सम्पादकीय

कलाकारों की सीट पर बिहार विधान परिषद में राजनेताओं की एंट्री क्यों?

Gulabi
24 Sep 2021 9:23 AM GMT
कलाकारों की सीट पर बिहार विधान परिषद में राजनेताओं की एंट्री क्यों?
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दो दिन पहले पटना हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका को मंजूरी दी

दो दिन पहले पटना हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका को मंजूरी दी. उस याचिका में बिहार के दो मंत्रियों जनक राम और अशोक चौधरी के बिहार विधान परिषद में मनोनयन को चुनौती दी गई है. याचिकाकर्ता का कहना है कि विधान परिषद में जिन 12 सीटों पर राज्यपाल सदस्य मनोनीत करते हैं, वे राज्य के कलाकारों, साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, समाजसेवियों और सहकारिता आंदोलन से जुड़े लोगों के लिए आरक्षित हैं. जबकि ये दोनों राजनेता हैं और मनोमनयन के वक्त बिहार सरकार में मंत्री थे. न इन्होंने अपने बारे में मनोनयन के वक्त सही जानकारी दी, न राज्यपाल महोदय ने उस वक्त यह विचार किया कि मनोनीत सीटों पर सरकार में मंत्री के रूप में काम कर रहे व्यक्ति को क्यों लिया जाये.


दरअसल, बिहार देश के उन कुछ चुनिंदा राज्यों में है, जहां विधानसभा के साथ-साथ विधान परिषद भी है. यह विधान परिषद उसी तरह काम करती है, जैसे राज्य सभा. इसे अपर हाउस माना जाता है. बिहार के अलावा देश के पांच अन्य राज्यों में विधान परिषद है. देश की संसद ने तीन अन्य राज्यों में विधान परिषद के गठन की मंजूरी दी है, मगर साथ ही, आंध्रप्रदेश की सरकार ने अपने राज्य से विधान परिषद को खत्म करने का प्रस्ताव पारित किया है. यह राज्य सभा की तरह अपर हाउस है और इसका मकसद राज्य में ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा, कला, समाज सेवा, संस्कृति, सहकारिता आदि से जुड़े लोगों की भी राज्य के नीतिगत फैसले में भागीदारी करना है.

बिहार में विधान परिषद में कुल 75 सीटें हैं. इनमें छह ग्रेजुएट, छह शिक्षक, 24 विभिन्न स्थानीय निकाय, 23 बिहार विधान सभा से चुने जाते हैं और 12 लोग राज्यपाल द्वारा मनोनीत किये जाते हैं. इन 12 लोगों में से राज्यपाल महोदय को राज्य की कला, साहित्य, समाज सेवा, विज्ञान और सहकारिता के क्षेत्र से जुड़े लोगों का मनोनयन करना है. एक जमाना था, जब बिहार में इन विधाओं से जुड़े लोग विधान परिषद में मनोनीत होते रहे हैं. उपेंद्र महारथी जैसे शिल्पकार ने इस सदन को सुशोभित किया. साहित्यकार जाबिर हुसैन चार बार इस सदन के सभापति रहे, जो सभापति रहते हुए सदन की तरफ से साहित्यिक और वैचारिक पत्रिका का प्रकाशन करते थे.

मगर धीरे-धीरे यह चलन खत्म हो गया. अब यह सदन चुनाव हारे और चुनाव न जीत सकने में सक्षम राजनेताओं की शरणस्थली बनता जा रहा है. राजनीतिक दल ऐसे नेताओं को यहां भेज देते हैं, जो चुनाव नहीं लड़ना चाहते. दिलचस्प है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद इस सदन के सदस्य हैं. उन्होंने लंबे समय से विधानसभा का चुनाव लड़ना बंद कर दिया है. पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी और पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी भी इसी सदन के जरिये राजनीति करती रही हैं. यह इन नेताओं के लिए सुविधाओं का सदन हो गया है. मगर इनका चयन फिर भी समझ आता है, क्योंकि ये बिहार विधान सभा के सदस्यों द्वारा चयनित हैं.

अब राजनेताओं की घुसपैठ उन सीटों की तरफ भी होने लगी है, जो राज्यपाल द्वारा मनोनीत किये जाते हैं. इस बार जिन बारह सदस्यों का मनोनयन हुआ, उनमें से ज्यादातर ने खुद को समाज सेवी बताया है. मगर क्या सदन में समाजसेवियों के लिए सीटें इसलिए रखी गयीं कि राजनेता खुद को समाजसेवी बता कर जगह पा जाये. सैद्धांतिक रूप से देखा जाये तो लगभग हर राजनेता समाज सेवी होता है. मगर यहां समाजसेवियों को जगह देने का मकसद है, ऐसे लोगों को सामने लाना जो जमीन पर रह कर सामाजिक काम करते हैं और समाज को बदलने का विजन रखते हैं. राजनीतिक समाजसेवियों के लिए तो विधानसभा की 243 सीटें हैं ही. उन्हें मनोनयन वाली सीटों में क्यों घुसाया जा रहा है.

क्यों राज्य के कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े गैर राजनीतिक लोगों का मनोनयन विधान परिषद में नहीं होता. साहित्यकार के नाम पर रामवचन राय कब तक चुने जाते रहेंगे. राज्य में क्या साहित्यकारों का अकाल पड़ गया है. उषाकिरण खान, आलोक धन्वा, अरुण कमल, चंद्रकिशोर जायसवाल, रामधारी सिंह दिवाकर, हृषिकेश सुलभ, अवधेश प्रीत जैसे साहित्यकार क्यों मनोनीत नहीं होते, क्या इसलिए कि वे सत्ताधारी दल के सदस्य नहीं हैं. क्यों किसी मिथिला पेंटिंग की कलाकार को विधान परिषद बुलाया जाता है. क्यों किसी वैज्ञानिक को यहां जगह नहीं मिलती. समाजसेवा वाली सीट पर दिनेश कुमार मिश्र, अनिल प्रकाश, रामशरण या हमारे युवा साथी महेंद्र यादव को जगह मिलती है.

क्या इनकी समाजसेवा का स्तर अशोक चौधरी, जनक राम या ललन सर्राफ से कमतर है? मुझे तो इन नामों से ज्यादा बेहतर वे युवा लगते हैं जिन्होंने चमकी बुखार, पटना की बाढ़ और कोरोना के वक्त सड़कों पर उतर कर लोगों की मदद की.

इस बार जिन बारह सीटों पर मनोनयन हुआ है, उनमें छह भाजपा के सदस्य हैं और छह जदयू के. एक भी गैर राजनीतिक व्यक्ति नहीं है. जबकि सैद्धांतिक रूप से इस मनोनयन में ज्यादा से ज्यादा गैर राजनीतिक लोग होने चाहिए थे. राजनीतिक व्यक्ति की एंट्री अपवाद स्वरूप ही होनी चाहिए थी. राजनीतिक लोगों के लिए तो विधान सभा के द्वार खुले ही हैं. विधान परिषद में भी आधी से अधिक सीटें उन्हीं की है. 12 लोगों का मनोनयन इसलिए किया जाना था कि अलग सोच विचारधारा के कुछ जागरूक लोग यहां रहें और बहस को अलग तरह की ऊंचाई दें. मगर राजनेताओं ने इस कांसेप्ट को धराशायी कर इन 12 सीटों में भी घुसपैठ कर ली. अब विधान परिषद भी पूरी तरह राजनीति अखाड़ा बन गया. वह भी सत्ताधारी राजनीति का. विपक्ष का एक भी सदस्य मनोनीत नहीं हुआ.

अगर विधान परिषद के जरिये यही सब होना है तो इस सदन की हमें जरूरत क्या है? क्यों इसे राजनेताओं की बैकडोर एंट्री का जरिया बनाया जा रहा है. इससे अच्छा हमें भी आंध्र प्रदेश की तरह इस सदन को खत्म करने पर विचार करना चाहिए. अगर वाकई हमें इसे रखना है तो कम से कम इन बारह सीटों पर राजनीतिक घुसपैठ को बंद करना चाहिए और राज्य के गैर राजनीतिक( राजनीतिक दलों से असंबद्ध) कलाकारों, साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, समाज सेवियों और सहकारिता से जुड़े प्रमुख और निर्विवाद लोगों को जगह दी जानी चाहिए.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

पुष्यमित्र, लेखक एवं पत्रकार
स्वतंत्र पत्रकार व लेखक. विभिन्न अखबारों में 15 साल काम किया है. 'रुकतापुर' समेत कई किताबें लिख चुके हैं. समाज, राजनीति और संस्कृति पर पढ़ने-लिखने में रुचि.
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