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यदि देश के प्रधानमंत्री को एक कथावाचक या साधु-संत की भाषा में बोलना पड़े, तो यकीनन चिंता की बात है
सोर्स- divyahimachal
यदि देश के प्रधानमंत्री को एक कथावाचक या साधु-संत की भाषा में बोलना पड़े, तो यकीनन चिंता की बात है। यह प्रधानमंत्री का किरदार नहीं है। प्रधानमंत्री देश का लोकतांत्रिक और राजनीतिक चेहरा हैं। सरकार का प्रथम और अंतिम संचालक भी वही होता है। प्रधानमंत्री अवसर के अनुसार किसी भी विषय पर अपनी टिप्पणी कर सकते हैं, बयान दे सकते हैं, लेकिन उन्हें एक विशेषज्ञ के तौर पर ग्रहण नहीं करना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी को मां काली की चेतना और संपूर्ण चराचर जगत् में उस चेतना की व्याप्ति, बंगाल ही नहीं, पूरे भारत की आस्था में मां काली की चेतना और असीम आशीर्वाद सरीखे सद्वचन बोलने पड़े हैं, तो साफ है कि मां काली, यानी धर्म और सियासत का घालमेल कर दिया गया है। धार्मिक आस्था और देवी-देवता की सामूहिक शान के दो अलग-अलग मानदंड नहीं हो सकते। गुस्ताख-ए-रसूल की स्थिति अस्वीकार्य और निंदनीय है, तो भगवान शंकर और मां काली के अपमान की भी भर्त्सना की जानी चाहिए। वह भी ईश-निंदा की तर्ज पर देव-निंदा है। कानून की धाराओं में, आस्थाओं को आहत करने के जो प्रावधान हैं, आरोपितों पर वे धाराएं लगाकर दंडित किया जाना चाहिए, लेकिन धर्म को राजनीतिक अभियान की शक्ल देना भी अनुचित है। प्रधानमंत्री ने प्रवचननुमा बयान के जरिए, इशारों-इशारों में, तृणमूल कांग्रेस और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर, राजनीतिक हमला किया है, लेकिन वह भाजपा की प्रवक्ता रहीं नूपुर शर्मा और प्रतिक्रिया के तौर पर 'सर तन से जुदा..' मुहिम पर खामोश रहे हैं। ममता बनर्जी की पुलिस ने नूपुर के खिलाफ कई केस दर्ज किए हैं, बल्कि उसने दिल्ली तक आकर छापेमारी की है, ताकि नूपुर को गिरफ्तार किया जा सके। तृणमूल ने सोशल मीडिया पर नूपुर के खिलाफ आक्रामक और विषैला अभियान भी चलाया था। वह ममता और उनकी पार्टी मां काली पर उनकी लोकसभा सांसद महुआ मोइ़त्रा की विवादित टिप्पणी पर खामोश और निष्क्रिय हैं। यह धार्मिक दोगलापन है। कानून पीछे छूट जाता है। संवैधानिक अधिकारों की गलत व्याख्या की जाने लगती है।
कमोबेश प्रधानमंत्री मोदी देश का आह्वान कर सकते थे कि देश संविधान से ही चलेगा, न कि 'सरकलम' से…। वह 'खंजरबाजों' के खिलाफ त्वरित और कड़ी कानूनी कार्रवाई के लिए संबद्ध मुख्यमंत्रियों से आग्रह कर सकते थे। खामोशियों से संदेह पैदा होते हैं। चूंकि 'मां काली' पर तृणमूल सांसद महुआ की आपत्तिजनक टिप्पणी सामने आई है, लिहाजा प्रधानमंत्री को कथावाचक के तौर पर प्रवचन याद आया है। मान लेते हैं कि वह रामकृष्ण परमहंस की सोच और साधना से जुड़े आचार्य स्वामी के समारोह में थे, लिहाजा उन्हें धार्मिक-सी टिप्पणी करनी ही थी, लेकिन प्रधानमंत्री बुनियादी तौर पर सियासी शख्सियत हैं। उन्हें नूपुर, सरकलम, शरीयत, मां काली, भगवान महादेव से लेकर महुआ और ममता बनर्जी तक जो भी कहना है, उसे साफ-सटीक शब्दों में कहें। वह देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री हैं। उनकी आज भी सबसे ज्यादा स्वीकार्यता है। उपमा और रूपक की भाषा पूरा देश नहीं समझता। प्रधानमंत्री कई जनसभाओं में, बहुत कुछ हकीकतें, राजनीतिक विरोधियों को लेकर, बयां करते रहे हैं, तो मौजूदा संदर्भ में भी स्पष्ट कहा जा सकता है कि धर्म को लेकर दोगलापन स्वीकार नहीं है। देश के हालात और विभाजन किस मुकाम तक पहुंच चुके हैं, प्रधानमंत्री को बखूबी एहसास होगा। हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे को देखने और सुनने की स्थिति में नहीं हैं। यदि इसकी बानगी देखनी है, तो शाम 4-5 बजे से रात 9-10 बजे तक टीवी चैनलों पर कराई जाने वाली कोई भी बहस देख-सुन लें। हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच सहिष्णुता शेष ही नहीं रही है। हमें नहीं पता कि धर्म के आधार पर बोलने वाले कथित स्कॉलर और प्रवक्ता उस धर्म का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते हैं या नहीं, लेकिन देश बंट चुका है, यह उनकी दलीलों से साफ टपकता है। प्रधानमंत्री को देश को इन हालात से उबारने का भी जनादेश मिला है। सांसद महुआ कहती हैं कि वह भाजपा के 'हिंदुत्व' वाले देश में नहीं रहना चाहतीं। क्या ऐसा भी कोई देश है? प्रधानमंत्री का दायित्व है कि इन हालात को सामान्य किया जाए।
Rani Sahu
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