सम्पादकीय

क्या RSS के कट्टरपंथी हिंदुत्व और धर्म के पारंपरिक मायने में से किसी एक को चुनना होगा?

Gulabi Jagat
28 April 2022 2:55 PM GMT
Will the RSS have to choose between radical Hindutva and its traditional sense of religion?
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ओपिनियन
रंजोना बनर्जी |
"धर्म संसद" (Dharma Sansad) यानी धार्मिक उद्देश्य से अक्सर आयोजित होने किए जाने वाले इस कार्यक्रम में हिंदू मंदिरों, संगठनों और समूहों के धर्माचार्यों और पदाधिकारियों का जमावड़ा होता है. इसका नाम भले ही भव्य लगता हो लेकिन यह कोई संसद नहीं होता क्योंकि यह निर्वाचित प्रतिनिधियों का कोई समूह नहीं होता. और "धर्म" एक व्यापक शब्द है: इनमें खास तौर से हिंदू (Hindu) और उनसे जुड़े समूह यानी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से घनिष्ठ संबंध रखने वाले हिंदुत्ववादी संगठन के लोग शामिल होते हैं. वैसे ग्रीक पौराणिक कथाओं के संदर्भ में पार्लियामेंट उल्लुओं की सभा के लिए व्यक्त की जाने वाली समूहवाचक संज्ञा है, लेकिन शायद यहां इसका कोई संदर्भ नहीं है.
अधिकतर भारतीयों, यहां मैं हिंदुओं को भी शामिल करती हूं, को इस बारे में बहुत कम जानकारी होती है कि इन सभाओं में क्या होता है, और उनके लिए यहां "धर्म" का एक सामान्य मतलब यह हो सकता है कि ऐसे आयोजनों में ये धर्माचार्य और पदाधिकारी, शाश्वत सत्य, ब्रह्मांड से संबंधित और आत्मज्ञान के लिए आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा करते हैं. लेकिन, जैसा कि हमने पिछले साल हरिद्वार और दिल्ली में आयोजित हुए धर्म संसद के दौरान देखा, इसका मुख्य उद्देश्य हथियार जमा करने की रणनीति तैयार करना और मुस्लिमों की हत्या और उनकी महिलाओं का रेप करने की योजना बनाना है.
"हम कानून में विश्वास नहीं करते…हम किसी से नहीं डरते."
प्रशासन, और इसमें दिल्ली पुलिस शामिल है, ने गांधी की "बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो" को तो स्वीकार किया है लेकिन "बुरा मत बोलो" के स्थान पर "बुराई के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करो" की पंक्ति को अपना लिया है. हालांकि जनता के लगातार दबाव के कारण, बेमन से इसे कुछ गिरफ्तारियां करनी पड़ी. सौभाग्यवश, भारत के धर्म को बचाने के लिए, सुप्रीम कोर्ट इन बुराइयों को पकड़ने में कामयाब रहा और 27 अप्रैल, बुधवार, को रुड़की में आयोजित धर्म संसद को लेकर उसने उत्तराखंड सरकार को आड़े हाथों लिया. कोर्ट ने प्रशासन को स्पष्ट रूप से निर्देश दिया: आपके आश्वासन के बावजूद कुछ भी अनहोनी होने पर हम संबंधित सचिव (गृह), मुख्य सचिव और आईजी को जिम्मेदार ठहराएंगे. हम इसे अभी रिकॉर्ड पर रख रहे हैं." जस्टिस एएम खानविलकर, अभय एस ओका और सीटी रविकुमार की बेंच ने उत्तराखंड के डिप्टी एडवोकेट जनरल जतिंदर कुमार सेठी को ये निर्देश दिए.
कोर्ट का ये निर्देश इन सभाओं में प्रयोग किए जाने वाली अभद्र भाषा और हिंसा की धमकी, विशेष रूप से मुसलमानों के खिलाफ, के संदर्भ में थे. ये निर्देश यह सुनिश्चित करने के लिए दिए गए कि धर्म संसद के धर्माचार्य और पदाधिकारी ऐसी किसी अभद्र भाषा का प्रयोग न करें, जिसे दिल्ली पुलिस ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत किया था. रुड़की से यह खबर है कि वहां की पुलिस, बैठक को नियंत्रित करने के लिए सख्ती दिखा रही है और लाउडस्पीकर वगैरह हटा रही है. लेकिन यह देखना बाकी है कि कोर्ट के निर्देशों का कहां तक पालन किया जाता है, राज्य के बड़े अधिकारी भी इसका पालन करेंगे या नहीं. क्योंकि पिछले अनुभव के आधार पर हम जानते हैं कि आश्चर्यजनक चीजें घटित हो जाती हैं.
गाजियाबाद के डासना मंदिर के पुजारी यति नरसिंहानंद सरस्वती को उस भाषण के एक महीने बाद गिरफ्तार किया गया था, जिसमें उन्होंने मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करने की बात कही थी. जल्द ही उन्हें जमानत मिल गई और उन्होंने फिर वहीं बातें करनी शुरू दीं. हालांकि, हाल ही में इसी तरह की एक सभा (ऊना, हिमाचल प्रदेश) में उन्होंने अपना वही रुख दिखाया. ऊना कार्यक्रम के आयोजकों में से एक सत्यदेव सरस्वती ने मीडिया से कहा, "हम कानून में विश्वास नहीं करते…हम किसी से नहीं डरते."
लोकतांत्रिक भारत के विचार पर उनका भरोसा नहीं है
यह टिप्पणी हमें मामले की निचोड़ तक ले जाती है. अधिकतर हिंदू संगठन, किसी न किसी रूप से आरएसएस से जुड़े हुए हैं. और अब, हिंदू धर्म एक तरह से राजनीतिक हो गया है, यह पहले जैसा नहीं है. समय आ गया है कि हिंदू यह समझें कि उनके धर्म का संबंध मोक्ष और परम सत्य से है. उन्हें तय करना है कि क्या वे उग्र हिंदुत्व के आरएसएस के विचार का पालन करना चाहते हैं या पारंपरिक अर्थों में "धर्म" के साथ चलना चाहते हैं. सभी धर्मों की तरह, हिंदू धर्म में भी ऐसी समस्याएं हैं जो सभ्यता संबंधी मूल्यों का विरोध करती हैं. इसमें जाति व्यवस्था विद्यमान है. भारत के संविधान ने इससे निपटने की कोशिश की. लेकिन आज हम देख रहे हैं कि यह न केवल मानवाधिकारों, न्याय और समानता से दूर हो रहा है, बल्कि विभिन्न समुदायों और अन्य धर्मों के लोगों के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा दे रहा है. आरएसएस के वर्चस्व की व्यवस्था में, विशेष रूप से मुसलमानों, दलितों और महिलाओं को बख्शा नहीं जा रहा है.
नफरत फैलाने वाले ये साधु, पुजारी, मंदिरों और अखाड़ों के ये प्रबंधक किस हद तक सभी हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं? इनको समझने के लिए "अधर्म" शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए. हिंदू धर्म, किसी एक किताब या एक ईश्वर का धर्म नहीं है. इसमें असंख्य धार्मिक मत हैं, जिन्हें एक धागे में पिरोया गया है. आरएसएस की मानसिकता अब्राहमिक धर्मों, यहूदी, ईसाई और इस्लाम के अनुयायियों पर हमला करती है. असल में, आरएसएस एकेश्वरवाद और एक पुस्तक पर आधारित इन तीनों धर्मों से ईर्ष्या करता है.
ये सिर्फ संसद नहीं हैं, जो अधर्म का काम कर रहे हैं और संविधान की भावना के खिलाफ हैं. बल्कि, भगवान राम को अन्य सभी देवी-देवताओं से ऊपर रखने का प्रयास किया जा रहा है, भगवद्गीता को स्कूली पाठ्यक्रम में जबरन शामिल किया जा रहा है. भारत के पश्चिम में गणेश की सबसे अधिक पूजा की जाती है, पूर्व में विभिन्न रूपों में देवी की पूजा होती है, दक्षिण में मुरुगन, शक्ति पंथ से भी, की व्यापक रूप से पूजा की जाती है, हिंदू धर्म विविधतापूर्ण और अलग है. यह सही है कि राम पूज्यनीय हैं लेकिन व्यापक स्तर पर वे उत्तर भारतीय देवता हैं. अपनी आजादी को राजनीतिक सत्ता से दूर रखने के बजाय, ये संसद आरएसएस के हिंदुत्व और हिंदू वर्चस्ववादी विचारों के साथ आ गए हैं. वे खुले तौर पर दावा करते हैं कि वे कानून की परवाह नहीं करते, लोकतांत्रिक भारत के विचार पर उनका भरोसा नहीं है. अधिक खतरनाक तो यह है कि वे बड़े पैमाने पर हिंसा का आह्वान करते हैं.
यदि अभद्र भाषा और हिंसा, हिंदू धर्म का अंग बनने जा रही है, तो हिंदू धर्म में क्या बचेगा? सुप्रीम कोर्ट ने संतुलन बनाने की कोशिश की है. अब यह केंद्र में बैठी बीजेपी और उनके राज्य सरकारों और नागपुर में उसके शासकों पर निर्भर है कि वे इस संतुलन को कैसे आगे ले जाते हैं. राज्य प्रशासन, हमारे उन कानूनों का पालन करने में असमर्थ प्रतीत होते हैं यदि ये कानून हिंदू वर्चस्ववादी विचारों की खिलाफत करते हैं. क्या वे सुप्रीम कोर्ट की चेतावनियों पर ध्यान देंगे? कहीं न कहीं, यह भारत के लोगों, विशेषकर हिंदुओं, पर निर्भर करता है, जहां उन्हें यह तय करना है कि उनका भविष्य किसमें है.
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