सम्पादकीय

EVP और VVPAT पर कानूनी विवाद क्यों? सुप्रीम कोर्ट क्यों पहुंचा मामला?

Rani Sahu
11 March 2022 5:54 PM GMT
EVP और VVPAT पर कानूनी विवाद क्यों? सुप्रीम कोर्ट क्यों पहुंचा मामला?
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पांच राज्यों में मतगणना के बाद तस्वीर साफ़ हो गई है. लेकिन दो महीने तक चले चुनावी प्रचार और मतदान के दौरान अनेक मुद्दों पर गंभीर विवाद हुए

विराग गुप्ता

पांच राज्यों में मतगणना के बाद तस्वीर साफ़ हो गई है. लेकिन दो महीने तक चले चुनावी प्रचार और मतदान के दौरान अनेक मुद्दों पर गंभीर विवाद हुए. पिछले कई चुनावों में ईवीएम मशीनों पर सभी राजनीतिक दल मनमाफिक तरीके से विवाद करते हैं. इससे बचाव के लिए चुनाव आयोग ने वोटर वेरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल वीवीपैट से सत्यापन की व्यवस्था की है.
लोकसभा के पिछले आम चुनाव में मतगणना के पहले 20 से ज्यादा राजनीतिक दलों के नेताओं ने वीवीपैट में 50 फीसदी पर्चियों के सत्यापन के मांग के साथ सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दी थी. चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल 2019 के आदेश के बाद प्रत्येक विधानसभा में 1 से बढ़ाकर 5 कर दिया था. इस बार पांच राज्यों के चुनाव में मतगणना के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट में वीवीपैट पर नई पीआईएल दायर की गई. याचिकाकर्ता के अनुसार मतगणना पूरी होने के बाद भी वीवीपैट के सत्यापन का कोई मतलब नहीं है क्योंकि तब तक एजेंट बाहर निकल जाते हैं. याचिका के अनुसार पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए चुनावी एजेंटों की मौजूदगी में ही मतगणना से पहले वीवीपैट की पर्चियों का सत्यापित होना जरूरी है.
सुप्रीम कोर्ट ने पहले इस याचिका पर तत्काल सुनवाई की मंजूरी दे दी. लेकिन सरकारी वकील के हस्तक्षेप के बाद चीफ जस्टिस ने कहा कि आखिरी समय में इस मामले में न्यायिक हस्तक्षेप करना ठीक नहीं होगा. इसके बावजूद ईवीएम मशीन के नाम पर मतगणना के पहले अनेक विवाद हुए. ऐसे विवादों से चुनावी प्रक्रिया के प्रति आम जनता का भरोसा कम होता है. ईवीएम के अलावा सरकार बनाने के लिए दलों द्वारा अपनाए गए कई नुस्खे और एग्जिट पोल क़ानून सम्मत नहीं हैं.
मतगणना के पहले से ही संभावित विधायकों की बाड़ेबंदी
दलबदल विरोधी कानून की खामियों और अपर्याप्तता को समझ कर सभी दलों के राजनेता उसका बखूबी दुरुपयोग कर रहे हैं. जिन पांच राज्यों में नई सरकार का गठन होना है, उनमें मणिपुर, गोवा और उत्तराखंड जैसे राज्यों में दलबदल का पुराना मर्ज है. इससे बचाव के लिए टिकट देने से पहले ही कई पार्टियों ने प्रत्याशियों से दलबदल न करने का शपथ पत्र ले लिया था. कुछेक दलों ने तो मंदिर, मस्जिद और चर्च में नेताओं से मत्था भी टिकवा कर दलबदल न करने की कसम ली थी. मतगणना के पहले से ही अपने नेताओं पर पार्टियों के आलाकमान का भरोसा डगमगाने लगा. दलबदल रोकने के लिए पार्टियों ने पर्यवेक्षक नियुक्त करने के साथ संभावित विधायकों को होटल और रिसॉर्ट के बाड़े में कैद करना शुरू कर दिया. इसके पहले यह काम रिजल्ट आने के बाद शुरू होता था. विधायक और सांसद जब भेड़ों के झुण्ड की तरह बाड़े में कैद किये जाएं तो यह लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था दोनों के लिए खतरनाक संकेत है.
हंग असेंबली, प्रोटेम स्पीकर और राज्यपाल की भूमिका पर कयास
पांचों राज्यों में दलों या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला है. लेकिन उसके पहले एग्जिट पोल के अनुसार हंग असेंबली के कयास लगाए जा रहे थे. हंग विधानसभा में नई सरकार के गठन में प्रोटेम स्पीकर और राज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. संविधान के अनुसार सदन के मतदान में स्पीकर या कार्यवाहक स्पीकर शामिल नहीं होते हैं. लेकिन बराबरी या टाई की स्थिति में प्रोटेम स्पीकर का वोट निर्णायक हो सकता है. प्रोटेम स्पीकर किसी भी वोट को डिसक्वालिफाई घोषित कर सकते हैं. पिछले कई सालों से कर्नाटक, गोवा और मणिपुर जैसे राज्यों में असेंबली में प्रोटेम स्पीकर की भूमिका को लेकर गंभीर विवाद हो चुके हैं. संविधान के अनुसार राज्यपाल विवेक के आधार पर सबसे बड़े राजनीतिक दल या गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार विधायकों के समर्थन का फैसला विधानसभा के पटल में होना चाहिए. परंपरा के अनुसार सीनियर मोस्ट विधायक को प्रोटेम स्पीकर बनाया जाता है. लेकिन राजनीतिक दलों के प्रति आग्रह रखने वाले प्रोटेम स्पीकर कई बार विधायकों को बेवजह अयोग्य करार दे देते हैं जिसकी वजह से कानूनी विवाद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं.
ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल पर विवाद
चुनाव आयोग की अधिसूचना के अनुसार मतदान से 48 घंटे पहले ओपिनियन पोल पर भी रोक लग गई थी. पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल जो चुनाव हार गए हैं, उन्होंने ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल के सिस्टम पर गंभीर आरोप लगाते हुए इनपर बैन लगाने की मांग की थी. लेकिन चुनाव आयोग ने थिंक टैंक CASC के प्रतिवेदन के बाद एग्जिट पोल पर पहले ही बैन लगा रखा है. पांच राज्यों के चुनावों के पहले चुनाव आयोग ने 28 जनवरी 2022 की नोटिफिकेशन से ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल को बैन करने का आदेश जारी किया था. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 126 (क) के तहत 7 मार्च तक एग्जिट पोल नहीं किया जा सकता था. आदेश के अनुसार प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया या अन्य किसी संचार साधन पर 7 मार्च के पहले एग्जिट पोल को दिखाया भी नहीं जा सकता था. यह समझना है कि जब चुनाव आयोग के आदेश के अनुसार 7 मार्च के पहले एग्जिट पोल आयोजित ही नहीं हो सकते थे, तो फिर 7 मार्च की शाम को जो एग्जिट पोल प्रसारित किए गए, उनका क्या आधार था? अगर एग्जिट पोल गैरकानूनी तरीके से किए गए तो उनके अनुचित प्रसारण को रोकने के लिए चुनाव आयोग को भविष्य में उचित कारवाई करनी चाहिए.
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