सम्पादकीय

मुद्रास्फीति के विस्तार से हठी इनकार क्यों

Subhi
26 Aug 2022 4:33 AM GMT
मुद्रास्फीति के विस्तार से हठी इनकार क्यों
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अब मौद्रिक समिति फिर रेपो रेट बढ़ाने जा रही है। नतीजा, निवेश में और हतोत्साह होगा। निवेश न बढ़ने के कारण नौकरियों का घटना और लोगों के लिए महंगाई का और असह्य हो जाना तय है।

सुरेश सेठ: अब मौद्रिक समिति फिर रेपो रेट बढ़ाने जा रही है। नतीजा, निवेश में और हतोत्साह होगा। निवेश न बढ़ने के कारण नौकरियों का घटना और लोगों के लिए महंगाई का और असह्य हो जाना तय है। परचून कीमतें तो सात प्रतिशत से कम हुई हैं, थोक कीमतें भी गिरने लगीं, लेकिन आंकड़ों के मायाजाल में उलझा देश का साधारण जन एक ही चिंता करता है कि कब उसकी जरूरत की चीजें उसके आर्थिक सामर्थ्य के मुताबिक मिलेंगी और वह राहत की सांस लेकर कह सकेगा, हां महंगाई नियंत्रित हो गई।

पिछले कुछ महीनों से देश में महंगाई सबको विकराल लगने लगी है। शहर और गांवों में सड़कों और पगडंडियों पर आम आदमी का जीवन दूभर हो गया। उसके मासिक बजट के बखिये उधड़ गए। वह जब विकास के लिए गतिशील होना चाहता है, तो उसके रास्ते में ऊर्जा संकट खड़ा हो जाता है। पेट्रोल और डीजल का संकट पैदा हो जाता है। उसका तो गैस सिलेंडर खाली है, क्योंकि प्राकृतिक गैस के अभाव ने इसकी कीमत चार गुना कर दिया।

इसके साथ-साथ उत्पादन के नए लक्ष्य तय करने या उत्पादकता को लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए अगर लोग बिजली मांगते हैं, तो उन्हें उसके विकल्प में सौर ऊर्जा की बात बताई जाती है। उधर कोयले की आपूर्ति पिछले साल भी पूरी नहीं थी। इस बार तो और अधूरी हो गई। बहाने वही हैं, कभी श्रम और अन्य संसाधनों का उचित समन्वय न होना या फिर कोयला खदानों तक में पानी भर आना।

हमारे बाजारों में मंदी का अवसाद घिर आया, क्योंकि वस्तुओं की उचित आपूर्ति नहीं होती और लोगों की जेब में पैसे नहीं। जब उनके पास क्रयशक्ति नहीं होगी, तो मांग कैसे पैदा होगी? जब मांग पैदा नहीं होगी तो मंदी सबको अपने विस्तार में घेर लेगी। बाहर खड़ी हैं बेकाम जिंदगियां, निर्जीव चेहरे, निस्पंद कृषि और स्टार्टअप योजनाओं को झुठलाती औद्योगिक क्रांति के खंडित सपने। मगर ये कहते हैं कि इस देश में न मांग है, न उचित आपूर्ति। क्रयशक्ति गिर रही है।

मगर जब बहुत हीलो-हुज्जत के बाद संसद में महंगाई पर बहस करने का समय आया तो वित्तमंत्री ने कह दिया कि महंगाई है माना, लेकिन उतनी नहीं जितनी इसकी दहशत है। उन्होंने यह भी कह दिया कि यह महंगाई तो दूसरे देशों की महंगाई से कहीं कम है और कोरोना की चपेट में आए देशों की आर्थिकी को जो हानि हुई है, उससे आपूर्ति और उसकी क्षतिपूर्ति हमारे देश ने बेहतर तरीके से की है। उनका यह कहना भी था कि हम लगातार सक्रियता के नए पैमाने छू रहे हैं। तीसरी दुनिया के अपने जैसे देशों में से भारत की अर्थव्यवस्था सबसे अधिक द्रुत गति से आगे बढ़ रही है।

इधर अर्थव्यवस्था के तंत्र विशारद अंदाजा लगा रहे हैं कि संकट के दिन टल गए, अब बहुत जल्दी स्वत: स्फूर्ति आ जाएगी। कृषि क्रांति ही नहीं, उद्योगीकरण भी एक नए अंदाज से अवतरित होगा। देश में एक नए युग का सृजन होगा। इस युग में चाहे सारी दुनिया में महंगाई बढ़े, भारत उस पर नियंत्रण कर लेगा। श्रीलंका, पेरू, बंगलादेश और पाकिस्तान में पेट्रोल और डीजल ही नहीं, सभी कीमतें बढ़ रही हैं लेकिन भारत के रिजर्व बैंक ने कीमतों की वृद्धि के साथ जो संघर्ष छेड़ा, उसका नतीजा मिलना शुरू हो गया है।

रिजर्व बैंक की बढ़ी रेपो दर ने देश में साधारण व्यक्ति से लेकर उच्च मध्यवर्ग तक को अधिक बचत की प्रेरणा दी है। इसके अलावा अभी तक रिजर्व बैंक द्वारा जिस नीति का अनुसरण किया जा रहा था, वह उदार साख नीति थी। इस साख नीति के कारण बहुत से अनुत्पादक और ऊल-जलूल निवेश भी हो रहे थे। अब ये सब कम हो जाएंगे। दूसरी ओर यह भी बताया गया कि रिजर्व बैंक ने रेपो रेट बढ़ा दिया, उसने कठिन साख नीति अपनानी शुरू कर दी। ईएमआइ बढ़ गई है। इसके कारण धीरे-धीरे सभी बड़े बैंकों ने बंधी जमा पर ब्याज की दरें ऊंची कर दी। अभी तक निम्न और उच्च मध्यवर्ग इनसे वंचित था। अब उसको अधिक जमा की प्रेरणा मिली। उसके ब्याज से उनकी आय बढ़ी और यह बढ़ी आय अधिक मांग के रूप में मंडी में आ गई।

अधिक मांग ही उत्पादन को नया जीवन देती है। इसलिए कोरोना का सामना करने के लिए जो स्वनिवेश और स्टार्ट-अप उद्योगों को बढ़ाने की प्रेरणा दी जा रही थी, वह अपने आप बढ़ने लगेंगे। लोगों को और रोजगार मिलेगा और इससे पैदा मांग देश में एक ऐसा संतुलन पैदा करेगी, जिसमें निवेशकों, व्यवसायियों को उचित आय प्राप्त होगी और महंगाई अपने आप कम हो जाएगी। यही था हकीम लुकमान का वह नुस्खा, जो अपनाया गया और आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए सरकारी प्रकोष्ठों से एक सूचना बाहर आने लगी कि देश ने महंगाई पर नियंत्रण कर लिया है।

कई महीनों के बाद देश की थोक और परचून दरों में गिरावट दिखा रही है। इसका अर्थ क्या यह लिया जाए कि मोर्चा फतह हो गया। बेशक आंकड़ों में तो फतह हो गया, लेकिन जब आम आदमी अपना परिवेश देखता है, तो वहां पेट्रोल और डीजल की महीनों से ठिठकी दरें जैसे न गिरने की कसम खाए बैठी हैं, और आम आदमी किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ा है। उसे आंकड़े बताते हैं कि खाद्य पदार्थ सस्ते हो गए, खाद्य तेल सस्ते हो गए।

दुनिया भर के देशों के बाजार में कीमतें गिरने लगीं। अमेरका की फेडरल ब्याज दरें भी उस बुलंदी तक नहीं उछलीं, जैसा अंदाजा था, तो अब क्या करे हमारा देश? क्या इस इंद्रधनुषी भ्रम को स्वीकार कर ले कि खाद्य पदार्थो की कीमतों की कमी और पेट्रोल-डीजल की कीमतों के ठहराव के कारण स्थिति बेहतर हो गई है?

जून में अगर केंद्रीय मूल्य सूचकांक 7.01 प्रतिशत दिखा रहा था, तो जुलाई में यह घट कर 6.71 प्रतिशत तक हो गया। अगस्त के आंकड़े तो खैर 12 सितंबर को खुलेंगे, लेकिन इससे पहले ही पैगाम मिलने लगा कि देखो, हमने महंगाई पर विजय प्राप्त करनी शुरू कर दी। आम आदमी नि:संकोच इस बदली हुई स्थिति को स्वीकार करे, क्योंकि अब वह उछलती कीमतों से त्रस्त नहीं होगा। जब सरकारी सूत्र समवेत स्वर में यह कह रहे हैं तो आरबीआइ की मौद्रिक समिति की नई बैठक में गवर्नर शक्तिकांत दास ने साफ कर दिया कि मुद्रास्फीति आज भी परेशान करने वाले उच्च स्तर पर बनी हुई है।

अगर इन पर लगाम न लगी तो मुद्रास्फीति चरम शिखर पर जा सकती है। एक ओर रूस-यूक्रेन युद्ध और दूसरी ओर चीन और ताइवान के बीच तनाव ऐसी अनिश्चितता बना रहा है कि उसमें बढ़ती कीमतों की सुधबुध भुला देती है। और इसमें जुड़ता है पूरे देश में अस्थिर होती कीमतों का सच, जो भारत के सच पर हावी होने का प्रयास कर रहा है। जरूरत है इस सच को झुठला देने की और महंगाई पर नियंत्रण के झूठे सच को न मानने की। खाद्यान्न और जरूरी दुग्ध उत्पादों पर जीएसटी बढ़ गई, लेकिन चीख-चिल्लाहट के बाद भी इसे वापस लेने की कोशिश नहीं हुई।

वैश्विक स्तर पर पेट्रोल और डीजल की कीमतें गिर रही हैं, लेकिन पेट्रोलियम कंपनियों की चीख-चिल्लाहट जारी है कि उन्हें बहुत घाटा पड़ रहा है। इस तरह सरकार के हाथ बंध जाते हैं कि वह पेट्रोलियम उत्पादों पर कीमत में कटौती कर आम लोगों को राहत न दे। अब मौद्रिक समिति फिर रेपो रेट बढ़ाने जा रही है। नतीजा, निवेश में और हतोत्साह होगा। निवेश न बढ़ने के कारण नौकरियों का घटना और लोगों के लिए महंगाई का और असह्य हो जाना तय है। परचून कीमतें तो सात प्रतिशत से कम हुई हैं, थोक कीमतें भी गिरने लगीं, लेकिन आंकड़ों के मायाजाल में उलझा देश का साधारण जन एक ही चिंता करता है कि कब इस काल्पनिक मायादर्पण की लक्ष्मण रेखा से बाहर आकर उसकी जरूरत की चीजें उसके आर्थिक सामर्थ्य के मुताबिक मिलेंगी और वह राहत की सांस लेकर कह सकेगा, हां महंगाई नियंत्रित हो गई।


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