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भारत में वही पार्टी चुनाव जीत सकती है जिसे गांव और किसानों का समर्थन हासिल हो
संयम श्रीवास्तव भारत में वही पार्टी चुनाव जीत सकती है जिसे गांव और किसानों का समर्थन हासिल हो. इसलिए करीब सभी पार्टियां ग्रामीणोन्मुख और किसानों के समर्थन वाली बातें अपनी मैनिफेस्टो में जरूर रखती हैं. देश की करीब हर पार्टी किसानों के ऋण माफ करने का चुनाव पूर्व वचन जरूर देती है. इसी तरह देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी अच्छी खेती की जरूरत होती है. जिस साल देश में सूखा या बाढ़ की स्थित होती है जीडीपी पर असर पड़ जाता है. दरअसल आज भी टोटल जीडीपी में खेती का हिस्सा करीब 17.8 परसेंट (2019-20) है. पर इतना सब होते हुए भी कोई भी सरकार किसानों को एमएसपी की गारंटी देने की बात क्यों नहीं करती हैं? यह आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि यह फिजिबल ही नहीं है.
वे कौन से कारण हैं जिसके चलते किसान संगठनों द्वारा की जा रही मांग को सरकारें सुनतीं तो हैं पर पूरा करने के लिए एक्शन नहीं लेती हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नए कृषि कानूनों को रद्द करने का वचन देने और एमएसपी की मांग पर विचार करने के लिए एक कमेटी बना देने के बाद भी किसान संगठन एमएसपी की गारंटी देने की मांग पर अड़े हुए हैं. आखिर किसानों की मांग कितनी फिजीबल हैं?
व्यवहारिक दिक्कतें
अब मान लीजिए कि कोई सरकार देश में MSP पर कानून बना देती है. कानून बनने के बाद तो इसका सीधा मतलब होगा राइट टू MSP.यानि किसानों के पास ऐसा अधिकार हो जाएगा कि कि अगर उन्हें एमएसपी पर फसल की कीमत नहीं मिलती है तो वे कोर्ट जा सकते हैं और सजा दिला सकते हैं. इसी तरह MSP पर कानून बनने के बाद यदि देश में कभी अनाज यानी गेहूं, चावल या कोई भी उपज बहुत ज्यादा हो जाता है और बाजार में कीमतें गिर जाती हैं तो फसल खरीदने वाले ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे. व्यापारी या कंपनियां कानून के डर से कम कीमत में फसल खरीदेंगी ही नहीं ऐसे में अनाज किसानों के पास ही रखा ही सड़ जाएगा.
एमएसपी की गारंटी देने में एक और व्यवहारिक दिक्कत है वो फेयर एवरेज क्वालिटी तय करने की है. अभी जिन फसलों की खरीद एमएसपी पर हो रही है, उसके लिए फेयर एवरेज क्वॉलिटी तय होता है. मतलब फसल की एक निश्चित गुणवत्ता तय होती है. उसी पर किसान को MSP मिलता है. अब अगर कोई फसल गुणवत्ता के मानकों पर खरी नहीं उतरेगी तो किसानों से उसे कौन खरीदेगा ?
आर्थिक दिक्कतें
व्यवहारिक दिक्कतों को दरकिनार कर भी दिया जाए तो सबसे बड़ा सवाल है कि पैसा कहां से आएगा? अगर किसान की सारी फसल एमएसपी पर सरकार खरीदने लगे तो उसे कम से कम अपने करों को तीन गुना बढ़ाना होगा. क्योंकि कानून के डर से व्यापारी अनाज खरीदेंगे नहीं. दूसरे हमारे देश में अनाज की कीमतें अभी भी दूसरे देशों से कहीं ज्यादा हैं. इसलिए अगर कानून के डर से व्यापारी खरीद भी लेता है तो उसे आगे बेचेगा कहां. अगर एमएसपी को अनिवार्य कानून बनाया गया तो व्यापारी जरूरत का अनाज आयात करने लगेंगे और सरकार को ही किसानों से सारी फसलें खरीदनी पड़ेंगी .
अभी केंद्र सरकार की सालाना कमाई 16.5 लाख करोड़ रुपए है. अगर उसे सभी 23 फसलों की खरीद एमएसपी पर करनी पड़े तो सरकार को इसके लिए 17 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च करने पड़े सकते हैं. इसके अलावा अगर सरकार एमएसपी को अनिवार्य कानून बना देगी तो वो तो सभी फसलों पर लागू होगी. क्योंकि दूसरी फसलों के किसान भी तो इसकी मांग करेंगे. अगर ऐसा हुआ तो अभी के कुल बजट का लगभग 85 फीसदी हिस्सा सरकार एमएसपी पर ही खर्च कर देगी.
सिर्फ 6 फीसदी किसानों को मिलता है लाभ
देश में 85 फीसदी छोटे किसान हैं, जिसका मतलब ये है कि वो खरीदार भी हैं, क्योंकि वो उतना अनाज नहीं उपजा पाते जिससे उनका खर्च चल सके. लेकिन ज्यादा MSP के कारण बाजार भाव बढ़ेगा, तो बतौर उपभोक्ता छोटे किसानों और कृषक मजदूरों पर भी इसका असर पड़ेगा. हो सकता है कि उनके भूखे मरने की नौबत आ जाए. देश के सिर्फ 6 फीसदी किसानों को ही MSP का फायदा मिलता है और उनमें भी करीब 80 फीसदी पंजाब और हरियाणा के किसान हैं. देश में अनाज के स्टोरेज का भी संकट अलग से है.
कॉस्ट बढ़ जाती है
एफसीआई को एमएसपी के ऊपर मंडी से गेंहू ख़रीदने के लिए 14 फ़ीसदी कॉस्ट बढ़ जाती है. जैसे मंडी टैक्स, आढ़ती टैक्स, रूरल डेवलपमेंट सेस, पैकेजिंग, लेबर, स्टोरेज आदि खर्च जुड़ जाता है. इसके बाद खरीद कीमत का 12 फ़ीसदी रकम उन गेहूं को बांटने में यहां एक जगह से दूसरे जगह ले जाने में ख़र्च होता है. जिसमें लेबर, लोडिंग-अनलोडिंग शामिल भी होता है. 8 फ़ीसदी होल्डिंग कॉस्ट यानी रखने का ख़र्च भी है. मतलब एफसीआई एमएसपी के ऊपर गेंहू ख़रीदने पर 34 फ़ीसदी और अधिक ख़र्च करती है. एक और समस्या है. एफसीआई के नियमों के मुताबिक़, कुल ख़रीद का 8 फ़ीसदी तक ख़राब पैदावार सरकार ख़रीद सकती है. यानी 8 फ़ीसदी गेहूं जो सरकार ख़रीदती है उसके पैसे भी देती है पर वो इस्तेमाल के लायक नहीं होता.
अमेरिका का एक उदाहरण , कैसे फेल हुआ जिमी कार्टर का एक फैसला
इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट में अमेरिका के एक उदाहरण से समझाया गया है कि किस तरह एमएसपी दी गई गारंटी कई अवांछित समस्याएं पैदा कर सकती हैं. अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर अपने कार्यकाल (1977-1981) में डेयरी फार्मर्स की आर्थिक दशा को सुधारने के लिए हर छह महीने में 6 सेंट पर गैलन के हिसाब से मूल्य बढ़ोतरी का ऐलान कर दिया. महंगे दूध की खपत हो सके इसलिए सरकार ने एक तयशुदा रेट पर चीज की खरीदारी सुनिश्चित कर दी. इसके बाद सारे डेयरी फार्म वाले चीज बनाकर अमेरिकी सरकार को बेचने लगे. नतीजा ये हुआ कि सरकार के पास चीज का पहाड़ों के ढेर बन गया. कार्टर सरकार ने करीब 2 बिलियन डालर डेयरी फार्मर के सपोर्ट में खर्च कर दिया. कार्टर के बाद रोनाल्ड रीगन अमेरिका के राष्ट्रपति बने उन्होंने हर छह महीने पर दूध के रेट बढ़ोतरी के आदेश को निरस्त कर दिया. यह एक सिंपल सा उदाहरण है कि कैसे एमएसपी की गारंटी से अनावश्यक परेशानियां सामने आ सकती हैं.
Rani Sahu
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