सम्पादकीय

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के इस्तीफे से क्या ममता बनर्जी की कुर्सी पर खतरा बढ़ जाएगा?

Tara Tandi
3 July 2021 12:02 PM GMT
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के इस्तीफे से क्या ममता बनर्जी की कुर्सी पर खतरा बढ़ जाएगा?
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कहते हैं होनी को कोई नहीं टाल सकता

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | अजय झा| कहते हैं होनी को कोई नहीं टाल सकता. शायद तीरथ सिंह रावत की कुंडली में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री का पद कुछ ही समय के लिए निर्धारित था. ख़बरों के अनुसार रावत ने भारतीय जनता पार्टी आलाकमान से मीटिंग के बाद अपना इस्तीफा पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा को सौंप दिया है. अब महज यह एक औपचारिकता है कि उनका इस्तीफा उत्तराखंड की राज्यपाल बेबी रानी मौर्या को जल्द ही भेज दिया जाएगा और 39 महीनों के अंतराल में शीघ्र ही प्रदेश को उसका तीसरा मुख्यमंत्री मिल जाएगा.

रावत ने मुख्यमंत्री पद की शपथ 10 मार्च को ली थी और चूंकि वह विधानसभा के सदस्य नहीं है, नियमों के अनुसार उन्हें 6 महीने के अन्दर ही विधानसभा का सदस्य बनना आनिवार्य था, जो अब संभव नहीं दिख रहा है. एक तो कोरोना महामारी का दौर और ऊपर से एक व्यस्था कि कोई भी उपचुनाव जबकि विधायिका का कार्यसमय एक साल से कम हो, नहीं कराया जाता. उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव फरवरी-मार्च में होने की संभावना है और मौजूदा विधानसभा का जीवनकाल अगले वर्ष 21 मार्च को ख़त्म हो जाएगा. बावजूद इसके कि उत्तराखंड विधानसभा में विधायकों की मृत्यु के कारण दो स्थान रिक्त हैं, चुनाव आयोग उपचुनाव नियमों का उल्लंघन करके सिर्फ रावत की कुर्सी बचाने के लिए उपचुनाव नहीं करवाने वाला है.
उत्तराखंड में बीजेपी की मुश्किलें बढ़ी हुई हैं
नियमों के अनुसार रावत 9 सितम्बर तक मुख्यमंत्री बने रह सकते हैं, पर लगता है कि बीजेपी ने यह निर्णय ले लिया है कि अगर रावत की जगह किसी और को मुख्यमंत्री बनाना ही है तो नए मुख्यमंत्री को जितना जल्दी संभव हो, उतना समय दिया जाना चाहिए, ताकि रावत के उत्तराधिकारी को पर्याप्त समय मिल सके. हालांकि बीजेपी अपनी दूरगामी नीतियों के लिए जानी जाती है, पर लगता है कि पार्टी से कहीं चूक हो गयी. अगर पार्टी को यह लग रहा था कि रावत के पूर्वाधिकारी त्रिवेन्द्र सिंह रावत जो चार सालों तक मुख्यमंत्री रहे, का कामकाज संतोषजनक नहीं था और उनके नेतृत्व में बीजेपी चुनाव नहीं जीत पाएगी तो बीजेपी आलाकमान को यह यह निर्णय समय रहते ले लेना चाहिए था. उपचुनाव कराने के लिए विधानसभा में किसी विधायक की मृत्यु का इंतज़ार करने कि बजाय विधानसभा के जीवनकाल रहने के एक साल पहले ही यह फैसला ले लेना चाहिए था. लगता है कि बीजेपी की कैलकुलेशन में कहीं गड़बड़ हो गयी, वर्ना रावत को इस्तीफा देने की नौबत ही नहीं आती.
बीजेपी की समस्या यहीं समाप्त नहीं हो जाती, कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का फैसला लिया है और आम आदमी पार्टी ने सेवानिवृत्त कर्नल अजय कोठियाल को अपने मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में प्रस्तुत किया है. यानि बीजेपी को भी उत्तराखंड की जनता को बताना पड़ेगा कि चुनाव जीतने की स्थिति में उनका अगला मुख्यमंत्री कौन होगा.
बीजेपी ने अब तक उत्तराखंड को 6 मुख्यमंत्री दे दिए हैं
बीजेपी का ट्रैक-रिकॉर्ड उत्तराखंड में हमेशा सवालों के घेरे में ही रहा है. नवम्बर 2000 में पृथक राज्य बनने के बाद अभी तक प्रदेश में चार बार विधानसभा चुनाव हुआ है, बारी-बारी से एक-एक कभी बीजेपी की और कभी कांग्रेस की सरकार बनी है. जहां कांग्रेस पार्टी के 10 साल के सत्ता में तीन मुख्यमंत्री हुए– नारायण दत्त तिवारी, विजय बहुगुणा और हरीश रावत, बीजेपी ने अभी तक प्रदेश को 6 मुख्यमंत्री दिए हैं. क्योंकि हर एक चुनाव में वहां सरकार बदलती है, लगता है कि बीजेपी को या तो उत्तराखंड का मूड समझ में नहीं आया या फिर पार्टी प्रदेश को गंभीरता से नहीं ले रही है. तीरथ सिंह रावत का इस्तीफा तो यही दिखाता है.
रावत का चार महीनों का कार्यकाल ऐसा भी नहीं रहा कि अगर किसी और को मुख्यमंत्री बनाया गया और रावत को अगले मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया गया तो जनता उनसे मंत्रमुग्ध हो कर उनके नाम पर वोट डालेगी. खबर यह भी है कि बीजेपी ने यह फैसला किया है कि पश्चिम बंगाल में हार के बाद उत्तराखंड के आगामी विधानसभा चुनवों में बीजेपी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर वोट नहीं मांगेगी. यानि बीजेपी को उत्तराखंड में किसी ऐसे नेता को अगला मुख्यमंत्री बनाना पड़ेगा जिसके नाम पर पार्टी चुनाव जीत पाए. और वह चेहरा कोई भूतपूर्व मुख्यमंत्री हो नहीं सकता, जिसे पार्टी ने ही पूर्व में नकार दिया हो.
तीरथ सिंह रावत बहाना हैं ममता बनर्जी निशाना हैं?
उत्तराखंड में रावत के इस्तीफा के बाद कहीं ना कहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के माथे पर पसीना आना शुरू हो गया होगा है. नंदीग्राम से विधानसभा चुनाव हारने के बाद ममता बनर्जी ने 5 मई को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी, यानि उन्हें 4 नवम्बर तक विधानसभा के सदस्य के रूप में शपथ लेनी ही होगी, अन्यथा उनकी कुर्सी चली जाएगी. हालांकि पश्चिम बंगाल विधानसभा में कई स्थान रिक्त हैं और ममता बनर्जी के लिए उनके पूर्व के विधानसभा क्षेत्र भवानीपुर से विधायक सोभनदेव भट्टाचार्य ने 21 मई को विधानसभा से इस्तीफा दे दिया था. ममता बनर्जी के ऊपर रावत की तरह विधानसभा के एक साल से कम कार्यकाल होने की तलवार नहीं लटक रही है, पर यह सवाल ज़रूर है कि क्या चुनाव आयोग पश्चिम बंगाल में उपचुनाव समय रहते करवाएगा? इसके लिए यह जरूरी है कि अक्टूबर के पहले हफ्ते में उपचुनाव की प्रक्रिया शुरू हो जाए, यानि सितम्बर महीने के मध्य तक पश्चिम बंगाल कोरोना महामारी पर पूर्ण रूप से काबू पा ले, ताकि उसे करोना महामारी के मध्य में पिछले दौर का चुनाव करने के निर्णय पर किसी और उच्च न्यायालय से फटकार ना मिले, जैसे की मद्रास हाई कोर्ट ने किया था, और सवाल यह भी उठाया था कि क्यों ना चुनाव आयोग को महामारी के बीच चुनाव कराने और आम जनता की महामारी में मृत्यु का जिम्मेदार ठहराया जाये?
अभी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि भारत में कोरोना की तीसरी लहर नहीं आएगी, और अगर आई तो क्या वह पिछले दो दौर से ज्यादा भयावह नहीं होगी? इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी तीरथ सिंह रावत के जरिए ममता बनर्जी पर निशाना साध रही हो! अगर ऐसा होता भी है तो यह कुछ महीनो के लिए ही होगा, क्योंकि पश्चिम बंगाल में विधानसभा के उपचुनाव तो करवाना ही होगा. हां, ममता बनर्जी के लिए यह एक झटका हो सकता है, वह भी तब जबकि अब विपक्ष की तरफ से ममता बनर्जी को आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी के खिलाफ प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवार बनाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है.
हरीश रावत पिटे हुए मोहरे हैं
ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री रहे ना रहे, रावत के इस्तीफा को बीजेपी की रणनीति का हिस्सा कदापि नहीं माना जा सकता. बीजेपी से कहीं ना कहीं चूक हो गयी और पार्टी को उत्तराखंड की जनता को यह समझाना कठिन हो सकता है कि पार्टी को पांच साल पूरे होने के पहले ही क्यों तीन मुख्यमंत्रियों को मनोनीत करना पड़ा? इतना तो तय है कि अगर बीजेपी उत्तराखंड में इतिहास पलटते हुए चुनाव में एक बार फिर जीत जाती है तो इसका कारण कांग्रेस पार्टी का बुजुर्गों के प्रति प्यार ही होगा. हरीश रावत जब जवान थे और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे तब पार्टी ने 2002 में उनकी अनदेखी करते हुए वयोवृद्ध नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बनाया था. वैसे भी हरीश रावत वर्तमान में एक पिटे हुए मोहरे से कम नहीं हैं– पिछले विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री रहते हुए भी दो क्षेत्रों से चुनाव लड़े और दोनों क्षेत्रों में उनकी शर्मनाक पराजय हुयी थी. उत्तराखंड का अगला विधानसभा चुनाव इन परिस्थितियों में रोचक और रोमांचक होने वाला है.


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