सम्पादकीय

क्या अब विदा हो जाएगा कोरोना

Rani Sahu
2 Jan 2022 6:42 PM GMT
क्या अब विदा हो जाएगा कोरोना
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कब और कैसे? यह सवाल अब हर किसी के दिमाग में है

हरजिंदरकब और कैसे? यह सवाल अब हर किसी के दिमाग में है। पिछले दो साल में महामारी ने हमें जो परेशानियां दी हैं, उसके चलते लोग मुक्ति के लिए बेचैन हैं। कुछ लोग अपने चेहरे पर तने मास्क से आजादी चाहते हैं, तो बहुत से लोगों की चिंता यह है कि साल 2020 के शुरू में लॉकडाउन ने उन्हें अर्थव्यवस्था से बाहर फेंककर जो रोजगार छीन लिया था, वह उन्हें कब वापस मिलेगा? जितने तरह के लोग, महामारी ने तकरीबन उतनी ही तरह के दुख दिए हैं।

अक्तूबर आते-आते एकबारगी यह लगने लगा था कि महामारी से मुक्ति का रास्ता खुल रहा है। कोरोना वायरस का डेल्टा वेरिएंट दुनिया भर में फैल चुका था। इससे मिली हर्ड इम्युनिटी और बडे़ पैमाने पर हुए टीकाकरण से यह विश्वास जग रहा था कि दुनिया अब फिर से इसकी चपेट में नहीं आने वाली। कुछ वैज्ञानिकों ने तो गणितीय मॉडल तैयार करके यह घोषणा कर दी थी कि कोरोना वायरस का प्रकोप अपने चरम पर पहंुच चुका है और जल्द ही यह उतार पर होगा। यह भी कहा गया कि कोविड की बीमारी अब भारत जैसे देशों में एक मौसमी बुखार बनकर रह जाएगी। चिकित्साशास्त्र की भाषा में वह 'पैंडेमिक' से बदलकर 'एंडेमिक' बन जाएगी। लेकिन तभी ओमीक्रोन आ गया और सारी उम्मीदें ध्वस्त हो गईं। अब 2022 की शुरुआत में हम फिर वहीं खड़े हैं, जहां 2021 की शुरुआत में खड़े थे। पिछले साल ने हमें जो भय और दुख-दर्द दिए, उनकी याद अब भी ताजा है। इसीलिए इस सवाल से जुड़ी बेचैनी और बढ़ गई है कि इस महामारी से मुक्ति कब और कैसे मिलेगी?
महामारियों का पूरा इतिहास हमें बहुत कुछ बताता है, लेकिन मुक्ति कब और कैसे मिलेगी, इसका कोई पुख्ता आश्वासन नहीं देता। अतीत में जितनी भी महामारियां थीं, सब अलग तरह से आईं और अलग ही तरह से विदा हुईं। एक सदी पहले आए स्पेनिश फ्लू की तुलना अक्सर कोविड से की जाती है। वह महामारी तकरीबन दो साल तक चली थी। स्पेनिश फ्लू की तीसरी लहर में वायरस की जो किस्म आई थी, उसकी आक्रामकता काफी कमजोर थी और उसने इसे सर्दी-बुखार जैसे रोग में बदल दिया था। कुछ लोग यही उम्मीद अब ओमीक्रोन से भी कर रहे हैं। लेकिन जो स्पेनिश फ्लू के साथ हुआ था, वही कोविड के साथ भी होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
इस बारे में इतिहास सिर्फ एक ही चीज बताता है कि महामारियां एक-दूसरे की नकल नहीं करतीं। हर महामारी की विदाई एक तरह से नहीं हुई। मसलन, चेचक ने सदियों तक मानवता को परेशान किया और फिर वैक्सीन ने उसे हमेशा के लिए खत्म किया। यह अकेली महामारी है, जिसका पूरी तरह उन्मूलन कर दिया गया। प्लेग और हैजे ने भी लंबे समय तक परेशान किया। वैक्सीन ने उनसे बचने में कुछ मदद जरूर की, लेकिन ये बैक्टीरिया से फैलने वाली महामारियां थीं, जिनसे एंटीबायोटिक के अविष्कार ने हमें निजात दिलाई।
इतिहास इतना ही बताता है कि महामारियां हमेशा के लिए नहीं आतीं, उन्हें एक दिन चले ही जाना होता है, लेकिन किसी महामारी के विदाई के वक्त की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। और फिर हम महामारी के विदाई-काल के इंतजार में हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठ सकते। विकल्प सिर्फ एक होता है कि हम बचाव के तरीके ढूंढ़ें और फिर उनका पूरी तरह से पालन करें। एक दौर था, जब हैजे ने पूरी दुनिया को आतंकित कर दिया था। हज से लेकर कुंभ तक दुनिया के तकरीबन सभी तरह के मेलों और तीर्थयात्राओं में धर्मावलंबियों को इस महामारी ने अपना शिकार बनाया था। फिर वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि यह बीमारी गंदगी से या सफाई के अभाव से फैलती है। हैजे की वैक्सीन बनने और एंटीबायोटिक के अविष्कार से काफी पहले ही बहुत सी जगहों पर सिर्फ सफाई-व्यवस्था से हैजे पर काबू पा लिया गया था।
यह चिंता का समय इसलिए है कि पिछले दो साल के कोविड-काल में हमने जो कुछ भी सीखा है, उसे अब हम भूलते जा रहे हैं। वह भी तब, जब महामारी का खतरा टला नहीं है। ओमीक्रोन की तमाम चेतावनियों के बावजूद आपको बाजारों और सार्वजनिक स्थानों पर बिना मास्क के लोग दिख जाएंगे। शारीरिक दूरी की जरूरत को भी हमने बहुत जल्दी भुला दिया है। ऐसा भारत ही नहीं, दुनिया भर में हो रहा है। ओमीक्रोन का सबसे ज्यादा प्रसार अमेरिका और यूरोप के देशों में हुआ है। लेकिन पिछले दिनों क्रिसमस और नए साल की छुट्िटयों के दौरान तमाम चेतावनियों के बावजूद वहां के बाजारों और समुद्र तटों पर भारी भीड़ दिखाई दी।
ऐसा नहीं है कि किसी ने भी कुछ सीखा नहीं। इन देशों में क्रिसमस के अगले दिन को 'बॉक्सिंग डे' कहा जाता है। यह ऐसा दिन होता है, जब वहां बाजारों में रियायती दामों पर सामान बेचने की होड़ लगती है और खरीदारों की भारी भीड़ जुटती है। लंदन के विभिन्न बाजारों के जो आंकड़ें हमें मिले हैं, वे बताते हैं कि बॉक्सिंग डे पर साल 2019 के मुकाबले इस बार ग्राहकों में 42 से 60 प्रतिशत तक कमी थी। यानी 60 प्रतिशत तक लोगों ने यह समझा कि ओमीक्रोन के खतरे को देखते हुए भीड़ से दूर रहने में ही भलाई है, यानी बाकी शायद ऐसा नहीं सोचते या किसी अन्य कारण से वे इस दिन बाजार में थे। इसका यह भी अर्थ है कि बहुत से लोग जहां सबक लेकर सावधानी बरतने में भलाई मान रहे हैं, वहीं बाकी लोग या तो सबक नहीं ले रहे या बेपरवाह हैं। यह ऐसा समय भी है, जब सरकारें लॉकडाउन से बाजारों को पूरी तरह बंद करने की पुरानी गलती नहीं दोहराना चाहतीं, इस बार लोगों की सेहत के साथ ही अर्थव्यवस्था उनके लिए बड़ी प्राथमिकता है। यह सब तब हो रहा है, जब ब्रिटेन में कोविड के मामले बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। भारत में हालात अभी यहां तक नहीं पहंुचे हैं, लेकिन बाकी जो सब हो रहा है, वह इससे अलग नहीं है।
यह सबक सीखने और सावधान होने का समय है। महामारियां हमेशा नहीं रहतीं, लेकिन उनके सबक हमेशा के लिए रह जाएं, इसी में दुनिया की भलाई है।


Rani Sahu

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