सम्पादकीय

बड़े चुनावों को 'हां', पंचायत चुनाव को क्यों 'न'?

Gulabi
30 Sep 2021 6:04 AM GMT
बड़े चुनावों को हां, पंचायत चुनाव को क्यों न?
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मध्यप्रदेश में एक लोकसभा सीट और तीन विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव की दुंदुभी फिर बज गई.

मध्यप्रदेश में एक लोकसभा सीट और तीन विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव की दुंदुभी फिर बज गई. चुनाव आयोग ने तीस अक्टूबर को मतदान कराए जाने के लिए कैलेंडर जारी कर दिया है. इससे पहले, कोरोना काल में ही मप्र में कोविड की दूसरी लहर झेल लेने के बाद 28 विधानसभा सीटों के लिए भी मतदान कराया जा चुका है. देश के कई और राज्यों में भी कई लेवल के चुनाव संपन्न करवाए जा चुके हैं. बिहार में पंचायत चुनाव के लिए मतदान चल ही रहा है.



देश में कोविड जैसी महामारी के बीच भी चुनाव होते रहे, पर नहीं हुआ तो मध्यप्रदेश में स्थानीय निकाय और ग्राम पंचायत स्तर का चुनाव. यह चुनाव तकरीबन दो सालों से लंबित है. माना जाता है कि पंचायत लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण इकाई है, गांधीजी ने ग्राम स्वराज के जरिए ही असली सुशासन का सपना देखा था, लेकिन एमपी में यही व्यवस्था सबसे ज्यादा उपेक्षित है. यहां बड़े उपचुनाव तो करवा लिए गए, या करवाए जा रहे हैं, लेकिन ग्राम पंचायतों के चुनाव प्राथमिकता में नहीं हैं.


'आज चिंता बजट की नहीं है. चिंता है सही समय पर उपयोग कैसे हो, सही काम के लिए कैसे हो, सही लोगों के लिए कैसे हो. बजट का उपयोग इतनी ईमानदारी और पारदर्शिता से हो कि गांव में हर किसी को पता हो.'

यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2018 में राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान की शुरुआत करते हुए कही थी, इसी मध्यप्रदेश के मंडला जिले में जहां पर कि पिछले दो सालों से पंचायतें वैकल्पिक व्यवस्था के जरिए चल रही हैं. जाहिर सी बात है कि सरकार किसी भी दल की रही हो, प्रधानमंत्री चाहे कोई हो, ग्राम स्वराज की व्यवस्था से किसी को असहमति नहीं है. बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नीत केंद्र सरकार ने 'राष्ट्रीय ग्राम स्वराज योजना' का पुनर्गठन करके भारी बजट भी मंजूर किया.


क्या फलीभूत हो पाई पंचायत राज व्यवस्था

संविधान के 73 वें संशोधन अधिनियम 1992 के अनुरूप प्रदेश में मध्यप्रदेश पंचायत राज अधिनियम, 25 जनवरी 1994 से लागू किया गया है. मध्यप्रदेश ने एक कदम आगे जाकर 26 जनवरी 2001 के देश में पहली बार त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था लागू करके ग्राम स्वराज व्यवस्था को मजबूती से अपनाया था, पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण करके इस व्यवस्था के प्रति संवेदनशीलता का परिचय दिया था, लेकिन पिछले दो सालों की उपेक्षा ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है, कि क्या पंचायत राज व्यवस्था वास्तव में फलीभूत हो पाई है?


क्या वह राजनैतिक—सामाजिक चेतना और ग्राम स्तर पर लोकतंत्र आ पाया है, जिसमें लोग पंचायत चुनाव को कराए जाने की मांग करते! प्रदेश में ग्राम पंचायत चुनावों को लेकर न लोगों की ओर से कोई मांग है और न ही प्रशासनिक पहल. सवाल यह है कि ऐसे में ग्राम स्वराज की व्यवस्था चल कैसे रही है, और क्या वास्तव में वह ग्राम सभा के द्वारा संचालित हो रही है या उसे भी पहले जैसी केन्द्रीकृत नौकरशाही की व्यवस्था ने जकड़ रखा है, जहां निर्णय तो कहीं ओर से लिए जा रहे हैं, लेकिन स्टाम्प उन्हीं पंच—सरपंचों का लगाया जा रहा है.

यदि ऐसा है तो यह ग्राम स्वराज व्यवस्था के मूल भावना के खिलाफ है. यह उस शासन प्रणाली के विकेंद्रीकरण की भावना के खिलाफ भी है, यह उस संवैधानिक अधिकार के खिलाफ भी है, जहां पांच साल में अपना जन प्रतिनिधि बदल देने का अधिकार जनता के हाथ में होता है, उन्हें हक़ होता है कि नेतृत्व को फिर कसौटी पर कसें, उसे पसंद हो तो कुर्सी से हटा दें. पंचायत चुनावों में यह उत्साह तो और भी चरम पर रहता है, उस लेवल के चुनाव में तो एक—एक वोट पर नजर होती है.


चुनाव की उपेक्षा से हतोत्साहित हुए लोग

लेकिन, कोविड-19 के प्रभाव में इस चुनाव की उपेक्षा ने लोगों को हतोत्साहित कर दिया है. बल्कि अब प्रदेश में सरपंचों के घरों में छापे पड़ रहे हैं, और करोड़ों रुपए की संपत्ति भी जप्त हो रही है, यानी सवाल केवल लोकतंत्र या चुनाव का नहीं है, सवाल लोगों के आर्थिक हितों का भी है, सभी जानते हैं कि पंचायतों के सरकार ने फंड देने में कोई कमी नहीं रखी है, पर देखा जाना चाहिए कि उसका उपयोग फिलहाल किन नियमों के तहत हो रहा है और उसमें ग्राम के लोगों की भूमिका कितनी है?


कोविड की दूसरी लहर में जब वायरस ग्रामीण इलाकों में पैर पसारने लगा तो व्यवस्था के हाथ—पैर ही फूल गए थे, क्योंकि गांवों को अब भी इतना संपन्न नहीं बनाया जा सका है, जहां कि वह ऐसी महामारियों का प्राथमिक इलाज भी कर पाएं. हालात यह बन गए थे कि कई गांवों में मरीजों की नाड़ी देखकर कोई यह बताने वाला भी नहीं था कि वह जिंदा है या मर गया है. पंचायतें अपने फंड का उपयोग करने में अक्षम थीं.

पंचायतों के पास वास्तव में फंड की कमी नहीं थी, लेकिन उनको इतना अधिकार नहीं था कि वह गांव में सेनेटाइजेशन की व्यवस्था अपने दम पर कर सकें या एक थर्मामीटर, आक्सीमीटर ही खरीद सकें. इसके लिए भी उन्हें अपने अधिकारियों की परमिशन लेनी थी, यदि ग्राम स्वराज की यह व्यवस्था जिसके लिए देश की टॉप लीडरशिप से लेकर हर कोई सहमत है, वहां एक महामारी के दौर में भी अपनी जरुरत की चीजों पर इस तरह से लाचार है तो फिर यह कैसा पंचायती राज है?


'गांधी जिस ग्राम स्वराज की कल्पना करते थे वह आदर्श भारतीय गांव इस तरह बसाया और बनाया जाना चाहिए जिससे वह सदा निरोग रह सके. सभी घरों में पर्याप्त प्रकाश और हवा आ-जा सके. ये घर ऐसी ही चीजों के बने हों, जो उनकी पांच मील की सीमा के अंदर उपलब्ध हों.' क्या यह वही ग्राम स्वराज है ? सवाल चुनाव आयोग से भी है, यदि कोविड-19 का प्रभाव रहा है तो वह पंचायत चुनाव पर ही क्यों, लोकसभा और विधानसभा चुनाव देश के अलग—अलग भागों में करवा लिए जाते हैं, पंचायत चुनाव क्यों नहीं ? और यदि पंचायत चुनाव वायरस के फैलाव में सहायक हो सकते हैं तो फिर यही रवैया दूसरे चुनावों पर क्यों नहीं ?



(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

राकेश कुमार मालवीय, वरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.


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