए, लेकिन कोई खिलाड़ी विश्व रिकॉर्ड बना दे तो हम ख़ुश हो जाते हैं. हालांकि क्रिकेटरों की देवताओं वाली यह हैसियत न होती तो हमारे खेल प्रशासक भी इतने बड़े और धनवान न होते जितने वे आज हैं. बल्कि खिलाड़ियों को लगातार मैदान में उतार कर वे सोने के अंडे देने वाली मुर्ग़ी से जल्दी-जल्दी अंडे निकलवाने का अप्राकृतिक कार्य ही कर रहे हैं. इसलिए इतने ज़्यादा मैच हो रहे हैं और अलग-अलग कप्तानों की बात हो रही है.
मौजूदा विवाद को देखें तो अलग-अलग कप्तानों का सवाल सैद्धांतिक रूप से जितना भी सही हो, कम से कम इस बार भारतीय क्रिकेट प्रशासकों ने उसे बहुत सतही ढंग से हल करने की कोशिश की. एक खिलाड़ी को दुखी कर दिया और दूसरे खिलाड़ी के भीतर यह भाव भर दिया कि वे एक-दूसरे के साथ खेलने को तैयार नहीं. इसका एक असर तो यह नज़र आ रहा है कि अचानक भारतीय क्रिकेट टीम बंटी हुई लग रही है. वैसे यह पहले भी कई बार बंटी हुई लगी है. 2007 के वर्ल्ड कप के बाद यह बात खुले तौर पर सामने आई कि तब भी टीम एक नहीं थी. तब टीम को बांटने का ज़िम्मेदार हमने ग्रेग चैपल को ठहरा दिया. लेकिन इस बार टीम को बांटने का गुनहगार कौन है?
क्रिकेट में टाइमिंग का बहुत महत्व होता है. टाइमिंग ज़रा भी गड़बड़ हुई कि खिलाड़ी आउट हो जाता है. चयनकर्ताओं को भी यह बात समझनी चाहिए थी. वे विराट कोहली को कुछ समय देते या उनसे कुछ समय पहले बात करते तो शायद यह सूरत नहीं बनती जो दिख रही है. चयनकर्ताओं की वजह से विराट कोहली फिलहाल रन आउट होते दिख रहे हैं?
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