सम्पादकीय

संस्थाओं से क्यों मुक्त हुए विनोबा ?

Gulabi
12 Sep 2021 3:30 PM GMT
संस्थाओं से क्यों मुक्त हुए विनोबा ?
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संपादकीय

अब जबकि तमाम तरह की संस्थाओं में लोग जोंक की तरह चिपके रहना चाहते हैं, इन संस्‍थाओं में कई गांधीवादी संस्थाएं भी हैं. संस्‍थाओं से चिपके रहने के लिए वह तमाम तरह के प्रपंच भी करते हैं. इन लोगों को विनोबा को याद करते रहना चाहिए, वह इसलिए कि विनोबा ने बहुत चिंतन के बाद जितनी भी संस्थाएं थीं, उनसे मुक्ति पा ली और वास्तव में सर्वोदय की एक अनूठी मिसाल पेश की. विनोबा ने जेल में रहते हुए अपने अनुभव से यह जाना कि सज्जनता किसी एक पक्ष की चीज नहीं है, वह सभी जगह है और दूसरी ओर दुर्जनता भी वैसे ही पाई जाती है, तो वह इस निर्णय पर पहुंचे कि किसी एक संस्था में रहकर काम नहीं चलेगा.

उन्होंने लिखा कि सबसे अलग रहकर उन्हें सज्जनता की सेवा करनी है. यह बात उन्होंने बापू को कही और बापू ने उनकी बात से सहमति जताई. विनोबा को इससे दुख नहीं हुआ, बल्कि आनंद हुआ. विनोबा इस नतीजे पर भी पहुंचे कि कोई भी संस्था जब बनती है, तो उसमें थोड़ी हिंसा तो आ ही जाती है, वह अपने जीवन में उस थोड़ी सी हिंसा का स्थान भी नहीं रखना चाहते हैं. आज विनोबा की जयंती पर हम उन्हें याद करना, क्या हमें एक बार पुन: सोचने पर मजबूर नहीं करता कि आज संस्थाओं की क्या स्थिति हो गई है और भाषा का स्तर कहां पर चला गया है.
गांधी के अहिंसा के सिदधांतों को विनोबा ने गांधी से भी ज्यादा अमल किया. इसलिए बहुत सारे चिंतकों की नजर में विनोबा का व्यक्तित्व गांधी के ही एक मजबूत विस्तार के रूप में हमारे सामने आता है. गांधी के चले जाने के बाद सही मायने में गांधी के अंत्योदय के विचार को सर्वोदय में परिभाषित करने वाले विनोबा उनकी विरासत को सही मायने में संभालने वाले भी हैं.
हमारे समाज को कोशिश करनी चाहिए थी कि इन दो महापुरुषों के व्यक्तित्व से सीखें और जिन सिदधांतों को दुनिया भर में मान्यता मिली है, उन्हें भारतीय समाज पूरी तरह से आत्मसात भी करे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका है. अहिंसा को समाज में एक कमजोरी के रूप में अधिक देखा गया, और सोशल मीडिया की तथाकथित ताकत हाथ में आज जाने के बाद तो लोगों ने इन सिदधांत और व्यवहारों पर मीम्स बनाकर अच्छा खासा मखौल ही उड़ा दिया.
सोशल मीडिया पर तो किसी का नियंत्रण भी नहीं है, लेकिन वह लीडरशिप जो एक ऐसी समृदध समृद्ध परम्परा से निकली जो जीवन मूल्यों के हर क्षेत्र में एक विरासत को लिए है, वहां भी जैसे भाषा की शुचिता का अकाल ही पड़ गया, बल्कि ऐसे अहिंसक शब्दों की व्यवस्थित जमीन तैयार की जाती है, इसके संगठनात्मक और नियोजित प्रयास होते हैं, इसके लिए तमाम तरह की सेल तैयार की जाती हैं, और यह कोशिश की जाती है कि समाज में इस तरह के नैरेटिव कैसे पैदा कर दिए जाएं, जो अहिंसक समाज रचना के पूरी तरह खिलाफ होते हैं. और यह केवल भारत देश की ही समस्या नहीं है, यह दुनिया के कोने-कोने से निकलकर सामने आती है, और ऐसी ताकतें बकायदा मानवीय मूल्यों के खिलाफ खड़े होकर सत्ता भी प्राप्त कर लेती हैं, त्याग की तो बात ही छोड़ दीजिए.
विनोबा कहते हैं कि आज विज्ञान की प्रगति को देखते हुए शस्त्रों के उपयोग से जो अपार हानि होगी उसकी तुलना में उनसे होने वाला लाभ इतना मामूली होगा कि उसे हिसाब में गिना भी न जाएगा.
आज सब तरफ हथियारों का बोलबाला है, हथियारों का एक बड़ा बाजार है. यह बाजार रोटी की कीमत पर है. यह हथियार रोटी की कीमत पर हैं. दुनिया विनाश के इंतजाम पर ज्यादा ताकत लगा रही है. ताकतवर देश परमाणु हथियारों से किसी भी क्षण मनुष्यता पर हमला कर सकते हैं. सर्वोदय होना अब और दूर होता दिखाई देता है, क्योंकि मनुष्यता के इन महान मानकों पर नहीं, सामान्य रोटी-कपड़ा और मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य के रोज -रोज के संघर्ष अब और बड़े होते जा रहे हैं.
तो क्या हमें निराश होना चाहिए कि दुनिया जिस तरह से आगे जा रही है, वहां पर इसके बेहतर होने की संभावनाएं खत्म हो गई हैं, या यह समाज फिर खुद को बदलेगा. उसका बीज कहां से आएगा. आज जब हम सभी तरफ से देखते हैं और यह भी पाते हैं कि उनके नजरिए से कोई भी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा है तब क्या उपाय है. विनोबा कहते हैं कि किसी भी क्रांतिकारी विचार का प्रचार सत्ता के जरिए नहीं हुआ है, उनका मानना था कि सत्ता थोड़ा सुख पहुंचा सकती है, लेकिन बदलाव का रास्ता तो जैसे भगवान बुदध ने किया और लोगों को क्रांतिकारी विचार दिए उनमें राज्य सत्ता का उपयोग नहीं किया.
ऐसे ही महात्मा गांधी ने भी विचारों के प्रचार के लिए राज्य की कामना नहीं की, उन्होंने स्वराज्य की कामना की. इसलिए विनोबा इस बात पर जोर देते रहे कि लोगों को सत्तानिरपेक्ष और आत्मनिष्ठ बनकर काम करना चाहिए.
देश के मौजूदा हालातों पर इसकी बड़ी जरुरत लगती भी है. इस समाज को सही दिशा में ले जाने के लिए बहुत संभलकर आगे बढ़ना चाहिए. एक ऐसी गैरपक्षीय ताकत सामने आनी चाहिए जिसका नैतिक दबाव समाज के सभी तबकों पर पड़े और वह अहिंसक समाज रचना और सर्वोदय के सपने को पूरा कर सके.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
राकेश कुमार मालवीय, वरिष्ठ पत्रकार
20 साल से सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव, शोध, लेखन और संपादन. कई फैलोशिप पर कार्य किया है. खेती-किसानी, बच्चों, विकास, पर्यावरण और ग्रामीण समाज के विषयों में खास रुचि.

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