सम्पादकीय

ऐसी हड़बड़ी क्यों

Subhi
22 Dec 2021 2:31 AM GMT
ऐसी हड़बड़ी क्यों
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विपक्ष के विरोध और उसकी ओर से व्यक्त की जा रही आशंकाओं के बीच जिस हड़बड़ी में चुनाव सुधार (संशोधन) विधेयक 2021 संसद के दोनों सदनों में पारित किया गया, वह अच्छी मिसाल नहीं पेश करता।

विपक्ष के विरोध और उसकी ओर से व्यक्त की जा रही आशंकाओं के बीच जिस हड़बड़ी में चुनाव सुधार (संशोधन) विधेयक 2021 संसद के दोनों सदनों में पारित किया गया, वह अच्छी मिसाल नहीं पेश करता। आधार नंबर को वोटर आईडी कार्ड से जोड़ने की बात जब से शुरू हुई है, तभी से इसके संभावित दुरुपयोग की आशंकाएं जताई जा रही हैं। इन्हीं आशंकाओं की वजह से इसका विरोध भी देखा जा रहा है। 2015 में चुनाव आयोग की तरफ से आधार डेटा के सहारे मतदाता सूची से फर्जी नाम हटाने और दोहराव मिटाने का एक पायलट प्रॉजेक्ट शुरू किया गया था। मगर सुप्रीम कोर्ट ने इस पहल पर रोक लगा दी थी। यह बात बार-बार स्पष्ट होती रही है कि आधार कार्ड का इस्तेमाल पते के सबूत के रूप तो किया जा सकता है, लेकिन इसे किसी की नागरिकता का प्रमाण नहीं करार दिया जा सकता।

हालांकि मौजूदा विधेयक में आधार नंबर को वोटर आईडी कार्ड से जोड़ने की व्यवस्था को ऐच्छिक रखा गया है और इसी आधार पर सरकार इसके विरोध को अनावश्यक बता रही है, लेकिन इससे उस हड़बड़ी का औचित्य नहीं साबित होता जो बिल पास करने में दिखाई गई है। राज्यसभा में इसे विपक्ष के वॉकआउट के बाद पारित किया गया। लोकसभा में भी इस पर ठीक से बहस नहीं हो सकी। विपक्षी सांसदों को संशोधन सुझाने का मौका नहीं मिला। कई नेता कहते पाए गए कि विपक्ष के 12 सांसदों को पूरे सत्र के लिए निलंबित करने का संभवत: यही उद्देश्य था कि राज्यसभा से यह बिल विपक्ष के विरोध के बावजूद आसानी से पारित करा लिया जाए। चुनाव सुधार की एक महत्वपूर्ण पहल को लेकर विपक्ष में इस तरह का अविश्वास बनने देना संसदीय लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।
दिलचस्प यह भी है कि कानून मंत्री ने विधेयक का समर्थन करते हुए विपक्षी सदस्यों की यह कहकर आलोचना की कि वे इस विधेयक को समझ ही नहीं पाए हैं। अगर इस आलोचना को सच मान लिया जाए, तब भी क्या सरकार के लिए यह जरूरी नहीं था कि ऐसे तमाम सदस्यों को विधेयक समझने का पूरा मौका देती, उनके साथ विस्तृत बातचीत और बहस चलाकर उन्हें पूरी जानकारी मुहैया कराती, उनकी आशंकाएं दूर करती? ऐसी ही हड़बड़ी में बनाए गए कृषि कानूनों ने सरकार को कितनी असुविधाजनक स्थिति में डाला और कैसे कृषि सुधार के अजेंडे को पीछे की ओर धकेल दिया, यह सब देख चुके हैं। खुद प्रधानमंत्री ने तीनों कानून वापस लेते हुए इस बात पर अफसोस जताया कि सरकार किसानों को समझा नहीं पाई। ऐसे में यह और ज्यादा जरूरी था कि चुनाव सुधार जैसे महत्वपूर्ण कदम पर सरकार सावधानी बरतती। संसदीय लोकतंत्र में असहमति के लिए तो हमेशा गुंजाइश रहती है, इसे हर कीमत पर बनाए भी रखना चाहिए, लेकिन संदेहों और आशंकाओं को पलने देना ठीक नहीं होता।


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