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शिक्षा के एक नए सामाजिक अनुबंध
पिछले दिनों 'संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक व सांस्कृतिक संगठन' (यूनेस्को) ने शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी एक महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसका शीर्षक है- 'हमारे भविष्य को एक साथ जोड़ना: शिक्षा के लिए एक नया सामाजिक अनुबंध' (Reimagining our future together: A new social contract for education). इसके लिए यूनेस्को ने वैश्विक स्तर पर तीन आवश्यक प्रश्नों के उत्तर प्रस्तावित किए हैं.
वर्ष 2050 तक यूनेस्को ने शिक्षा के क्षेत्र में एक नए भविष्य की कल्पना करते हुए ये तीन प्रश्न रखे हैं: 1. क्या जारी रखा जाना चाहिए? 2. क्या छोड़ा जाना चाहिए? 3. रचनात्मक रूप से नए सिरे से पहल करने योग्य क्या आवश्यकताएं हैं?
इस रिपोर्ट की व्यापकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसमें दुनिया भर के कई देशों से दस लाख से ज्यादा लोगों ने भाग लिया, जाहिर है इस दौरान वैश्विक परामर्श प्रक्रिया को अपनाया गया है, जिसका मुख्य उद्देश्य शिक्षा में यथावत और भेदभावपूर्ण स्थिति को तोड़ना है, साथ ही पूरी शैक्षिक प्रणाली को इस तरह से टिकाऊ व न्यायपूर्ण बनाना है, ताकि भविष्य के लिए एक साथ कार्य करने की क्षमता बढ़ाई जा सके और विशेष तौर पर बुनियादी शिक्षा में एक बड़े परिवर्तन की मांग का पूरा किया जा सके.
यूनेस्को द्वारा तैयार इस रिपोर्ट को पूरा करने में दो वर्ष लग गए हैं, जाहिर है कि इसकी तैयारी कोविड-19 वैश्विक महामारी के पहले ही चल रही थी. लेकिन, अब जबकि पूरी दुनिया कोविड-19 महामारी से जूझ रही है, यूनेस्को चाहता है कि इसी दौरान इस रिपोर्ट से जुड़े मुद्दों पर वैश्विक बहस हो और आंदोलन शुरू किए जाएं, जिसके तहत कई देशों के स्कूली बच्चों के साथ ही उनके पालक और शिक्षकों के बीच एक नए अनुबंध तैयार किए जाएं.
दुनिया एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर
यूनेस्को के अनुसार, इस समय दुनिया एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर है. ऐसी स्थिति में वैश्विक असमानताओं के दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे. वहीं, यह स्थिति बताती है कि शिक्षा अभी भी शांतिपूर्ण, न्यायसंगत और टिकाऊ भविष्य को आकार देने में मदद करने के अपने वादे को पूरा नहीं कर रही है.
यूनेस्को अपनी रिपोर्ट में कहता है कि शिक्षा और समाज के भीतर उच्च जीवन स्तर के मामले में अत्याधिक असमानताएं हैं. इसी तरह, दूसरी चिंता की बात यह है कि दुनिया भर में कई जगहों पर नागरिक समाज और लोकतंत्र का ताना-बाना टूट रहा है, जिसका प्रभाव भविष्य की शिक्षा पर पड़े बिना नहीं रहेगा.
यूनेस्को की रिपोर्ट में एक बात यह भी उजागर हुई है कि नित नई तकनीक आने से लोगों का जीवन उतना ही तेजी से बदल रहा है. लेकिन, तकनीक के कारण जीवन शैली में आने वाले ये नवाचार 'समानता, समावेश और लोकतांत्रिक भागीदारी' के बारे में समुदायों को पर्याप्त रूप से निर्देशित नहीं कर पा रहे हैं.
लिहाजा, इस आधार पर रिपोर्ट में यह तर्क दिया गया है कि हमें शिक्षा के बारे में फिर नए सिरे से परिकल्पना करनी चाहिए.
'तत्काल' पुनर्विचार क्यों?
बीसवीं शताब्दी के दौरान, सार्वजनिक शिक्षा का उद्देश्य अनिवार्य रूप से बच्चों और युवाओं के लिए स्कूली शिक्षा दिलाना रहा है, ताकि वे अनिवार्य स्कूली शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रीय नागरिकता और विकास के प्रयासों का अच्छी तरह से समर्थन कर सकें.
दूसरी तरफ, वैश्विक महामारी के कारण दुनिया को भविष्य के लिए गंभीर जोखिम का सामना करना पड़ रहा है, ऐसी स्थिति में शिक्षा अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रही है. इसलिए, दुनिया भर के शिक्षाविदों का मानना है कि सभी को मिलकर शैक्षिक स्तर की समस्या और चुनौतियों का समाधान करने की दिशा में कार्य करना चाहिए. यही वजह है कि इसके लिए वे शिक्षा संबंधी विषयों पर तत्काल पुनर्विचार के लिए जोर दे रहे हैं.
यही संदर्भ ध्यान में रखते हुए, यूनेस्को एक नए सामाजिक अनुबंध की मांग कर रहा है, जो शिक्षा के माध्यम से सामूहिक प्रयासों के आसपास दुनिया को एकजुट करना चाहता है. साथ ही सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय न्याय में निहित सभी के लिए स्थायी और शांतिपूर्ण भविष्य को आकार देने की रूपरेखा बनाना चाहता है, ताकि इस संबंध में आवश्यक ज्ञान और नवाचार प्रदान किए जा सकें.
वहीं, रिपोर्ट से जुड़ी एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया को शिक्षा में एक नए सामाजिक अनुबंध से जोड़ने के लिए शिक्षकों को 'की पर्सन' माना गया है, जिसमें शिक्षकों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका को 'चैंपियन' कहकर रेखांकित किया गया है.
कैसे लागू होगा सामाजिक अनुबंध?
यूनेस्को द्वारा प्रकाशित हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि यह नया सामाजिक अनुबंध उन व्यापक सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए, जो मानव अधिकारों को रेखांकित करते हैं, जैसे कि समावेश और समानता, सहयोग और एकजुटता.
लिहाजा, रिपोर्ट में इस निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश की गई है कि सामाजिक अनुबंध को मुख्यत: दो मूलभूत सिद्धांतों द्वारा लागू कराया जाना चाहिए: 1. जीवन भर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित करना और 2. शिक्षा को सार्वजनिक कल्याण के रूप में मजबूती प्रदान करना.
इसके अलावा, शिक्षा क्षेत्र में इस सामाजिक अनुबंध को लागू कराने के दौरान आने वाली अड़चनों की भी पहचान की गई है. जैसी कि बढ़ती सामाजिक और आर्थिक असमानता, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का नुकसान, लोकतांत्रिक पिछड़ापन और विघटनकारी तकनीकी स्वचालन कुछ ऐसी चुनौतियां हैं, जिन पर प्रकाश डाला गया है.
यूनेस्को की रिपोर्ट जाहिर करती है कि दुनिया भर के दस लाख से ज्यादा लोग वर्तमान दौर पर चल रहे शिक्षा सुधार से बहुत अधिक संतुष्ट नहीं हैं. अभी भी न्यायपूर्ण और शांतिपूर्ण समाज तथा साझा प्रगति जैसी बातें दूर की कौड़ी लगती हैं. वास्तव में, मनुष्यों की कुछ कठिनाइयां मनुष्यों के शिक्षित होने के कारण उत्पन्न हुई हैं.
शिक्षा क्षेत्र में नवीनीकरण से मतलब?
यूनेस्को की रिपोर्ट में शिक्षा क्षेत्र को नवीनीकृत करने से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव शामिल किए गए हैं. शुरुआत हुई है शिक्षण पद्धतियों से, साथ ही इसमें कुछ ऐसे बिन्दु जोड़े गए हैं जो व्यक्तिगत उपलब्धि पर केंद्रित शिक्षक-संचालित पाठों पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय शैक्षिक सहयोग पर जोर देते हैं.
वहीं, स्कूली पाठ्यक्रम को पारिस्थितिक, अंतर-सांस्कृतिक और अंतःविषय सीखने पर जोर देने के अनुकूल बनाने पर जोर दिया गया है.
दरअसल, शिक्षण की पूरी व्यवस्था को व्यक्तिगत अभ्यास की बजाय सामूहिक सहयोग से प्रेरित अभ्यास आधारित बनाने पर जोर दिया गया है.
दरअसल, यह ऐसा दौर है जब वैश्विक शिक्षा संस्थानों को संरक्षित करने की आवश्यकता तो जताई ही जा रही है, लेकिन शिक्षा क्षेत्र में अब दुनिया को सार्वभौमिक मॉडल और स्कूलों को फिर से परिभाषित करने की बहस चल रही है. इसमें गतिविधि आधारित शिक्षण पद्धति जोर दिया जा रहा है.
देखा जाए तो यह रिपोर्ट एक ऐसा ब्लूप्रिंट है, जो दुनिया भर के समुदाय, देश, स्कूल, शैक्षिक कार्यक्रम और प्रणालियों को शिक्षा में एक नए सामाजिक अनुबंध से जुड़ने के लिए सोचने और कल्पना करने का निमंत्रण देता है. लेकिन, सवाल यह है कि दुनिया शिक्षा में एक नए सामाजिक अनुबंध से जुड़ने के लिए कितनी तैयार है?
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शिरीष खरे लेखक व पत्रकार
2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.
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