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वायु प्रदूषण से निपटने के मुद्दे पर केंद्र, दिल्ली और संबंधित सरकारों के रवैए को लेकर सर्वोच्च अदालत ने तल्ख टिप्पणियां की हैं।
वायु प्रदूषण से निपटने के मुद्दे पर केंद्र, दिल्ली और संबंधित सरकारों के रवैए को लेकर सर्वोच्च अदालत ने तल्ख टिप्पणियां की हैं। अदालत का यह कहना कि नौकरशाही निष्क्रिय और अकर्मण्य हो चुकी है, कोई गलत नहीं है। यह सिर्फ प्रदूषण से निपटने के मामले में ही नहीं, आमजन से सरोकार रखने वाले अधिकतर मामलों में नौकरशाही का जो रवैया देखने में आता है, वह कम हैरानी पैदा नहीं करता। काम और जिम्मेदारियों से बचने और इन्हें एक दूसरे पर डालने की प्रवृत्ति सरकारी तंत्र की कार्य प्रणाली का जैसे अभिन्न हिस्सा बन चुकी है।
अधिकारी फैसले करने में जिस तरह से बचते दिखते हैं, भले ही इसके कारण कुछ भी क्यों न हों, उससे तो यही संदेश जाता है कि नौकरशाही काम निपटाने में नहीं, बल्कि उसे टालने या लटकाए रखने में ज्यादा बेहतरी समझती है। वरना सर्वोच्च अदालत को यह कहने को क्यों मजबूर होना पड़ा कि नौकरशाही और सरकारें कोई फैसला करने के बजाय अदालत के निर्देश का इंतजार करती है और चाहती है कि फैसले अदालत करें। अगर सरकारी तंत्र चुस्ती से काम करे और अधिकारी जिम्मेदारियों को समझते हुए उनका निर्वहन करें तो उन पर उंगली उठे ही क्यों?
लेकिन यह पीड़ादायक ही है कि हमारी नौकरशाही जिस तरह की कार्य-संस्कृति में ढलती जा रही है, उसी का नतीजा है कि लोगों का सरकारी तंत्र पर से भरोसा उठने लगा है। गौरतलब है कि वायु प्रदूषण से जुड़े मामलों पर प्रधान न्यायाधीश की पीठ सुनवाई कर रही है। प्रदूषण के कारणों और इनसे निपटने के उपायों को लेकर अदालत केंद्र और दिल्ली सरकार से लगातार सवाल-जवाब कर रही है। इसी का नतीजा है कि अब जाकर सरकारें कुछ हरकत में आई हैं। सवाल तो इस बात का है कि अदालत के दबाव से ही सरकारें सक्रिय क्यों होती हैं।
प्रदूषण से निपटने के लिए जो कदम अदालत के निर्देशों के बाद उठाए जा रहे हैं, वे तो पहले भी उठाए जा सकते थे। आखिर यह तो पूछा ही जा सकता है कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों, राष्ट्रीय हरित पंचाट जैसे वैधानिक निकाय और पर्याप्त नियम-कानूनों के बावजूद प्रदूषण रोकने के उपाय पहले से क्यों नहीं किए जाते? क्यों समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं? अगर दिल्ली या पड़ोसी राज्यों में प्रदूषण मानकों का उल्लंघन करने वाली गतिविधियां हो रही हैं तो उन पर कार्रवाई की जिम्मेदारी किसकी बनती है? अगर मियाद पूरी कर चुके वाहनों को सड़कों पर दौड़ने दिया जा रहा है तो उसका जिम्मेदार किसे माना जाए?
प्रदूषण को लेकर सरकारें तब चेतती हैं जब साल के दो महीने अक्तूबर और नवंबर में हवा ज्यादा खराब होती है। इस समस्या को सबसे गंभीर मानते हुए अभी से ऐसे कदम उठाए जाने चाहिए ताकि साल भर बाद उनका असर दिखे। इसके लिए नौकरशाही को अपनी जड़ता तोड़ने की जरूरत है। याद किया जाना चाहिए कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान आक्सीजन की कमी के मुद्दे पर हम देख ही चुके हैं कि आक्सीजन निर्माण और आपूर्ति को लेकर नौकरशाही, केंद्र और दिल्ली सरकार किस तरह से एक दूसरे पर ठीकरे फोड़ते रहे और बेगुनाह नागरिक अस्पतालों में दम तोड़ते रहे। तब भी सर्वोच्च अदालत के दखल बाद ही आक्सीजन संकट दूर करने के प्रयास शुरू हुए थे। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज जो लोग जहरीली हवा में सांस ले रहे हैं, वे नौकरशाही की निष्क्रियता का ही खमियाजा भुगत रहे हैं।
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