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चुनाव जीतना हर नेता और हर पार्टी का सपना होता है
अजय झा। चुनाव जीतना हर नेता और हर पार्टी का सपना होता है. पर उस सपने को साकार करने के लिए एक सकारात्मक सोचऔर ठोस नीति की जरूरत होती है. देश के सबसे बड़े राज्य (जनसंख्या आधार पर) उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Elections) दस्तक दे रहा है. लेकिन अगर प्रदेश के तीन प्रमुख विपक्षी दलों पर नज़र डालें तो प्रतीत होता है कि उनकी नीति सिर्फ उम्मीद पर ही टिकी है कि शायद मतदाता सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी (BJP) से महंगाई, बेरोजगारी और किसान आन्दोलन जैसे मुद्दों पर नाराज़ होंगे और निगेटिव वोटिंग होने की अवस्था में वह चुनाव जीत जायेंगे.
ये तीन प्रमुख विपक्षी दल हैं समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांगेस पार्टी. पिछले तीन चुनावों में कांग्रेस पार्टी (Congress Party) ने क्रमशः 22, 28 और 7 सीटों पर ही जीत हासिल की है. कांग्रेस पार्टी में जोश तब ही दिखता है जब प्रियंका गांधी प्रदेश में दिखती हैं, पर वह दिल्ली में ज्यादा और उत्तर प्रदेश में कम ही दिखती हैं. लिहाजा कांग्रेस पार्टी में जमीनी स्तर पर जोश और उत्साह की कमी दिखाई देती है. अगर कोई चमत्कार ना हो जाये तो कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में सत्ता की दौड़ से फिलहाल बाहर ही दिख रही है.
उत्तर प्रदेश के मतदाता बहुमत की सरकार में रखते हैं विश्वास
कमोबेश यही हाल बहुजन समाज पार्टी का भी है. 2007 में चुनाव जीत कर सत्ता में रही बीएसपी का प्रभाव हर चुनाव के बाद कम होता चला जा रहा है. 2007 में जीते 206 सीटों से आंकड़ा 2012 में 80 सीटों पर टिक गया और 2017 में यह फिसल कर 19 सीटों पर आ गया. इस लिहाज से समाजवादी पार्टी ही एकलौती ऐसी पार्टी है जो उत्तर प्रदेश में बीजेपी को आगामी चुनाव में टक्कर दे सकती है, हालांकि पार्टी का ग्राफ भी 2012 में जीते 224 सीटों से लुढ़क कर 2017 में 47 सीटों पर ही टिक गया था. इसलिए समाजवादी पार्टी के लिए भी चुनाव जीतना आसान नहीं होगा.
उत्तर प्रदेश में मतदाताओं की जागरुकता इसी बात से दिखती है कि 2007 से प्रदेश में लगातार तीन बार बहुमत की सरकार बनी है. प्रदेश की जनता खिचड़ी सरकारों से थक चुकी है. उत्तर प्रदेश विधानसभा में कुल 403 सीटें है. 2007 में बीएसपी की 206 सीटों पर जीत, 2012 में समाजवादी पार्टी की 224 सीटों पर जीत और 2017 में बीजेपी की 312 सीटों पर जीत तो यही दर्शाता है. यही नहीं, पिछले दो लोकसभा चुनाव में भी प्रदेश में एकतरफा परिणाम दिखा है.
अकेले संभालना होगा अखिलेश यादव को मोर्चा
समाजवादी पार्टी का बेस बरक़रार है, लेकिन पार्टी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव 2017 में बीजेपी की एकतरफा जीत से ऐसे हताश हो कर जनता के बीच से गायब हो गए जैसे कम्प्यूटर स्लीप मोड में चला जाता है. इस बार अखिलेश यादव के लिए चुनौती इसलिए भी कड़ी है, क्योंकि पिता मुलायम सिंह यादव की बढ़ती उम्र के साथ उनका स्वास्थ्य भी गिरता जा रहा है. मुलायम इस बार शायद ही चुनाव प्रचार करते दिखें. ऐसे में अखिलेश यादव से उम्मीद की जा रही थी कि वह एक ठोस नीति और योजना के साथ जनता के बीच वापसी करेंगे. जनता के बीच उनकी वापसी तो हो गई है, शीघ्र ही वह साइकिल से पूरे प्रदेश का भ्रमण करते भी दिखेंगे, जैसा कि उन्होंने 2012 में चुनाव के पूर्व किया था.
साइकिल पर सवारी करने का अखिलेश यादव को दोहरा फायदा है, वह ना ही जनता से सीधे जुड़ पाते हैं बल्कि साइकिल समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह भी है, इससे पार्टी का अग्रिम प्रचार भी हो जाता है. अखिलेश यादव चुनाव की तैयारी में जुट तो गए हैं पर एक ऐसी भूल कर रहे हैं जिसका उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ सकता है.
राहुल गांधी वाली गलती दोहरा रहे हैं अखिलेश यादव
लगता है कि अखिलेश यादव राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से काफी प्रभावित हैं. तीनो हमउम्र हैं– राहुल गांधी 51 वर्ष के, प्रियंका गांधी 49 वर्ष की और अखिलेश यादव 48 वर्ष के हैं. पर गांधी भाई-बहन की तुलना में उनके पास ज्यादा अनुभव है. अखिलेश पांच वर्षों तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. पर अखिलेश भी वही गलती कर रहे हैं जो राहुल और प्रियंका करते हैं. अखिलेश यादव से उम्मीद की जाती थी कि उन्हें पता होगा कि वह दिन लद गए जब राष्ट्रीय मुद्दों में प्रदेश का चुनाव होता था. बीजेपी ने भी सबक सिख लिया है कि अब प्रदेश चुनावों में सिर्फ नरेन्द्र मोदी के नाम पर वोट मांगना काफी नहीं होता है. जनता यह जानना चाहती है कि चुनाव जीतने की स्थिति में बीजेपी का मुख्यमंत्री कौन होगा. इस बार बीजेपी उत्तर प्रदेश में मोदी के नाम के साथ-साथ वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के काम पर भी वोट मांगेगी. इसमें अयोध्या मुद्दे का थोड़ा तड़का भी लग सकता है.
शायद अनजाने में ही सही पर अखिलेश यादव राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के रास्ते पर चल रहे हैं और केंद्र सरकार और उसकी नीतियों पर ही फिलहाल हमला करते दिख रहे हैं. अब विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों पर स्थानीय मुद्दे हावी होते हैं. बेरोजगारी और महंगाई का मुद्दा ना सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दा है बल्कि एक ऐसी समस्या है जिससे विश्व के हर देश में सरकारों को जूझना पड़ता है. उत्तर प्रदेश की जनता को इस बार फायदा यह है की चूंकि मुख्यमंत्री पद के तीनो प्रत्याशियों का शासन उन्होंने देखा है, वह मायावती, अखिलेश यादव और योगी आदित्यनाथ की तुलना कर सकते हैं. उन्हें यह भी ज्ञात होगा कि मायावती और अखिलेश के राज में भी बेरोजगारी और महंगाई थी. इसी विषय पर अखिलेश यादव की नीति और योजना कमजोर दिख रही है.
यूपी के मुद्दों को जनता के बीच ले जाने की है जरूरत
ऐसा तो है नहीं कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार बनने के बाद राम राज्य आ गया हो. अपराध और भ्रष्टाचार पर थोड़ी लगाम जरूर लगी है, पर उसका सफाया नहीं हुआ है. योगी सरकार ने गलतियां भी की ही होंगी, ऐसा भी मुद्दा होगा ही जिस पर जनता उनसे खुश नहीं होगी. जरूरत है कि उन मुद्दों को जनता के बीच जा कर तलाशा जाए और अखिलेश उन मुद्दों पर योगी सरकार को घेरने की कोशिश करें. स्थानीय मुद्दों की जहां तक बात है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिम उत्तर प्रदेश में स्थानीय मुद्दे अलग हो सकते हैं. मसलन किसान आन्दोलन पश्चिम उत्तर प्रदेश में एक मुद्दा हो सकता है, हालांकि यह केन्द्रीय मुद्दा है जिससे राज्य सरकारों का कुछ खास लेना-देना नहीं है, पर किसान आन्दोलन का उतना प्रभाव पूर्वी उत्तर प्रदेश में नहीं होगा.
अखिलेश युवा हैं, कर्मठ हैं और उन्हें प्रशासन का अनुभव भी है. उनके लिए बेहतर यही होगा कि वह राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से बिना ज्यादा प्रभावित हुए अपना रास्ता चुने और जनता को यह विश्वास दिलायें कि एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनने के बाद उनका कार्यकाल योगी आदित्यनाथ से कहीं बेहतर होगा और कैसे बेहतर होगा. यही उनकी सफलता की कुंजी साबित होगी ना कि मोदी सरकार पर आरोप लगाना और उनकी आलोचना करना.
Gulabi
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