सम्पादकीय

इस गुलाम मानसिकता से क्या कांग्रेस पार्टी कभी आजाद हो पाएगी?

Gulabi
4 Feb 2022 7:51 AM GMT
इस गुलाम मानसिकता से क्या कांग्रेस पार्टी कभी आजाद हो पाएगी?
x
ईर्ष्या की भावना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो कमोबेश सभी जीवित प्राणियों में पायी जाती है
अजय झा.
ईर्ष्या की भावना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जो कमोबेश सभी जीवित प्राणियों में पायी जाती है. कुछ वर्ष पहले टेलीविज़न पर एक विज्ञापन आता था जिसमें एक पंक्ति में इस ईर्ष्या की भावना को अचूक तरीके से दर्शाया गया था, जिस कारण वह विज्ञापन आज भी लोगों को याद है– उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफ़ेद कैसे, अब मुहावरा सा बन चुका है. इसी तरह की एक ईर्ष्या की भावना पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी (Congress Party) में भी दिखी, जबकि केंद्र सरकार ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad) को राष्ट्रीय सम्मान पद्म भूषण (Padma Bhushan) देने की घोषणा की.
आजाद के साथ उस सूची में पश्चिम बंगाल में पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का नाम भी शामिल था. बताया गया कि 77 वर्षीय बुद्धदेव भट्टाचार्य ने यह सम्मान लेने से मना कर दिया, जो विवादास्पद है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से वह लगातार बीमार चल रहे हैं और संभव है कि उनके नाम पर यह फैसला किसी और ने लिया हो.
सत्ताधारी दल पूर्व में भी विपक्षी नेताओं को राष्ट्रीय सम्मान देते थे
वामपंथियों की सबसे बड़ी समस्या है कि वह इतने रूढ़िवादी होते हैं कि मार्क्सवाद उनके लिए देश से आज भी बड़ा होता है. भारतीय जनता पार्टी से उनकी विचारधारा की पुरानी लड़ाई है. और अगर बुद्धदेव बाबू को राष्ट्रीय सम्मान बीजेपी की सरकार दे तो भला यह वामपंथियों को कैसे पसंद आने वाला था. वैसे, मोदी सरकार के इस कदम की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि पश्चिम बंगाल हो या केरल, अभी हाल फ़िलहाल में इन राज्यों में चुनाव नहीं होने वाला है. हां, त्रिपुरा में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने वाला है, पर पश्चिम बंगाल की ही तरह त्रिपुरा में भी वामदलों का सूर्यास्त हो चुका है. वहां सत्ता की लड़ाई बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस के बीच ही होने की सम्भावना है, लिहाजा बुद्धदेव बाबू को पद्म भूषण देने से बीजेपी को कोई चुनावी फायदा नहीं होने वाला है.
याद रहे कि वाममोर्चा वही ताकत है जो दो बार ऐसी भूल कर चुके हैं जिसके कारण उनकी राजनीति आधुनिक भारत में अप्रासंगिक हो चुकी है. 1996 में पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु को देश का प्रधानमंत्री नहीं बनने देने का निर्णय और 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु संधि के विरोध में मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस लेना वामदलों को आज भी काफी भारी पड़ रहा है.
वामदलों द्वारा उनके किसी नेता को मोदी सरकार द्वारा सम्मान देने की घोषणा पर उनकी हिचकिचाहट समझी जा सकती है, पर कांग्रेस पार्टी का गुलाम नबी आजाद को सम्मानित करना नागवार होना समझ से परे है. कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने चुटकी ली कि बुद्धदेव बाबू गुलाम नहीं बल्कि आजाद हैं, ने कांग्रेस पार्टी में विवाद शुरू कर दिया. अगर मोदी सरकार ने बीजेपी के किसी नेता को यह सम्मान दिया होता तब कांग्रेस की प्रतिक्रिया समझी जा सकती थी. ऐसा भी नहीं है कि सत्ताधारी दल पूर्व में विपक्षी नेताओं को राष्ट्रीय सम्मान नहीं देती थी, और ऐसी कोई परंपरा नहीं है कि मोदी सरकार कांग्रेस पार्टी से पूछती कि आपके दल के किस नेता को सम्मानित करना है. यह सरकारी फैसला होता है. सम्मान राष्ट्र की तरफ से दिया जाता है, ना कि सत्ताधारी दल द्वारा. सरकारें बदलती रहती हैं, पर राष्ट्र निरंतर और सर्वोपरि होता है.
सरकार के हर फैसले को राजनीति के चश्मे से नहीं देखना चाहिए
जहां कांग्रेस पार्टी जयराम रमेश के बेतुके बयान से विवादों में घिर गयी, एक राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक के एक बड़े पत्रकार जिनका कांग्रेस प्रेम और बीजेपी विरोध जग जाहिर है, उन्होंने कहा कि अगर आजाद से पहले मोदी सरकार यह सम्मान पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को देती तो फिर कांग्रेस पार्टी को तकलीफ नहीं होती. इस बात कि क्या गारंटी है कि अगर मनमोहन सिंह को यह राष्ट्रीय सम्मान दिया जाता तो भी कांग्रेस पार्टी को शिकायत नहीं होती कि यह निर्णय पंजाब चुनाव के मद्देनजर लिया गया है, यह भी संभव है कि कहा जाता मनमोहन सिंह क्यों, सोनिया गांधी क्यों नहीं. सवाल यह है कि गुलाम नबी आजाद क्यों नहीं, क्या सिर्फ इसलिए कि गांधी परिवार अब उन्हें पसंद नहीं करती?
पिछले कुछ वर्षों से कांग्रेस पार्टी ने राष्ट्रीय सम्मानों का मजाक बनाने की प्रथा की शुरू कर दी है. किसी भी बात पर कांग्रेस पार्टी के नेता और पार्टी से जुड़े बुद्धिजीवी वर्ग ने राष्ट्रीय सम्मान वापस करने की प्रथा बना ली है. जिसके बाद सरकार को अब फूंक-फूंक कर कदम लेना होता है और ऐसे लोगों को ही इस सूची में शामिल किया जाता है जो भविष्य में राजनीतिक कारणों से इन राष्ट्रीय सम्मानों की तौहीनी नहीं करें. इतना तो तय है कि अगर मनमोहन सिंह को यह सम्मान दिया जाता और कल को अगर राहुल गांधी उन्हें आदेश देते कि आप यह सम्मान वापस कर दें तो वह मना नहीं कर सकते थे. पर यह बात गुलाम नबी आजाद पर लागू नहीं होती.
आजाद कांग्रेस के उन गिने चुने नेताओं में हैं जो इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ काम कर चुके हैं, केंद्र में मंत्री और जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और सबसे बड़ी बात काजल की कोठरी रूपी कांग्रेस पार्टी में रह कर भी उनकी कमीज़ हमेशा सफ़ेद ही रही, उनकी कमीज़ पर भ्रष्टाचार का कभी कोई धब्बा नहीं लगा. यह विवाद सिर्फ यही दर्शाता है कि कांग्रेस पार्टी मानसिक रूप से कितनी दिवालिया हो चुकी है और क्यों कांग्रेस पार्टी और वामदलों का भारत की राजनीति में प्रभाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है, क्योंकि सरकार के हर फैसले को राजनीति के चश्मे से देखने की उन्हें बीमारी जो हो गयी है.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
Next Story