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पंजाब (Punjab) की राजनीति में उथल-पुथल बीते दो महीने से चल रही थी. शनिवार 18 सितंबर 2021 को नहीं तो आने वाले किसी भी कल में पंजाब की राजनीति में बवाल का बुरा रिजल्ट सामने आना तय था
संजीव चौहान। पंजाब (Punjab) की राजनीति में उथल-पुथल बीते दो महीने से चल रही थी. शनिवार 18 सितंबर 2021 को नहीं तो आने वाले किसी भी कल में पंजाब की राजनीति में बवाल का बुरा रिजल्ट सामने आना तय था. कांग्रेस हो या फिर बीजेपी. हर पार्टी का पारखी 'नेता' अपना मुंह बंद करके लेकिन आंख और कान खोले बैठा था. इस इंतजार में कि पंजाब के राजनीतिक गलियारे में मचा घमासान अपने चरम पर पहुंचे? दोपहर ढलते-ढलते (दोपहर बाद करीब साढ़े चार बजे) शनिवार को सब कुछ धीरे-धीरे ही सही मगर पिक्चर साफ होने लगी.
मतलब सूबे की राजनीति में दो महीने से चल रही उठा-पटक का पटाक्षेप हो गया. कैप्टन अमरिंदर सिंह (Captain Amarinder Singh) अपना और अपने विश्वासपात्र साथी-संगी रहे (मंत्री मंडल) का इस्तीफा देने राजभवन पहुंच गए. मतलब साढ़े चार बजे कैप्टन और उनकी टीम ने खुद को खुद से ही मैदान (पंजाब सरकार) से बाहर कर लिया. शनिवार दोपहर करीब साढ़े चार बजे तक (इस्तीफा राज्यपाल को सौंपने तक) राज्य के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, ऊपर आई राजनीति आफत से जूझने की हर-संभव कोशिश में जुटे हुए थे. इस उम्मीद में कि शायद कोई आसमानी ताकत इस भीड़ और कोहराम में चले उनके किसी 'दांव' को कामयाब कर दे.
हुआ मगर वैसा कतई नहीं
हुआ मगर वैसा नहीं. हुआ वही जो कैप्टन अमरिंदर सिंह खेमे के धुर-विरोधी और हाल ही में राज्य में पार्टी अध्यक्ष बनाए गए नवजोत सिंह सिद्धू चाहते थे. कहने को तो पंजाब में चंद महीनों बाद ही होने वाले संभावित चुनावों के मद्देनजर राज्य में ऑब्जर्वर की भूमिका में मौजूद वरिष्ठ कांग्रेसी नेता हरीश रावत ने झंझट निपटाने की अपनी तरफ से बहुत कोशिश की, लेकिन मुश्किल यह थी कि कांग्रेस आला-कमान के बेहद करीबी माने जाने वाले हरीश रावत बिचारे अपनी कर्मस्थली यानि उत्तराखण्ड की राजनीति में खुद की ही 'कुर्सी' सलामत नहीं रख पाए थे. सोचिए ऐसे कद्दावर नेता हरीश रावत को कांग्रेस आला कमान ने, पंजाब में सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच छिड़े शीत और वाकयुद्ध को खत्म कराने की जिम्मेदारी सौंपी थी.
फिर भी मरता क्या न करता. जब आला कमान ने आगामी पंजाब विधानसभा चुनावों में पार्टी का सर्वे-सर्वा बनाकर भेजा था, तो हरीश रावत को कुछ तो हाथ-पांव मारने ही थे. उन्होंने अपनी जितनी समझ-बूझ थी उसका इस्तेमाल भी किया, यह अलग बात है कि उनके तमाम प्रयासों के बाद भी कैप्टन अमरिंदर सिंह के धुर-विरोधी नवजोत सिंह सिद्धू को राज्य में कांग्रेस की कमान सौंप दी. उन्हें पंजाब राज्य कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर. हरीश रावत की बात छोड़ भी दीजिए. यह समझकर कि चलो जो इंसान अपने सूबे में खुद की सरकार और खुद की कुर्सी नहीं बचा सका वो भला पंजाब में पहुंचकर अमरिंदर सिंह और सिद्धू के बीच छिड़े बवाल को कैसे शांत करने की गारंटी दे सकते थे?
विरोधी जो चाहते थे सो कर बैठे
असल में मुश्किल तो सबसे ज्यादा कैप्टन अमरिंदर सिंह की ही थी. तब तक जब तक उन्होंने शनिवार को पंजाब के मुख्यमंत्री पद से अपने मंत्री-मंडल के साथ इस्तीफा राज्यपाल को नहीं सौंप दिया. बस यही तो कैप्टन का विरोधी खेमा (नवजोत सिंह सिद्धू आदि) चाहते थे. ऐसा नहीं कि हवा के रुख के विपरीत चलने की कोशिश कैप्टन अमरिंदर सिंह ने नहीं की. उन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी सलामत करने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद, जो संभव था. उस तरह से हर 'नाकाम कोशिश' बार-बार की.
यह अलग बात है कि ऐसा करते वक्त वे हर बार भूल गए कि, इस बार फिर मैदान में उनके सामने वही नवजोत सिंह सिद्धू डटे हैं, जो कांग्रेस आला-कमान की नजरों में अक्सर कहीं न कहीं कैप्टन से ऊपर के खिलाड़ी रहे हैं. कैप्टन समझ रहे थे कि वे पंजाब की कुर्सी पर काबिज हैं. सत्ता-सरकारी मशीनरी उनके पास है. लिहाजा ऐसे में तमाम विपरीत हालातों में भी कांग्रेस आला कमान उनकी कप्तानी (पंजाब राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी) की ओर आंख उठाने की गलती नहीं करेगा. क्योंकि चंद महीने बाद ही राज्य में विधानसभा चुनाव होना तय है.
हर मोर्चे को पहले समझना था
यह सब सोचते वक्त राजनीति के बेहद मंझे हुए मगर हाल-फिलहाल पंजाब की राजनीति में बेहद कमजोर 'खिलाड़ी' सिद्ध हो रहे कैप्टन बाकी तमाम बिंदुओं को भूल गए. पहली बात, उनके खिलाफ नवजोत सिंह सिद्धू ने मोर्चा खोला था, कैप्टन अमरिंदर हमेशा से ही नवजोत सिंह सिद्धू की आंख की किरकिरी रहे हैं. दूसरी बात, कैप्टन अमरिंदर सिंह भूल गए कि वह राज्य के मुख्यमंत्री हैं. उन्हें हर कदम फूंक-फूंक कर रखना होगा. उनका एक भी दांव राज्य की राजनीति में उनके सिर पर मंडरा रहे खतरे को अमल में लाकर कभी भी खड़ा कर सकता है.
जबकि नवजोत सिंह सिद्धू चंद दिन पहले तक राज्य की राजनीति में कोई विशेष पद हासिल नहीं किए हुए थे. मतलब सिद्धू के पास जब कुछ था ही नहीं पहले से, तो उन्हें कुछ खोने का डर भी नहीं था. दूसरे कैप्टन अमरिंदर सिंह को उसी दिन समझ जाना चाहिए था जिस दिन आला-कमान ने सिद्धू को पंजाब में पार्टी का अध्यक्ष बनाया. कैप्टन ने यह सोचकर आंखें बंद कर लीं कि ठीक है सिद्धू को राज्य का कांग्रेस अध्यक्ष ही तो बना दिया गया है. कौन सा वो उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी खिसका ले गए?
कैप्टन के पास समझने के मौके थे
दरअसल जब सिद्धू को आला-कमान ने पंजाब में पार्टी की बागडोर अध्यक्ष बनाकर सौंपी थी, तभी कैप्टन अमरिंदर सिंह को समझ लेना चाहिए था कि, सबकुछ ठीक नहीं है. मतलब हालात उनके विपरीत होते जा रहे हैं. कैप्टन को हो सकता है कि सत्ता में बैठे होने की 'हनक' ने यह सब सोचने का मौका ही न दिया हो. या संभव है कि अति-विश्वास में में कैप्टन ने सोचा हो कि, सिद्धू उनके सामने 'बच्चा' है.
पंजाब में कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष उनका बिगाड़ लेगा? राज्य में हुकूमत, मंत्री, संतरी यानि सरकारी मशीनरी तो मेरे ही कब्जे में है. राज्य में आने वाले समय में होने वाले चुनावों में जीत के लिए सरकारी धन-बल-मशीनरी ही सर्वोपरि होती है, सो सलामत बची हुई है. सिद्धू राज्य कांग्रेस अध्यक्ष बनकर भी उनके सामने 'बौने' ही रहेंगे. संभव है कि सिद्धू के प्रति जाने-अनजाने कैप्टन की इस सोच ने भी, उनकी टीम को पंजाब की राजनीति से 'आउट' करवाने और कैप्टन की कप्तानी छिनवाने में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अहम भूमिका निभाई हो.
हारे खिलाड़ी की 'एंट्री' तो नहीं हरवा बैठी
अब आइए एक नजर डालते हैं कि पंजाब में उठे इस राजनीतिक बवंडर में अगर कांग्रेस के नंबरदारों ने, परदेसी और राजनीति के खेल में हाल-फिलहाल खुद ही हारे हुए खिलाड़ी साबित हो रहे हरीश रावत की "एंट्री" न कराई होती, तब क्या कैप्टन की कप्तानी सलामत रहती? नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं है. वजह, दरअसल इस बार नवजोत सिंह सिद्धू ने जिस तरह कैप्टन के राजनीतिक मैदान में 'लंबी छलांग' लगाई, उसने सिर्फ कैप्टन अमरिंदर सिंह को ही 'डिस्टर्ब' या बुरी तरह विचलित नहीं किया. कैप्टन के साथ मैदान में मौजूद उनके बाकी खिलाड़ियों का भी मन इस बार भटकाने में सिद्धू कहीं न कहीं किसी न किसी तरह से कामयाब रहे.
नहीं तो पंजाब की राजनीति और कैप्टन अमरिंदर के राजनीतिक करियर में यह दिन देखने को न आता. संभव है कि कैप्टन अमरिंदर के फौजी स्टाइल में सरकार 'चलाने-हांकने' का रिवाज उनके अपने ही कुछ खिलाड़ियों को रास न आ रहा हो. जो भी हो फिलहाल पंजाब सरकार और वहां की कांग्रेस में मची भगदड़ पर बीजेपी चुप्पी साधे बैठी है. बिना किसी हड़बड़ाहट और भागमभाग मचाए हुए. शायद इस इंतजार में कि उसे कब और किसके ऊपर अपना हाथ रखना है? ताकि पंजाब कांग्रेस की मची उठा-पटक का आगामी विधानसभा चुनावों में भरपूर 'भुनाया' जा सके.
क्योंकि किसी वक्त में कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी के विश्वासपात्र माने जाने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह, पंजाब की राजनीति में इस बात के लिए भी जाने जाते हैं कि, वे खुद के बराबर 'कदम ताल' करते अपने संग अपनों को चलता देखना पसंद नहीं करते. उनकी फितरत है कि सिर्फ वे बहैसियत 'कमांडर' अपनों की बाकी तमाम 'भीड़' से अलग होकर चलते हुए दिखाई देते है. मतलब वे अपनों की ही भीड़ से एकदम अलग नजर आएं. संभव है कि उनका यह स्टाइल नवजोत सिंह सिद्धू के लिए बेहद 'काम' का साबित हो गया हो.
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