सम्पादकीय

कांग्रेस की 'जी' हुजूरी से विपक्षी एकता का सपना साकार हो पाएगा?

Rani Sahu
21 Aug 2021 5:27 AM GMT
कांग्रेस की जी हुजूरी से विपक्षी एकता का सपना साकार हो पाएगा?
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क्या जी हुजूरी से ही विपक्षी एकता का सपना साकार हो जाएगा और देश को नरेन्द्र मोदी सरकार (Narendra Modi Government) का विकल्प मिल जाएगा

क्या जी हुजूरी से ही विपक्षी एकता का सपना साकार हो जाएगा और देश को नरेन्द्र मोदी सरकार (Narendra Modi Government) का विकल्प मिल जाएगा? सवाल थोड़ा कड़वा तो जरूर है लेकिन शुक्रवार को विपक्षी दलों के एक वर्चुअल मीटिंग में जो कुछ भी हुआ, उससे तो यही लगता है कि विपक्ष की सोच है कि जी हुजूरी ही उनकी सफलता की कुंजी है. कल कांग्रेस पार्टी (Congress Party) की 'स्थायी' अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने विपक्ष के नेताओं की एक बैठक बुलाई थी, जिसमें 19 विपक्षी दलों के नेता शामिल हुए. ऐसा लगने लगा है कि इस मीटिंग के जरिये सोनिया गांधी अपने परिवार के विरोधियों को सन्देश देना चाह रही थीं कि वह उनसे दो कदम आगे ही रहेंगी. इस महीने की शुरुआत में राहुल गांधी ने (Rahul Gandhi) एक ब्रेकफास्ट मीटिंग आयोजित की थी, जिसमें 15 दलों के नेता शामिल हुए थे.

कांग्रेस पार्टी के बागी नेताओं, जिन्हें G-23 के नाम से जाना जाता है, को यह नागवार था कि राहुल गांधी प्रस्तातिव संयुक्त विपक्ष के नेता बन जाएं. उसका जवाब उन्होंने बागी तेवर वाले नेता कपिल सिब्बल (Kapil Sibal) के बंगले पर एक डिनर पार्टी आयोजित कर के दी, जिसमे 17 दलों के नेता शामिल हुए, यानि राहुल गांधी की मीटंग से दो ज्यादा. कल सोनिया गांधी ने इसका करार जबाब दिया और उनकी मीटिंग में 19 दलों में नेता शामिल हुए, यानि सिब्बल के घर पहुंचे नेताओं से दो ज्यादा. अभी इसकी जानकारी नहीं है कि क्या इस 19 दलों में समाजवादी पार्टी का नाम भी शामिल है, क्योंकि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) इसमें शामिल नहीं हुए.
अखिलेश यादव फिलहाल इस विपक्षी एकता से दूरी बनाए हुए हैं?
मीटिंग में उनका एक सन्देश पढ़ कर सुनाया गया जिसमें अखिलेश यादव ने बताया कि चुकी वह उत्तर प्रदेश के सुदूर इलाकों की यात्रा कर रहे हैं, कनेक्टिविटी प्रॉब्लम के कारण वह इस ऑनलाइन मीटिंग में शामिल नहीं हो पाएंगे. अखिलेश यादव का बहाना भी अजीब था, उत्तर प्रदेश में कौन सा ऐसा इलाका है जहां मोबाइल का सिग्नल नहीं होता? अखिलेश की नीति साफ़ है, वह दूध के जले हैं और मठ्ठा भी फूंक-फूंक कर ही पियेंगे. कांग्रेस पार्टी के साथ वह दिखना नहीं चाहते, ताकि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को फिर से भ्रम ना हो जाए की समाजवादी पार्टी और कांग्रेस एक साथ है. 2017 के चुनाव में दोनों दलों का गठबंधन था जिसमे कांग्रेस पार्टी खुद तो डूबी ही साथ में समाजवादी पार्टी को भी डुबो दिया था.
अखिलेश यादव की समझदारी उस समय सामने आ गयी जब सोनिया गांधी की मीटिंग में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आगामी उत्तर प्रदेश चुनाव का जिक्र करते हुए सुझाया कि विपक्षी एकता की शुरुआत उत्तर प्रदेश से ही होनी चाहिए, ताकि बीजेपी को प्रदेश में हराया जा सके. ममता बनर्जी स्वयं प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखती हैं और उत्तर प्रदेश का राजनीतिक दृष्टि से देश की राजनीति में बहुत बड़ी भूमिका होती है. ज्यादातर केंद्र में सरकार उसी पार्टी की बनती है जिसे लोकसभा चुनाव में प्रदेश की जनता का आशीर्वाद प्राप्त हो. उत्तर प्रदेश से सर्वाधिक 80 सांसद लोकसभा में चुने जाते हैं.
यूपी में भी पैर जमाना चाहती हैं ममता बनर्जी
ममता बनर्जी को उत्तर प्रदेश की अहमियत पता है, लिहाजा उनकी तृणमूल कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है. यह अलग बात है कि अभी हाल ही में हुए पश्चिम बंगाल चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने किसी अन्य दल को एक भी सीट नहीं दी, पर उत्तर प्रदेश में उनकी इच्छा है कि समाजवादी पार्टी उन्हें प्रदेश में पैर जमाने में मदद करे. उत्तर प्रदेश चुनाव के मद्देनजर सिर्फ समाजवादी पार्टी ही इस बैठक से दूर नहीं रही, बहुजन समाज पार्टी ने भी कांग्रेस पार्टी के मीटिंग में शामिल होने का आमंत्रण ठुकरा दिया था.
कई पार्टियां हैं जो इस विपक्षी एकता से दूर हैं
भले ही सोनिया गांधी की मीटिंग का एजेंडा 2024 का लोकसभा चुनाव था, पर अगले वर्ष की शुरुआत में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा की चिंता इस मीटिंग में साफ़ झलक रही थी. सिर्फ समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी को ही विधानसभा चुनावों के दरम्यान प्रस्तावित विपक्षी एकता से परहेज नहीं है, कांग्रेस पार्टी भी पंजाब में एक भी सीट किसी अन्य पार्टी के लिए नहीं छोड़ना चाहती है. पंजाब उन तीन राज्यों में से एक है जहां कांग्रेस पार्टी की सरकार है. 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी की जीत हुई थी और आम आदमी पार्टी तथा शिरोमणि अकाली दल वहां दूसरे और तीसरे नंबर पर थे.
कांग्रेस पार्टी और अकाली दल का प्रदेश में हमेशा से 36 का आंकड़ा रहा है. लिहाजा पंजाब चुनाव के मद्देनजर कल की बैठक में आम आदमी पार्टी और अकाली दल को न्योता नहीं दिया गया था. जो 19 पार्टियां कल की बैठक में शामिल हुईं उसमे कुछ ऐसे भी दल थे जिनके मुश्किल से एक या दो सांसद चुने जाते हैं, या होते भी नहीं हैं. यह सोचना कि सिर्फ इन 19 का साथ होना ही बीजेपी को हराने के लिए काफी होगा किसी शेख चिल्ली के सपने जैसा प्रतीत होता है.
ओडिशा में बीजू जनता दल लगातार पांच बार चुनाव जीत चुकी है और नवीन पटनायक पिछले 21 वर्षों से प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं. उनकी केंद्र की राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है और बीजेपी हो या कांग्रेस, दोनों से वह और उनकी बीजू जनता दल दूर ही रहती है. तेलंगाना के गठन के बाद से ही प्रदेश में के. चंद्रशेखर राव मुख्यमंत्री हैं और उनकी तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी लगातार दो बार चुनाव जीत चुकी है. वह भी बीजेपी हो या कांग्रेस, किसी के साथ नहीं दिखना चाहते. आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी फिलहाल कांग्रेस पार्टी के युवराज राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में सहयोग नहीं देंगे. उनका जख्म अभी भी हरा है. उन्हें याद है कि जब वह कांग्रेस पार्टी में रहते हुए मुख्यमंत्री बनना चाहते थे तो कैसे गांधी परिवार के इशारे पर उन्हें जेल भेज दिया गया था.
उत्तर प्रदेश के 80, ओड़िशा के 21, आंध्रप्रदेश के 25 और तेलंगाना के 17, यानि लोकसभा के 543 सीटों के से 143 सीट विपक्षी एकता की इस मुहीम से अभी से बहार है. अगले लोकसभा चुनाव के आते-आते और भी कई क्षेत्रीय दल कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार से पल्ला झाड़ सकते हैं, ताकि राज्य चुनावों में उनके जीतने की सम्भावना कम ना हो जाए. अब यह सोचने वाली बात है कि जबतक इसी तरह विपक्षी दल एक दूसरे को संसय और संदेह की नज़र से देखते रहेंगे तो क्या विपक्षी एकता हो भी पायेगा. रही कल के बैठक की बात तो सोनिया गांधी ने हमेशा की तरह किसी और का लिखा हुआ भाषण पढ़ कर बैठक की शुरुआत की. उनके संबोधन में आगामी लोकसभा चुनाव का जिक्र संक्षेप में और आखिरी में आया. उससे पहले उन्होंने कांग्रेस पार्टी की 'जी' भर कर तारीफ की और अपनी पीठ थपथपाई कि कैसे कांग्रेस पार्टी की अगुवाई में संसद नहीं चलने दिया गया, कैसे उनके लिखे पत्र के कारण मोदी सरकार ने करोना के खिलाफ व्यापक टीकाकरण की नीति बनाई, वगैरह-वगैरह.
जी हुजूरी से कैसे तय होगी विपक्षी एकता
फिर सोनिया गांधी 'जी' ने शरद पवार 'जी' की तारीफ की, फिर ममता 'जी' और उद्धव ठाकरे 'जी' की मोदी सरकार से गैर-बीजेपी सरकारों के साथ भेदभाव की नीति पर टक्कर लेने के लिए उनकी सराहना की. पता नहीं क्यों सोनिया 'जी' ने देश के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी 'जी', जो कल की बैठक में शामिल थे, की तारीफ नहीं की. जी हुजूरी सामने तब आई जब शरद यादव 'जी' ने ममता 'जी' के इस सुझाव के जवाब में कि विपक्षी दलों की एक कोर कमिटी बननी चाहिए जिसकी बैठक तीन-चार दिन में एक बार ज़रूर हो, वकालत की कि कोर कमिटी की बैठक की अध्यक्षता सोनिया 'जी' या राहुल 'जी' ही करें. शरद यादव 'जी' का इरादा साफ़ था कि कहीं ममता 'जी' राहुल 'जी' पर भविष्य में भारी ना पड़ जायें. एक तरफ संसय और संदेश और दूसरी तरफ जी हुजूरी, इस के बीच में विपक्षी एकता की जीत तो फिलहाल दूर की कौड़ी ही लगती है, अगर एकता हो भी जाए तो वह किसी चमत्कार से कम नहीं होगा.

अजय झा

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