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नई पीढ़ी ने सम्भवतया पहली बार देखा- सुना होगा कि कोई देश ऐसा भी हो सकता है जिस पर आतंकवादी कब्जा कर लें
नवनीत गुर्जर का कॉलम। नई पीढ़ी ने सम्भवतया पहली बार देखा- सुना होगा कि कोई देश ऐसा भी हो सकता है जिस पर आतंकवादी कब्जा कर लें। वहां की सेना कोई प्रतिकार तक न करे। लड़े भी नहीं। सीधे सरेंडर कर दे।… और सरकार भाग जाए। मंत्री, राष्ट्रपति भी भाग खड़े हों। और एक पुराना राष्ट्रपति जिसे दुनिया हामिद करजई नाम से जानती है, घोषणा करे कि हम तालिबान आतंकियों को सत्ता सौंपने के नियम बनाएंगे और उन नियमों के अनुसार उन्हें सत्ता सौंप देंगे।
जब कब्जा ही कर लिया पूरे देश पर, फिर काहे के नियम, काहे के आप और कैसी सत्ता? वहां की सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार की चर्चा कम और अमेरिका के वॉक ओवर की चर्चा ज्यादा हो रही है। ठीक है, अमेरिका के अफगानिस्तान से वापस जाने के कई कारण होंगे। वियतनाम जैसे छोटे से देश में 19 साल तक लड़ते रहने के बाद भी अमेरिका को वापस जाना पड़ा था।
इसी तरह क्यूबा में भी उसने बुरी तरह मात खाई। सोमालिया में तो उसने मानवीय मिशन तक में हिस्सा नहीं लिया था। दरअसल, अमेरिका की चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि आप अगर दुनिया के चौधरी बने घूमते हो तो इस तरह जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते। और भागना ही है तो फिर चौधरी पद से इस्तीफा क्यों नहीं देते? चाहे फिर यह जिम्मेदारी कोई भी निभाए! और न भी निभाए तो दुनिया को इस तरह की चौधराहट से मुक्त ही रहने दीजिए। जरूरत किसे है?
लेकिन केवल अमेरिका को कोसने से जिम्मेदारी पूरी नहीं हो सकती। उसकी सेना ने अफगान सेना को प्रशिक्षित किया था, उसका क्या हुआ? किसी देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये है कि उसकी सेना सशक्त होते हुए भी देश की रक्षा नहीं कर पाए। तीन से चार लाख सैनिकों वाली सेना चुपचाप देखती रहे और चालीस-पचास हजार हुड़दंगी, आतंक मचाते हुए आए और देश पर कब्जा कर लें। वहां लोगों की भावनाओं, परम्पराओं और नीति-रीति को धूल-धूसरित कर दें।
यही नहीं, लोगों के घर-बार, व्यापार, खेती सबकुछ जैसे खूंटी पर टांग दिए गए हैं। इसके पहले 1996 से 2001 तक भी अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा रहा है। कितना पाशविक था वह दौर। वैसे तालिब का अर्थ होता है ज्ञानार्थी या विद्यार्थी और तालिबान का अर्थ है विद्यार्थियों का समूह। लेकिन काम एकदम उल्टे। महिलाओं से पशुओं जैसा व्यवहार, प्रतिमाएं तोड़ना, तालिबान के लिए आम बात है।
ऐसे में सबसे बड़ी हैरत यह है कि चीन-पाकिस्तान जैसे देश तालिबान को ऊर्जा भी दे रहे हैं और मान्यता भी। अगर आतंकवादियों के हौसले इसी तरह बुलंद होते रहे तो आने वाली दुनिया कैसी होगी? सद्दाम हुसैन ने कुवैत को दबोचा तो अमेरिका को लगा था कि उसकी नाक दबोच ली गई है। और केवल अमेरिका ही नहीं तमाम बड़े देश, सद्दाम के खिलाफ उठ खड़े हुए थे। होना भी था।
अन्याय के खिलाफ दुनिया के इकट्ठा होने का यह सबसे बड़ा और अच्छा उदाहरण था। लेकिन क्या कुवैत में तेल के कुएं न होते तो भी दुनिया, खासकर अमेरिका इसी तरह आगे आता? अगर हां, तो अफगानिस्तान के साथ ऐसा क्यों नहीं हुआ? अफगान बिलखता रह गया, लेकिन किसी ने साथ नहीं दिया। आखिर सूखे मेवों के लिए कोई देश क्यों अपनी जान लड़ाए
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