सम्पादकीय

क्या वनाधिकार की नई उम्मीद जगाएगा जनजातीय सम्मेलन ?

Gulabi
15 Nov 2021 9:32 AM GMT
क्या वनाधिकार की नई उम्मीद जगाएगा जनजातीय सम्मेलन ?
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वनाधिकार की नई उम्मीद
भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में जनजातीय सम्मेलन एक नई आशा और उम्मीद जगाता है. इसलिए क्योंकि यहां इन जनजातियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय होता रहा है, यही जनजातियां विकास परियोजनाओं का सबसे ज्यादा शिकार होती रही हैं, उन्हें अपने—जंगल और जमीन से बारबार बेदखल होते रहना पड़ा है, और जब वनाधिकार कानून लाने के बाद इन्होंने अपने अधिकारों को सुरक्षित करने की कोशिश की तो साढ़े तीन लाख दावों को निरस्त कर दिया गया है. ऐसे में जनजातीय गौरव दिवस का यह कार्यक्रम उनके अधिकारों के लिए एक नई उम्मीद बनकर आया है.
बिरसा का आंदोलन जब 1901 में पूरी तरह से समाप्त हो गया, उसके बाद सरकारी अधिकारियों ने यह महसूस किया कि असंतुष्ट मुंडाओं के लिए एक अधिकार अभिलेख तैयार करने की तुरंत आवश्यकता है. मुंडा चाहते भी यही थे कि उनकी जमीन की सुरक्षा प्रदान की जाए, भूमि पर उनके अधिकारों को मान्यता मिले, लेकिन लंबे समय तक पूरे भारत में आदिवासियों को उनके हकों को नहीं दिया जा सका.
इसकी एक कोशिश 2006 में हुई, जब भारत में आदिवासियों और अन्य वन निवासियों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा के मद्देनज़र भारत की संसद ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम – 2006 लागू किया. इस कानून के मुताबिक एक निश्चित तारीख के पहले वन भूमि पर कब्ज़ा करके खेती करने वाले आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों को मान्यता दी जाएगी.
क़ानून कहता है कि 'औपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतंत्र भारत में राज्य वनों को समेकित करते समय उनकी पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके निवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी गई थी, जिसके परिणामस्वरुप वन में निवास करने वाली उन अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के प्रति ऐतिहासिक अन्याय हुआ है, जो वन पारिस्थितिकी प्रणाली को बचाने और बनाए रखने के लिए अभिन्न अंग हैं,' लेकिन लचर क्रियान्यवन से कानून का मकसद अब तक अधूरा है. बड़ी संख्या में वनाधिकार दावों को कई कारण बताकर निरस्त कर दिया गया.
मध्यप्रदेश में 1.5 करोड़ आदिवासी हैं, कुल आबादी का तकरीबन 20 फीसदी. इसलिए वनाधिकार यहां पर बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, लेकिन इसका कुछ इस तरह पालन हुआ कि प्रदेश में नवंबर 2017 तक 422403 आदिवासियों ने वनभूमि पर अधिकार के लिए व्यक्तिगत दावे दाखिल किए इनमें से 291393 दावे यानी 47.7 प्रतिशत निरस्त कर दिए गए. अन्य परंपरागत वन निवासियों के द्वारा 154130 दावे किए गए उनमें से 150970 यानी 97.9 प्रतिशत दावे खारिज कर दिए गए. इसमें कानून के उस विसंगतिपूर्ण प्रावधान ने बड़ी भूमिका निभाई है, जिसमें कहा गया था कि अन्य परंपरागत वन निवासियों को उस क्षेत्र में अपनी तीन पीढ़ियों की मौजूदगी का प्रमाण देना होगा.
राज्य के 42 जिलों में इस श्रेणी के सभी 100 प्रतिशत दावे निरस्त कर दिए गए. सामुदायिक अधिकार भी इस कानून का एक महत्वपूर्ण भाग था, लेकिन 39416 दावों में 11946 (30.3 प्रतिशत) खारिज कर दिए गए. पिछले साल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान वनाधिकार दावों की समीक्षा बैठक में अधिकारियों की जमकर खिंचाई की. उन्होंने कहा कि कि वे गरीब के अधिकारों को छिनने नहीं देंगे. उन्होंने निर्देश दिए कि कोई भी आदिवासी जो दिसम्बर 2005 को या उससे पहले से भूमि पर काबिज है, उसे अनिवार्य रूप से भूमि का पट्टा मिल जाए. कोई पात्र आदिवासी पट्टे से वंचित न रहे.
उन्होंने 3 लाख 58 हजार 339 आदिवासियों के वनाधिकार दावों को निरस्त किए जाने पर कहा था कि इसके क्रियान्वयन को अधिकारियों ने गंभीरता से नहीं लिया है. उन्होंने यह माना था कि आदिवासी समाज का ऐसा वर्ग है जो अपनी बात ढंग से बता भी नहीं पाता, ऐसे में उनसे पट्टों के साक्ष्य मांगना तथा उसके आधार पर पट्टों को निरस्त करना नितांत अनुचित है. 13 दिसम्बर 2005 अथवा उससे पहले की स्थिति पर काबिज होने का प्रमाण पत्र प्रस्तुत नहीं होने के कारण सबसे ज्यादा 1,17,314 और तीन पीढ़ी का प्रमाण पत्र प्रस्तुत नहीं कर पाने के कारण 1,04,280 दावों को निरस्त कर दिया गया था.
इस नाराजगी का कितना असर हुआ, इसकी कोई रिपोर्ट अब तक नहीं आ सकी है, लेकिन जनजातीय सम्मेलन का सही अर्थ तो तभी होगा जब इन सारे निरस्त किए गए दावों की एक बार पुन: समीक्षा की जाए और इसके क्रियान्वयन की दिक्कतों को दूर किया जाए.
मध्यप्रदेश की ही बात नहीं है. देश की तस्वीर पर नजर डाली जाए तो 31.03.2019 तक की जानकारी के अनुसार देश में कुल 42,37,853 व्यक्तिगत और सामुदायिक दावे किए गए, इनमें से 19,64,048 व्यक्तिगत और सामुदायिक दावे वितरित किए गए. जबकि 17,53,504 व्यक्तिगत दावों को निरस्त कर दिया गया. 5,20,301 दावे प्रक्रिया में थे. यानी तकरीबन 41 प्रतिशत दावे देश के स्तर पर भी निरस्त किए जा चुके हैं.
जनजातीय गौरव सही मायनों में तभी मिलेगा जबकि जंगलों में रहने वाले इन लोगों को उनके हकों को सौंपा जाएगा, विसंगतियों को दूर किया जाएगा और उन्हें बार—बार विस्थापन के दंश से बचाया जाएगा. आदिवासी समाज अपने में ही मस्त रहने वाला समाज है. बिरसा मुंडा का एक गीत भी है…
आओ हम पीपल की घनी छांह तले नाचें,
आओ, बरगद की सुखद छाया में करमा नृत्य करें
ओ साथी, बोलो, बोलो, हम यहां क्यों न नाचें
हम करमा नृत्य करें
अरे, हम तो पीपल के पेड़ तले नाचें—गाएंगे ही,
अरे, बरगद की छांव में उन्मत्त होकर करमा नृत्य करेंगे ही!




(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ब्लॉगर के बारे में
राकेश कुमार मालवीय
राकेश कुमार मालवीयवरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.
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