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अखिलेश से मुलाक़ात के बाद रालोद की कार्यकारिणी की आंतरिक बैठक में जयंत चौधरी ने पार्टी के पदाधिकारियों को गठबंधन की जानकारी दी
यूसुफ़ अंसारी।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी को टक्कर देने के लिए अखिलेश यादव (akhilesh yadav) ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद और पूर्वी उत्तर प्रदेश में कई और छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन किया है. ख़बर है कि शुक्रवार को लखनऊ में अखिलेश यादव और जयंत चौधरी (Jayant Chaudhary) के बीच हुई अहम बैठक में सपा-रालोद गठबंधन को अंतिम रूर दे दिया गया है. अखिलेश से मुलाक़ात के बाद रालोद की कार्यकारिणी की आंतरिक बैठक में जयंत चौधरी ने पार्टी के पदाधिकारियों को गठबंधन की जानकारी दी.
रालोद के सूत्रों के मुताबिक, जयंत चौधरी ने बताया कि दोनों पार्टियों के बीच मोटे तौर पर समझौता हो गया है. हालांकि उन्होंने ये नहीं बताया कि कि गठबंधन में रालोद के हिस्से में कितनी सीटें आई हैं. लेकिन ये ज़रुर बताया कि उनके दो उम्मीदवार सपा के टिकट पर चुनाव लड़ेंगें और सपा के 6 उम्मीदवार रालोद के टिकट पर लड़डेंगे. उन्होंने बताया कि उनकी पार्टी के 42 उम्मीदवार दोनों पार्टियों की सीटें मिलाकर लड़ेंगे. हालांकि कुछ सीटों पर अभी भी उम्मीदवारों को को लड़ाने को लेकर दोनों पार्टियों के बीच खींचतान चल रही है. जयंत ने इन पर भी जल्दी ही फैसला होने की उम्मीद जताई.
हालांकि पहले रालोद को 38 सीटें मिलने की ख़बरे आईं थीं. बता दें कि रालोद ने 1996 और 2002 में 38 सीटों पर ही चुनाव लड़ा था. साल 2002 में उसका बीजेपी के सथ गठबंधन था. सपा और रालोद के बीच हुए सीटों के बंटवारे पर दो तरह की प्रतिक्रिया हैं. सपा में कहा जा रहा है कि अखिलेश ने जयंत के सामने घुटने टेक दिए हैं और उन्हें उनकी औक़ात से ज़्यादा सीटें दी हैं. वहीं रालोद में कहा जा रहा है कि जयंत ने बहुत कम सीटों पर समझौता कर लिया है. अखिलेश के सामने वो मुंह नहीं खोल पाए. लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या सपा-रालोद का यह गठबंधन पश्चिम उत्तर प्रदेश में बीजेपी को टक्कर दे पाएगा?
जयंत के सामने रालोद का वजूद बचाने की चुनौती
दरअसल जयंत के सामने रालोद का वजूद बचाने की बड़ी चुनौती है. एक राजनीतिक पार्टी के बतौर रालोद क वजूद संकट में है. दरअसल दो लोकसभा चुनावों और एक विधानसभा चुनाव में लगातार हार के बाद रालोद का वजूद पूरी तरह ख़तरे में है. क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा बनए रखने के लिए किसी पार्टी को कुल विधानसभा सीटों की 3 प्रतिशत सीटें जीतना या फिर 8 प्रतिशत वोट हासिल करना ज़रूरी है. 2017 के विधानसभा चुनाव में रालोद ने 277 सीटों पर चुनाव लड़ा था. तब वो सिर्फ छपरौली की ही एक मात्र सीट जीत पाई थी. 266 सीटों पर उसके उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी. उसे कुल 15,45,811 वोट मिले थे. ये कुल पड़े वोटों का सिर्फ 1.87% था. इस वजह से रालोद उसकी क्षेत्रीय पार्टी की भी मान्यता ख़त्म हो गई थी.
जाट-मुस्लिम एकता पर भरोसा
माना जा रहा है कि क सालभर चले किसान आंदोलन ने 2013 में मुज़फ्फरनगर में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों से पैदा हुई दरार को पाट दिया है. इससे किसानों की स्वभाविक पार्टी समझी जाने वाली रालोद काफी मज़बूत स्थिति में आ गई है. इसीलिए अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी का हाथ थामा है. गठबंधन के ज़रिए अखिलेश और जयंत किसानों की बीजेपी से नाराज़गी को वोटों में तबदील करना चाहते हैं. कई दौर की बठकों के बाद गठबंधन को अंतिम रूप दिया गया है. अखिलेश और जयंत ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई साझा रैलियां करके गठबंधन की जड़े मज़बूत करने की कोशिश की है. इन दोनों नेताओं की पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम एकता पर पूरा भरोसा है. यही वजह है कि दोनों पार्टियों में टिकटों के लिए मारामारी मची हुई है. लिहाज़ा दोनों पार्टियां सीटों के साथ उम्मीदवार भी ले रही हैं.
बीजेपी को शाह पर भरोसा
बीजेपी को भी अहसास है कि किसानों की नाराजगी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से उसका सफाया कर सकती है. लिहज़ा गृहमंत्री अमित शाह को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया है. 2017 का विधानसभा और 2019 का लोकसभा चुनाव बीजेपी ने अमित शाह का नेतृत्व में ही जीता था. बताया जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद अमित शाह को ये ज़िम्मेदारी दी है. पीएम मोदी किसी भी सूरत में यूपी की सत्ता नहीं खोने देना चाहते. पहले मोदी सरकार ने तीन विवादित कृषि कानून वापस लेकर किसानों की नाराज़गी दूर करने की कोशिश की है. अब अमित शाह के ज़रिए किसानों का रुख़ फिर से बीजेपी की तरफ़ मोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. अमित शाह पहले भी किसानों को साध कर बाकी दलों का सफाया कर चुके हैं. लिहाज़ा बीजेपी अमित शाह से इस चुनाव में भी इस करिश्मे की उम्मीद कर रही है.
क्या शाह पर भारी पड़ेगी अखिलेश-जयंत की जोड़ी
यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अखिलेश और जयंत की जोड़ी अमित शाह पर भारी पड़ेगी. एक बार तो ऐसा हो चुका है. 2018 में लोकसभा के उपचुनाव के दौरान अजित सिंह और जयंत ने सपा की तबस्सुम हसन को रालोद के टिकट पर लोकसभा चुनाव जिताया था. तब बसपा भी इस गठबंधन का हिस्सा थी. कांग्रेस गठबंधन में नहीं थी लेकिन उसने उपचुनाव नहीं लड़ा था. उस चुनाव में अजित सिंह और जयंत ने गांव गांव जाकर जाट और मुसलमानों के बीच दरार पाटकर एका कराई थी. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव आते-आते यह एका ताश के पत्तों की तरह बिखर गई. जयंत बागपत से हारे तो अजित सिंह मुज़फ्फरनगर में संजीव बालियान के हाथों पराजित हुए. अब जयंत अपनी पार्टी का वजूद बचाने के लिए सपा से गठबंधन कर एक बार और किस्मत आज़माना चाहते हैं. बसपा इस गठबंधन में शामिल नहीं है.
जयंत के सामने है बड़ी चुनौती
जयंत के सामने चुनौती इस लिए भी बड़ी है कि रालोद अपने दम पर इक्का-दुक्का सीट ही जीतने की क्षमता रखती है. लेकिन किसी दूसरी पार्टी के साथ गठबंधन से उसकी ताक़त बढ़ जाती है. मिसाल के तौर पर 2012 में राष्ट्रीय लोक दल ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था. इसमें उसे 46 सीटें मिली थी. उसने 9 सीटें जीती थी. उसे कुल 17,63,354 वोट मिले थे. जो कि कुल वोटों का 2.33% थे. इससे पहले 2007 में रालोद ने अकेले 254 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 10 सीटें जीती थीं. 2002 में बीजेपी के सथ मिलकर रालोद ने 38 सीटों पर चुनाव लड़ा. तब वो 14 सीटें जीती थीं. साल 1996 में रालोद 38 सीटों पर चुनाव लड़ी और आठ सीटें जीती थीं. इससे पता चलता है कि रालोद की क़रीब 40 सीटों पर की चुनाव लड़ने और क़रीब 15 सीटें जीतने की क्षमता है.
उपचुनाव में मज़बूत था सपा-बसपा-रालोद गठबंधन
अब अहम सवाल यह है कि अमित शाह के सामने अखिलेश और जयंत की जोड़ी कितनी कारगर साबित होगी. हालांकि 2018 के लोकसभा के उपचुनाव में सपा-बसपा और रालोद ने मिलकर बीजेपी को धूल चटा दी थी. तब सपा की तबस्सुम हसन ने रालोद के टिकट पर चुनाव लड़कर 4,81,181 वोट हासिल किए थे जो कि कुल पड़े वोटों का 51.26% थे. उन्होंने 2014 को आम चुनाव में इसी सीट से जीते हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को हराया था. मृगांका को 4,36,564 वोट मिले थे. हुकुम सिंह के निधन से ही यह सीट खाली हुई थी. तब इस जीत को इस गठबंधन की बड़ी जीत के तौर पर देखा गया था. माना जा रहा था कि ये गठबंधन लोकसभा चुनाव में बीजेपी को धूल चटा सकता है. लेकिन हुआ एकदम उल्टा. बीजेपी ने इस गठबंधन के तिलिस्म को तोड़ दिया. इसमे अमित शाह की बड़ी भूमिका थी.
2019 के लोकसभा चुनाव में टूटा गठबंधन का तिलिस्म
2019 के लोकसभा चुनाव में कैराना लोकसभा सीट से तबस्सुम हसन सपा के टिकट पर चुनाव लड़ीं. उन्हें 4,74,801 वोट मिले. ये कुल पड़े वोटों का 42.24% थे. उन्हें बीजेपी के प्रदीप चौधरी ने भारी अंतर से हराया. बीजेपी के प्रदीप चौधरी को 5,66,961 वोट मिले थे जो कि कुल पड़े वोटों का 50.4% था. उपचुनाव में कांग्रेस ने यहां चुनाव नहीं लड़ा था. लेकिन 2019 में कांग्रेस के हरेंद्र मलिक यहां से चुनाव लड़े थे. उन्हें 69,355 वोट मिले थे. लेकिन हरेंद्र मलिक नहीं भी होते तो भी तबस्सुम हसन चुनाव नहीं जीत पाती. क्योंकि उनकी हार का अंतर कांग्रेस को मिले वोटों से कहीं ज्यादा था. ये कहा जा सकता है कि अमित शाह की चुनावी रणनीति तीन दलों के इस गठबंधन पर भारी पड़ी. लिहाज़ा उन्हें हल्के मे लेना इस बार भी अखिलेश और जयंत की जोड़ी को भारी पड़ सकता है.
बड़े-छोटे दोनों चौधरी चुनाव हारे
बता दें कि 2019 के लोकसभा चुनाव में चौधरी अजित सिंह और जयंत चौधरी दोनों ही अपना लोकसभा का चुनाव हार गए थे. जयंत बागपत से चुनाव लड़े थे. उन्हें बीजेपी के सत्यपाल सिंह ने हराया था. 2014 में सत्यपाल ने यहां अजित सिंह को हराया था. जयंत को 5,02,287 वोट मिले थे जबकि सत्यपाल सिंह ने 5,25,789 वोट लेकर उन्हें हरा दिया था. अजीत सिंह ने मुजफ्फरनगर से चुनाव लड़ा था. अजित सिंह को बीजेपी के संजीव कुमार बालियान ने क़रीब 23 हज़ार वोटों से हराया था. संजीव बालियान को 5,73,780 वोट मिले थे और चौधरी अजित सिंह को 5,67,254 वोट मिले थे. हालांकि इस सीट पर बीजेपी को 2014 के मुकाबले 9.52% कम वोट मिले थे लेकिन इसके बावजूद अजित सिंह एक लाख से ज्यादा वोटों से हारे थे. 2014 में वो बागपत सीट पर तीसरे स्थान पर रहे थे. ये जाटों के बीच अजित और जयंत की लगातार कम होती लोकप्रियता का सबूत है.
ऐसे में देखने वाली बात होगी कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसानों के बीच सपा-रालोद गठबंधन कितनी मज़बूत पैठ बना पाता है. दिल्ली-यूपी के गाजीपुर बॉर्डर पर सालभर तक किसानों की कमान संभालने वाले राकेश टिकैत पहले ही ऐलान कर चुके हैं कि वो किसानो को किसी भी राजनीतिक दल के समर्थन में वोट डालने के लिए नहीं कहेंगे और न ही अपने मंच का इस्तेमाल किसी को करने देंगे. यह सवाल है कि अगर लोकसभा के चुनाव में सपा-बसपा और रालोद गठबंधन कोई कमाल नहीं कर पाया था तो इस चुनाव में अकेले सपा-रालोद गठबंधन कितना कमाल कर पाएगा.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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