सम्पादकीय

क्या जात-पात तोड़कर राजनीति कर सकेंगे प्रशांत किशोर या उसी दलदल में घुसने की है तैयारी?

Rani Sahu
2 May 2022 6:19 PM GMT
क्या जात-पात तोड़कर राजनीति कर सकेंगे प्रशांत किशोर या उसी दलदल में घुसने की है तैयारी?
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पानी में रहकर तैरना और किसी को पानी के बाहर रहकर तैरने का निर्देश देना

ब्रज मोहन सिंह

पानी में रहकर तैरना और किसी को पानी के बाहर रहकर तैरने का निर्देश देना; दोनों अलग-अलग बातें हैं. आप दोनों काम साथ-साथ नहीं कर सकते, संभवतः राजनीति के घाघ आपको ऐसा करने की इजाज़त भी नहीं देंगे. अभी तक अपने वाक-चातुर्य और रणनीति के लिए जाने-जाने वाले प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) ने लोगों को पानी के बाहर से तैरना सिखाया, अब उनको लगता है उसी पानी में पवित्र डुबकी लगाने की बारी आ गई है. जिस पाटलिपुत्र की धरती से वो अपने इरादे पूरी दुनिया के सामने प्रकट करने वाले हैं, वहां गंगा अब उतनी पावन भी नहीं रह गई है. लोभ, मद, मोह, छल, कपट सब कुछ मिलकर मन को यहां अशांत करता है.
पर यकीन मानिए जब आप किसी गंदगी भरे तालाब को साफ करने का प्रण लेते हैं तो आपको गंदगी में उतरना होता है तभी आप गंदगी को हटा पाते हैं. क्या पीके कीचड़ में उतरकर अब उन तमाम गंदगियों को साफ करने का मन बना चुके हैं या कीचड़ में उतरकर उन्हीं के जैसा बन जाने का ठान चुके हैं. फिलहाल वो आने वाले समय में राजनीतिक दल बनाएंगे या कोई मोर्चा ये अभी स्पष्ट नहीं है. भारतीय राजनीति कुछ ऐसी ही शय है, जिसमें उतरकर ही आप बुद्धत्व को प्राप्त होते हैं. बिहार की राजनीति तो चरम है, पराकाष्ठा है, अतिरेक है, जहां आप डूबते हैं तो डूबते ही चले जाते हैं. आप जानते हैं कि आप डूबेंगे, पर आप बचने का प्रयास भी नहीं करते.
बिहार में जातिवाद एक सच्चाई है, जिससे इंकार करना मुश्किल
राजनीति के गांभीर्य में हम इसलिए जा रहे हैं क्योंकि ये गंदगी एक सच्चाई है, जिसमें समानता, समाजवाद, साम्यवाद और रामराज जैसी तमाम अवधारनाएं विलीन हो जाती हैं. इसी पाटलीपुत्र की धरती से कभी जेपी यानि जयप्रकाश नारायण सम्पूर्ण क्रांति की शुरुआत करते हैं, व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं. सरफरोशी की तमन्ना लिए लोग लठियाँ खाते हैं लेकिन हासिल क्या होता है, उस मंथन से क्या निकलता है? संभवतः अमृत से बहुत ज़्यादा गरल, जिसका कड़वापन अभी भी जिह्वा का स्वाद बिगाड़ देता है. बिहार के संदर्भ में देखें तो यहां सबसे बड़ा समाजवाद जातिवाद है. आप जातिवाद का इंजेक्क्शन लेकर ही सफल हो पाते हैं, जब ये आपकी धमनियों में रक्त के साथ मिलकर दौड़ने लगता है तब आप राजनीति के काबिल होते हैं. ये बिहार में सफल होने का पहला मूल मंत्र है.
दलविहीन और जातिविहीन समाजवाद की राह में चलते-चलते बिहार उसी जाति की खोज में निकल पड़ा है, जिसे कभी त्याग देने की बात की जा रही थी. ये समाजवाद हमें जातिविहीन समाज की ओर नहीं ले गया, बल्कि इससे जाति की अवधारणा और ज़्यादा पुष्ट होती गई. मैंने प्रशांत किशोर को करीब से ज़्यादा देखा, समझा और पहचाना नहीं है. इसका मुझे मलाल भी नहीं है. लेकिन इस बिहार की माटी में जन्म लेने की वजह से इतना जानता हूं कि मौजूदा हालातों में बिहार को सामाजिक और आर्थिक तौर पर आगे ले जाने वाले बहुत कम लोग हैं. जातिवादी राजनीति के आजमाए हुए ढांचे को तोड़कर, खम ठोककर राजनीति करने का माद्दा आज किसी में नहीं है. बिहार का समाज, पहले एक जाति है फिर एक वर्ग है, फिर एक धर्म है. वही जाति सत्य है फिर वही आपको बुद्धत्व की तरफ ले जाता हैं, वहीं से मोक्ष का द्वार खुलता है. वहीं आपको कुर्सी पर बिठा सकता है. कोई भी समाज अपने आप में पूर्ण नहीं होता, मानव अपूर्ण होता है, पूर्ण तो ईश्वर भी नहीं होता
लालू और नीतीश जातीय समीकरणों को साधने में हैं माहिर
एक स्वस्थ समाज की अवधारणा कागजों पर ज़्यादा लुभावनी लगती है, ज़मीन पर तो उसे अरस्तू, प्लेटो, मैकियावली और चाणक्य भी नहीं उतार पाए. उसी पूर्णता की तलाश में बिहार अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच अधर में लटका हुआ है. खैर, बात को विराम प्रशांत किशोर पर ही दे रहा हूँ, जिस जातिवाद के रसायन को लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार पिछले 30 वर्षों से पका रहे हैं, उसमें प्रशांत किशोर क्या नया छौंक लगाने वाले हैं? अगड़ा, पिछड़ा, दलित, महादलित, ब्राह्मण, भूमिहार, मुसलमान सबको परखनली में डालकर आज़माया जा चुका है.
जद (यू) और कांग्रेस में अनफ़िट रहे पीके
आज से चार वर्ष पहले पीके जद (यू) में उपाध्यक्ष के पद पर रहे लेकिन पार्टी में मन नहीं रमा क्योंकि पार्टी का एक ऐसा ढांचा होता है, जिसमें सबको सिर झुकाकर अनुशासन के साथ काम करना होता है, एक पदानुक्रम को स्वीकार करना होता है. पीके ने वर्षों पहले 'बिहार की बात' को लेकर उम्मीद जताई थी लेकिन पीके बिहार के लिए समय नहीं निकाल सके. कांग्रेस में भी अंततः प्रशांत अपने लिए जो भूमिका तलाश रहे थे, वो उनके हाथों से दूर चली गई. कांग्रेस किसी एक व्यक्ति के हिसाब से नहीं चलती, कांग्रेस एक बरगद पेढ़ के सदृश्य है जिसकी छांव में दूसरा पौधा पनप नहीं पाता. एक जातिप्रधान समाज में प्रशांत किशोर कितने कामयाब होंगे, इसकी भविष्यवाणी मैं भविष्य पर छोड़ता हूं. बेहतर है कि जनता जनार्द्धन ही इसका फैसला करे क्योंकि वही लोकतंत्र का असली रिंग मास्टर है.
Rani Sahu

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