सम्पादकीय

क्या बीएसपी का हाथी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कांग्रेस पार्टी के इरादों को रौंद डालेगा?

Tara Tandi
28 Jun 2021 12:34 PM GMT
क्या बीएसपी का हाथी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कांग्रेस पार्टी के इरादों को रौंद डालेगा?
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बहुजन समाज पार्टी (BSP) सुप्रीमो मायावती (Mayawati) ने हाल ही में एक घोषणा की कि आगामी विधानसभा चुनाव (Assembly Election 2022) में पंजाब (Punjab) के सिवाय सभी अन्य प्रदेशों में उनकी पार्टी अकेले ही चुनाव लड़ेगी.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क |अजयझा |बहुजन समाज पार्टी (BSP) सुप्रीमो मायावती (Mayawati) ने हाल ही में एक घोषणा की कि आगामी विधानसभा चुनाव (Assembly Election 2022) में पंजाब (Punjab) के सिवाय सभी अन्य प्रदेशों में उनकी पार्टी अकेले ही चुनाव लड़ेगी. बीएसपी को भले ही एक राष्ट्रीय दल के रूप में चुनाव आयोग से मान्यता प्राप्त है, पर पार्टी का सबसे अधिक आधार सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही है. मायावती का चुनाव अकेले लड़ने का फैसला कांग्रेस पार्टी के लिए मुश्किल पैदा करने वाला है. कांग्रेस पार्टी (Congress Party) उत्तर प्रदेश में बिलकुल अलग थलग पड़ गयी है. 2017 के विधानसभा चुनाव में उसका गठबंधन समाजवादी पार्टी के साथ था. समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि इस बार उनकी पार्टी का कांग्रेस के साथ कोई गठबंधन नहीं होगा. उसके बाद से ही कांग्रेस पार्टी लगातार बीएसपी की तरफ आशा भरी नज़रों से देख रही थी, पर अब मायावती ने भी कांग्रेस पार्टी से मुंह मोड़ना ही बेहतर समझा है.

पंजाब में बीएसपी शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है, जिसके तहत बीएसपी 20 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और अकाली दल बाकी के 97 सीटों पर. पंजाब में अभी चुनाव 6-7 महीने दूर हैं और अभी इसका फैसला नहीं हुआ है कि बीएसपी के खाते में कौन सी 20 सीट जायेंगी. बीएसपी का इतिहास रहा है कि वह गठबंधन को चुनाव के ठीक पहले तोड़ भी देती है. यानि अकाली दल को यह मान कर नहीं चलना चाहिए कि बीएसपी गठबंधन के फैसले पर अडिग ही रहेगी. अगर बीएसपी को मनचाही सीट नहीं मिली तो वह गठबंधन तोड़ने में संकोच नहीं करेगी.
पंजाब में बीएसपी का कद लगातार घटता जा रहा है
जिन पांच राज्यों में जनवरी से मार्च के बीच चुनाव होने वाला है, उनमे से बीएसपी का गोवा और मणिपुर में कोई आधार नहीं है. अगर कोई पैसों से भरी झोली ले कर मायावती से टिकट मांगने ना पहुंचे तो शायद गोवा और मणिपुर में बीएसपी चुनाव लड़ेगी भी नहीं. उत्तर प्रदेश का अलावा बीएसपी का थोड़ा बहुत आधार उत्तर और मध्य भारत के अन्य प्रान्तों में है. पंजाब बीएसपी के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है, कि पंजाब बीएसपी के संस्थापक स्वर्गीय कांशीराम का गृह राज्य था, और पंजाब में दलित वोट लगभग 32 प्रतिशत है, जिसमें से लगभग 23 प्रतिशत दलित सिख हैं. हलांकि 2012 के चुनाव विधानसभा चुनाव में बीएसपी पंजाब में एक भी सीट नहीं जीत पायी थी, पर उसे 5.2 प्रतिशत वोट मिला था, जिससे उत्साहित हो कर बीएसपी पूरी तैयारी के साथ 2017 के चुनाव में कूदी, पंजाब विधानसभा के 117 में से 111 सीटों पर चुनाव लड़ी और एक बार फिर एक भी सीट जीतने में असफल रही. बीएसपी का मत प्रतिशत भी घट कर 1.5 प्रतिशत पर आ गया. पिछले चार चुनावों में बीएसपी पंजाब में एक भी सीट नहीं जीत पायी है, आखिरी बार पार्टी ने 1997 के चुनाव में एकलौती सीट गढ़शंकर से जीती थी जो की एक सामान्य सीट है. उससे पहले 1992 के चुनाव में पार्टी नौ सीटों पर जीत हासिल करने में सफल रही थी. इसका सीधा मतलब है कि पंजाब में बीएसपी को कांशीराम के जीवनकाल में ही जीत नसीब हुई थी और मायावती को पंजाब में दलित अपना नेता नहीं मानते.
अकाली दल को बीएसपी के साथ गठबंधन करके क्या फायदा होगा
अकाली दल को एक ऐसी पार्टी से गठबंधन से क्या फायदा होगा जिसकी लोकप्रियता और आधार प्रदेश में लगातार कम होती जा रही है, वह तो वही जाने. एक कारण हो सकता है कि उन 23 सीटों पर जो पहले बीजेपी के खाते में होती थी, अकाली दल के पास उम्मीदवार नहीं है और या तो वह बीजेपी के खिलाफ उन सीटों पर भविष्य के मद्देनजर चुनाव नहीं लड़ना चाहती. भले ही पिछले साल कृषि कानूनों के विरोध में अकाली दल ने बीजेपी से अपना पुराना संबंध तोड़ लिया, पर इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर अकाली दल और बीजेपी में से किसी को भी एक दूसरे की सरकार बनाने में जरूरत होगी तो वह फिर इक्कठा हो जायेंगे.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस चाहती है बीएसपी के साथ गठबंधन
उत्तर प्रदेश में 2019 का आम चुनाव समाजवादी पार्टी और बीएसपी ने एक साथ लड़ा था, जिसका पूरा फायदा बीएसपी को मिला. बीएसपी 10 सीटें जीतने में सफल रही. जबकि समाजवादी पार्टी मात्र पांच सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई. बुआ-भतीजे का गठबंधन वहीं ख़त्म हो गया और दोनों अपने अपने रास्ते निकल पड़े. पर कांग्रेस पार्टी को आशा थी कि शायद बीएसपी के साथ उसका गठबंधन जो जाए. लेकिन मायावती ने उस आशा पर भी पानी फेर दिया है और कांग्रेस पार्टी को अब अपने ही बूते पर चुनाव लड़ना पड़ेगा. उत्तर प्रदेश में इस वोट बंटवारे का फायदा कहीं ना कहीं बीजेपी को मिल सकता है.
बीएसपी का पंजाब के सिवा अन्य राज्यों में अकेले लड़ने फैसले का सीधा असर उत्तर प्रदेश में भले ना दिखे क्योंकि प्रदेश में बीएसपी अपने आप में सक्षम पार्टी है, पर इसका प्रभाव उत्तराखंड में दिख सकता है. उत्तराखंड में कभी भी कांग्रेस पार्टी और बीएसपी का गठबंधन नहीं रहा था. 2012 के चुनाव में बीएसपी तीन सीटों पर सफल रही थी और त्रिशंकु विधानसभा में बीएसपी की सहायता से ही वहां कांग्रेस पार्टी सरकार बना पायी थी. अपनी स्थिति मजबूत करने के चक्कर में कांग्रेस पार्टी ने बीएसपी के तीनों विधायकों को तोड़ लिया और भविष्य में बीएसपी के साथ गठबंधन का दरवाज़ा खुद ही बंद कर लिया.
2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की उत्तराखंड में एकतरफा जीत हुई थी, कांग्रेस पार्टी सिर्फ 11 सीटों पर ही कामयाब रही और बीएसपी का खाता भी नहीं खुल पाया. फिर भी बीएसपी सात प्रतिशत वोट पाने में सफल रही थी. चूंकि 2017 के मुकाबले अगले वर्ष उत्तराखंड में होने वाला चुनाव ज्यादा करीबी होने की संभावना है, अगर बीएसपी इस वोट प्रतिशत को संभालने में सफल रही तो इसका असर कांग्रेस पार्टी पर पड़ेगा और कांग्रेस पार्टी के जीतने की सम्भावनाएं कम हो जायेंगी. भले ही बीएसपी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कुछ खास ना कर पाए, लेकिन इतना तो तय लगता है कि बीएसपी के हाथी में अभी इतनी ताकत बाकी है कि वह कांग्रेस पार्टी के इरादों को रौंद डाले और अप्रत्यक्ष रूप से बीजेपी को फायदा पहुचाये.


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