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एक ऐसे समय जब देश के अनेक राज्यों में संगठित सांप्रदायिक हिंसा के एक नए दौर को महसूस किया जा रहा है
Faisal Anurag
एक ऐसे समय जब देश के अनेक राज्यों में संगठित सांप्रदायिक हिंसा के एक नए दौर को महसूस किया जा रहा है, प्रधानमंत्री ने औरंगजेब के जमाने की मजहबी टकट्टरता का प्रसंग छेड़ दिया है. अतीत के बहाने वर्तमान की सच्चाई को लेकर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर 13 विपक्षी दलों के शीर्ष नेताओं ने सवाल उठाया था. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तो इंडियन एक्सप्रेस में लेख लिख कर बढ़ती सांप्रदायिक कट्टरता पर गंभीर चिंता प्रकट की थी. एक ऐसे समय जब बुलडोजर के सहारे तत्काल निर्णय सुना देने का मध्यकाल वापस लाया जा रहा है. आखिर वर्तमान हालात पर चर्चा करने से परहेज क्यों किया जा रहा है.
इतिहास की कोई व्याख्या नहीं होती है. तय तो वह तथ्य करते हैं, जो विविध तथ्यों की जांच करने के बाद किसी निष्कर्ष तक पहुचते हैं. लेकिन जब राजनेता इतिहास का मूल्यंकन करता है तो हमेशा वह उन्हीं तथ्यों,शब्दावाली और प्रसंग का चयन करता है जो उसकी राजनीति के लिए मुफीद होती है. सवाल इतिहास की व्याख्या का तो है भी नहीं, क्योंकि उसे लेकर अनेक विचारधाराएं अलग-अलग दावा करती है.
भारत के सामने मुख्य सवाल है एक आधुनिक विज्ञान चेतना से लैस इतिहासबोध के निर्माण का है. लेकिन भारत की राजनीति की विडंबना यह है कि बहस को हमेशा ऐसे सवालों पर केंद्रित किया जाता है जिससे नागरिकों के बीच का साझापन मजबूत नहीं हो पाता है. भारत की बहुलतावादी सांस्कृतिक चेतना का निर्माण नागरिकों के रोजमर्रे के अनुभवों और जद्दोजहद का ही परिणाम है. आजादी के बाद तो माना गया था कि पीछे देखने के बजाय भविष्य के लिए नागरिकों को तैयार किया जाएगा. आजादी के बाद इसी दिशा में प्रयोग हुए हैं, लेकिन अब देखा जा रहा है कि नागरिकता की जड़ तलाश करने के बजाय उसे धर्मो और जातियों में तलाश की जा रही है.
धार्मिक और जाति के आधार पर संगठित होता कोई भी समाज एक राष्ट्र के बतौर साझेपन को कैसे महसूस कर सकता है, यह एक बड़ी चुनौती है. डॉ. अंबेडकर ने ठीक ही कहा था कि राष्ट्र नागरिकों के साझे दुख,खुशी और सपनों का ही एक और नाम है. आनंद प्रकाश के अनुसार भीमराव आंबेडकर भारतीय समाज के उन बौद्धिक नेताओं में से एक हैं जो स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान ही समझ चुके थे कि एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण के लिए जातिवाद, सत्तावाद और सांप्रदायिकता से मुक्ति जरूरी है. वह सामाजिक आर्थिक विषमता के उस विषाक्त स्वरूप से अच्छे से अवगत थे जिसने भारतीय समाज को कुछ इस तरह से जकड़ रखा था कि अगर भारत राजनीतिक रूप से स्वतंत्र भी हो जाता तो भी जातिवाद, सत्तावाद, साम्प्रदायिकता का दीमक उसे एक दूसरे विभाजन की ओर धकेल देता है.
डॉ. अंबेडकर की इस समझ और विचार को लेकर राष्ट्र को मजबूत बनाने के साझे संकल्पकी जरूरत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. समोवेशी राजनीति जिसमें सभी धर्म की आस्थाओं,विश्वासों और जीवन प्रद्धतियों की आजादी की रक्षा किए जाने की जरूरत है. सभी धर्मो का पूरा सम्मान और आदर की आज पहले से ज्यादा जरूरत है. लेकिन भले ही बात सबके साथ और सबके विश्वास से की जा रही हो लेकिन अनुभव बता रहा है कि जिस तरह सांप्रदायिक कट्टरता बढ़ रही है वह आधुनिक राष्ट्र के लिए नकारात्मक परिघटना की तरह है.
वैचारिक बहस और दिशा तय करने के बजाय यदि आज के हालात पर गौर किया जाए तो साफ महसूस किया जा सकता है कि नागरिकों के एक समूह के भीतर गहरा अवसाद है. इसका असर तो आर्थिक क्षेत्र में भी देखा जा सकता है.उन सवालों पर बहस भी नहीं की जा रही है.प्रधानमंत्री ने मजहबी कट्टरता प्रसंग का उल्लेख गुरू तेगबहादुर के संदर्भ में किया. लेकिन उसी गुरू तेगबहदुर के पंजाब के वंशज इस समय आत्महत्या के लिए विवश किए जा रहे हैं.
थोक मंहगाई दर इस समय 14.55 हो गयी है. रोजगार के अवसर अवरूद्ध हैं और तमाम दावों के बावजूद बाजार में निराशा है.बावजूद इसके लोगों को सांप्रदायिकता का अफीम पिलाया जा रहा है. क्या इस देश के शासकों का यह दायित्व नहीं है कि वह पूरी सख्ती के साथ सांप्रदायिकता के उभार को रोके. यदि ऐसा नहीं हो पा रहा है और पिछले तीन सालों में राजधानी दिल्ली भी दो दंगों का शिकार बनायी जा चुकी है, पूरे समाज को आत्म मूल्यांकन करने की जरूरत है.
साभार : Lagatar News
Rani Sahu
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