सम्पादकीय

अकाली दल का साथ छोड़ना क्या बीजेपी के लिए पंजाब में वरदान साबित होगा?

Tara Tandi
31 July 2021 7:42 AM GMT
अकाली दल का साथ छोड़ना क्या बीजेपी के लिए पंजाब में वरदान साबित होगा?
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कभी कभी सुनहरा अवसर अनचाहे तरीके से भी मिल जाता है

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | कभी कभी सुनहरा अवसर अनचाहे तरीके से भी मिल जाता है. भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने कभी शायद इसकी कल्पना भी नहीं की होगी पर आगामी पंजाब विधानसभा चुनाव (Punjab Assembly Elections) बीजेपी के लिए शायद एक सुनहरा अवसर बनकर सामने आयेगा. 2017 में जिस पार्टी ने 117 सदस्यों वाली विधानसभा में सिर्फ 23 सीटों पर चुनाव लड़ा हो उसके सामने अब अवसर है कि वह सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़े. बीजेपी के पास खोने को मात्र 3 सीट है पर पाने को बहुत कुछ, शायद सत्ता भी.

2020 का साल बीजेपी के लिए इस लिहाज से अच्छा नहीं रहा कि उसके दो सबसे पुराने और घनिष्ट मित्रों ने उसका साथ छोड़ दिया – महाराष्ट्र में शिवसेना (Shiv Sena) ने और पंजाब में शिरोमणि अकाली दल (SAD) ने. ये दोनों पार्टियां बीजेपी के साथ उस समय से जुड़ी थीं जब तथाकथित सेक्युलर पार्टियां बीजेपी को उसकी हिन्दू विचारधारा से जुड़े होने के कारण अछूत मानती थीं. उन्हें यह डर सताता था कि बीजेपी के साथ दिखने से उनका मुस्लिम वोट बैंक खिसक जाएगा.

अकाली दल ने बीजेपी से रिश्ता तोड़ कर उसके लिए रास्ता साफ कर दिया है

शिवसेना और अकाली दल को बीजेपी से कोई परहेज नहीं था, क्योंकि जहां शिवसेना बीजेपी से भी कहीं ज्यादा कट्टर हिन्दू पार्टी थी, अकाली दल भी गुरुद्वारे की राजनीति करती थी. ये दोनों क्षेत्रीय दल बीजेपी के नेचुरल दोस्त माने जाते थे. पर पिछले वर्ष जहां शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की सत्ता की चाहत ने उन्हें उन दलों के साथ खड़ा कर दिया जिसके खिलाफ उनके पिता स्वर्गीय बाल ठाकरे अपनी तमाम जिंदगी लड़ते रहे, अकाली दल ने कृषि कानूनों के नाम पर केंद्र में सत्ता का बलिदान करके पंजाब में अपनी डूबती नाव को बचाने की सोची. लिहाजा पंजाब में बीजेपी पहली बार अपने दम पर सभी सीटों पर चुनाव लड़ने को मजबूर है. यह मजबूरी बीजेपी के लिए अवसर बन कर सामने आया है क्योंकि अकाली दल उसके प्रसार और विस्तार में बाधा बनी हुई थी.

हरियाणा वाला फॉर्मूला पंजाब में भी लागू करेगी बीजेपी

बीजेपी के लिए सबसे बड़ी समस्या कृषि कानूनों के विरोधं में राजनीति से प्रेरित किसान आन्दोलन नहीं थी, बल्कि ऐसे उम्मीदवारों की तलाश थी जो कम से कम कागजों पर जीतने की क्षमता रखते हों. वही नहीं, चूंकि अकाली दल के साथ गठबंधन में बीजेपी को सिर्फ हिन्दू बहुल या शहरी क्षेत्रों से ही चुनाव लड़ने का अवसर मिलता था और ग्रामीण तथा सिख बहुल क्षेत्रों पर अकाली दल अपना उम्मीदवार उतारती थी, बीजेपी के पास सिख नेताओं की भारी कमी थी. 2017 के चुनाव के पहले नवजोत सिंह सिद्धू का बीजेपी छोड़ कर कांग्रेस पार्टी में शामिल हो जाना पार्टी के लिए बड़ा झटका था, क्योंकि सिद्धू के बाद उसके पास कोई बड़ा सिख नेता नहीं रह गया था. इस स्थति से निपटने के लिए लगता है कि बीजेपी पड़ोसी राज्य हरियाणा वाला फॉर्मूला पंजाब में भी लागू करने वाली है.

2014 का हरियाणा विधानसभा चुनाव लगभग इन्हीं परिस्थितियों में बीजेपी को अपने बलबूते पर लड़ना पड़ा था. चुनाव के ठीक पहले कुलदीप बिश्नोई के नेतृत्व वाली हरियाणा जनहित कांग्रेस उससे अलग हो गयी थी. पूर्व में बीजेपी का गठबंधन कभी चौधरी बंसीलाल के हरियाणा विकास पार्टी से होता था तो कभी ओमप्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल के साथ. बीजेपी के पास सभी 90 क्षेत्रों में दमदार उम्मीदवारों की किल्लत थी, खासकर ग्रामीण और जाट बहुल क्षेत्रों में. बीजेपी ने दूसरे दलों के नाराज़ नेताओं के लिए अपना द्वार खोल दिया. हरियाणा में अकेले चुनाव लड़ने की मजबूरी उसके लिए वरदान बन गयी और प्रदेश में बीजेपी पहले पांच साल पूर्ण बहुमत से और अब 2019 से जननायक जनता दल के साथ गठबंधन की सरकार चला रही है.

दूसरे दलों के नेताओं को अपने साथ जोड़ सकती है बीजेपी

बीजेपी ने पंजाब में अभी हाल ही में जाने माने सिखों को पार्टी में शामिल किया है, और पार्टी को उम्मीद है कि चुनाव आते-आते उसके पास कांग्रेस और अकाली दल से नाराज़ सिख और दूसरी जातियों के नेताओं की कतार लग जायेगी. कारण साफ़ है. जब किसी विधायक की टिकट काटी जाती है या किसी बड़े नेता को टिकट नहीं दिया जाता है तो जहां वह पूर्व में अक्सर आजाद उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ते दिखते थे, पर अब वह किसी दूसरी बड़ी पार्टी में शामिल होना पसंद करते हैं.

बीजेपी जैसी राष्ट्रीय दल के साथ जुड़ने से उनके पास चुनाव लड़ने के लिए संसाधनों का आभाव नहीं रह जाता है, किसी अनजान चुनाव चिन्ह पर लड़ने की जगह वह बीजेपी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ सकते हैं और यह दोनों के लिए फायदेमंद साबित होता है. चूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता देश के हरेक कोने में होते हैं, और पंजाब में तो उनकी गहरी पैठ है, जब संघ के कार्यकर्ता और ऐसे जानेमाने बागी नेताओं के कार्यकर्ता एकजुट हो जाते हैं तो उन उम्मीदवारों की ताकत काफी बढ़ जाती है.

ऊपर से उन्हें नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, जे.पी. नड्डा और अन्य बीजेपी के बड़े नेताओं का चुनाव प्रचार में समर्थन भी मिल जाता है जिससे उनके चुनाव जीतने की सम्भावना काफी बढ़ जाती है.

मुख्यमंत्री पद के लिए किसी दलित चेहरे को आगे कर सकती है बीजेपी

वैसे बीजेपी सिख मतदाताओं को रिझाने के लिए बहुत ज्यादा परेशान नहीं है. कांग्रेस में वर्तमान मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और सिद्धू जैसे दो बड़े सिख नेता हैं, अकाली दल को सिखों की पार्टी मानी जाती है और आम आदमी पार्टी ने अभी से ऐलान कर दिया है कि वह किसी सिख नेता को ही पंजाब में मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करेगी. आम आदमी पार्टी पिछले चुनाव में 20 सीटों पर सफल रही थी और विधानसभा में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है.

संभावना है कि सभी दलों द्वारा किसी सिख नेता के मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के कारण आगामी चुनाव में सिख मतों का बड़े पैमाने पर विभाजन हो सकता है. अगर बीजेपी को हिन्दू और दलित मतदाताओं का समर्थन मिल जाए तो वह इस बहुकोणीय मुकाबले में वोटों के बंटवारे के कारण काफी सीटें निकालने में सक्षम साबित हो सकती है.

पंजाब में 117 में से 34 सीटें दलितों के लिए सुरक्षित हैं. अकाली दल ने बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन का ऐलान किया है पर बीएसपी को पंजाब के दलित, जिनमें से काफी बड़ी संख्या में सिख दलित हैं, बाहरी पार्टी मानती हैं. खबर है कि बीजेपी शीघ्र ही पंजाब के किसी बड़े दलित नेता को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर सकती है. बीजेपी के गलियारों में चर्चा गर्म है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री विजय सांपला, जो कि वर्तमान में केंद्रीय एससी/एसटी कमीशन के अध्यक्ष हैं, के नाम पर पार्टी गंभीरता से विचार कर रही है. सांपला पंजाबी है और उनकी छवि काफी अच्छी है, जिससे बीजेपी को फायदा मिल सकता है. बीजेपी की पंजाब में तैयारी जोरों पर है और बीजेपी को पूर्ण विश्वास है कि अकाली दल ने उसका साथ छोड़ कर उसके सत्ता में आने का दरवाज़ा खोल दिया है.

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