सम्पादकीय

ओवैसी को अपना नेता क्यों माने यूपी के मुसलमान?

Rani Sahu
3 Jan 2022 9:45 AM GMT
ओवैसी को अपना नेता क्यों माने यूपी के मुसलमान?
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ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी यूपी में 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा कर रहे हैं. वो मुसलमानों को उनके वोट के दम पर उपमुख्यमंत्री बनाने का ख़्वाब दिखा रहे हैं

यूसुफ अंसारी। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी यूपी में 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा कर रहे हैं. वो मुसलमानों को उनके वोट के दम पर उपमुख्यमंत्री बनाने का ख़्वाब दिखा रहे हैं. ओवैसी कहते हैं कि यूपी में मुसलमानों पर ज़ुल्म हो रहा है. इनके वोट पर राजनीति करने वाली सपा, बसपा और कांग्रेस जैसी पार्टियां ख़ामोश तमाश देख रही है. इसीलिए वो मुसलमानों का नेता बनने यहां आए हैं. अपनी हर रैली में ओवैसी मुसलमानों से अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को वोटने की अपील करते हैं. क्या मुसलमान ओवैसी को अपना नेता मांनेगे? मानेगें तो क्यों?

आज़ादी के बाद यूपी में हुए 17 विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते है कि यहां के मुसलमानों ने कभी किसी मुसलमान को अपना नेता नहीं माना. चाहे वो सूबे का हो या सूबे से बाहर का. सूबे और सूबे से बाहर के आधा दर्ज़न से ज़्यादा मुस्लिम नेताओं ने मुसलमानों को एकजुट करके एक बड़ी राजनीतिक ताक़त बनाने की कोशिश की. लेकिन सभी एक-दो चुनाव के बाद हार मान कर बैठ गए. कालांतर में ये तमाम नेता गुमनामी के अंधेरे में खो गए. यूपी का राजनीतिक इतिहास बताता है मुस्लिम नेताओं की रैलियों में मुसलमानों की भीड़ तो ख़ूब उमड़ती है. इनके जज्बाती भाषणों पर तालियां भी खूब बजती हैं. लेकिन इनको वोट देने से वो परहेज करते हैं. मतदान के वक़्त मुसलमान धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को ही तरजीह देता है.
डा.जलील फ़रीदी ने की पहली कोशिश
आज़ादी के बाद मुसलमानों का नेता बनने की पहली कोशिश डा.जलील फ़रीदी ने की थी. वो लखनऊ के रहने वाले थे. आज़ादी के आंदोलन से जुड़े थे. आज़ादी के बाद समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे. 1968 में उन्होंने मुस्लिम मजलिस पार्टी बनाई. 1969 में 2 सीटों पर चुनाव भी लड़ा. दोनों पर ही उनके उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गई. उन्हें सिर्फ 3,400 वोट मिले. 1974 में चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल के टिकट पर उनके 12 मुस्लिम विधायक जीते थे. डॉ. फ़रीदी ने उस वक्त राजनीतिक दलों के घोषणापत्र को प्रभावित किया था. ये उनकी बड़ी कामयाबी थी. 1974 में ही उनकी मौत के बाद उनकी पार्टी और उनका आंदोलन दम तोड़ गया. डॉ. फरीदी ने ही यूपी में पहली बार हिंदू-मुस्लिम पिछड़ी जातियों के साथ दलितों को मिलाकर बहुजन राजनीति की विचारधारा की नींव रखी थी. बाद में इसी बुनियाद पर कांशीरीम ने बसपा की इमारत खड़ी की.
मुस्लिम लीग ने भी आज़माई क़िस्मत
1974 में मुस्लिम लीग ने यूपी में एंट्री मारी. केरल में गठबंधन सरकार का हिस्सा रही और एक बार मुख्यमंत्री बना चुकी मुस्लिम लीग के नेताओं सुलेमान सेत और जीएम बनातवाला को उत्तर प्रदेश की ज़मीन सियासी तौर पर काफ़ी उपजाऊ लगी. लिहाज़ा उन्होंने यूपी के मुसलमानों का नेता बनने का ख़्वाब देखा. साल 1974 में मुस्लिम लीग ने 54 सीटों पर चुनाव लड़ा. महज़ एक सीट जीती. 43 सीटों पर उसके उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई. उसे 3,78,000 वोट मिले. उसके बाद किसी भी चुनाव में उसका कोई उम्मीदवार नहीं जीता. मुस्लिम लीग ने 2007 तक चुनाव लड़ा. लेकिन उसके उम्मीदवीरों को कभी सम्मानजनक वोट नहीं मिले. हर चुनाव में सभी उम्मीदवारों की जमानत ज़ब्त होती रही. 2002 में उसने 18 सीटों पर चुनाव लड़ा था. 2007 में सिर्फ़ दो सीटों पर ही चुनाव लड़ा। उसके बाद उसने यूपी में चुनाव ही लड़ना छोड़ दिया.
बसपा से निकाले गए डॉ. मसूद भी रहे नाकाम
1995 में डॉ. मसूद ख़ान ने मुसलमानों को एकजुट करने का बीड़ा उठाया. डॉ. मसूद बीजेपी के समर्थन से बनी मायावती की पहली सरकार में शिक्षा मंत्री थे. मायावती ने उन्हें बहुत बेइज्जत करके निकाला था. इसी खुन्नस में उन्होंने नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी का गठन किया. जौनपुर के विधायक अरशद खान भी बसपा छोड़कर उनके साथ आ गए. 2002 में नेलोपा ने 130 सीटों पर चुनाव लड़ा और एक सीट जीती. उसके 126 उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी. उसे 3,81,300 वोट मिले थे. 2007 के चुनाव में इसने सिर्फ 10 सीटों पर चुनाव लड़ा और सभी पर ज़मानत ज़ब्त हुई. उसे सिर्फ 7,750 वोट मिले. बाद में नेतृतव को लेकर डॉ. मसूद और अरशद ख़ान के बीच विवाद हुआ. पार्टी दो धड़ों में बंट गई. थक हारकर डॉ. मसूद पहले कांग्रेस में गए, फिर रालोद में. आज वो गुमनामी के अंधेरे में खो चुके हैं. अरशद ख़ान समाजवादी पार्टी के महासचिव हैं.
कभी इमाम बुख़ारी भी बनना चाहते थे मुसलमानों के नेता
1977 के बाद दिल्ली की जामा मस्जिद मुस्लिम राजनीति का केंद्र बन गई थी. इसके इमाम अब्दुल्ला बुख़ारी हर चुनाव में किसी न किसी पार्टी के हक़ में फ़तवा जारी करते थे. तब माना जाता था कि बुखारी जिसके हक़ में फ़तवा देदें, मुसलमान उसे ही वोट देंगे. बाद उनके बेटे अहमद बुख़ारी ये भूमिका निभाने लगे. साल 2007 के विधानसभा चुनाव में अहमद बुख़ारी ने यूपी मुसलमानों का नेता बनने का ख्वाब देखा. कई छोटी पार्टियों को मिलाकर उत्तर प्रदेश यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट बनाया. इसने 54 सीटों पर चुनाव लड़ा. एक सीट जीती. 51 सीटों पर ज़मानत ज़ब्त हुई. उसे 1,80,327 वोट मिले. जीतने वाले उसके एकमात्र विधायक हाजी याकूब क़ुरैशी ने नतीजे आते ही मायावती की शरण ले ली थी. इस शर्मनाक हार के बाद बुख़ारी का यूपी के मुसलमानों का नेता बनने का ख़्वाब हमेशा के लिए टूट गया. इस के बाद बुख़ारी किसी भी चुनाव में सक्रिय नहीं रहे.
डॉ. अयूब, अंसारी बंधु और मौलाना रशादी
2012 के विधानसभा चुनाव से पहले मुसलमानों के वोट के कई हक़दार खड़े हो गए थे. कभी नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी के उपाध्यक्ष और पार्टी को आर्थिक मदद करने वाले डॉ. अय्यूब सर्जन ने 2008 में पीस पार्टी बनाई. 2012 के चुनाव से पहले बाहुबली माने जाने वाले मुख्तार अंसारी और उनके भाई अफ़जाल अंसारी ने क़ौमी एकता दल बना लिया. वहीं आज़मगढ़ के मौलाना आमिर रशादी ने राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल बनाई. पूर्वांचल के ये नेता पूरे पूरे प्रदेश के मुसलमानों के नेता बनने का ख्वाब देख रहे थे. अंसारी बंधु तो इस दौड़ से बाहर हो चुके हैं, लेकिन डॉ. अयूब और मौलाना रशादी अभी भी मैदान में डटे हुए हैं. कभी एक-दूसरे के फूटी आंख नहीं सुहाने वाले ये दोनों नेता इस चुनाव में गठबंधन करके अपना सियासी वजदूद बचाने की कोशिश कर रहे हैं.
2012 के चुनावों पीस पार्टी ने 208 सीटों पर चुनाव लड़कर 4 सीटें जीती. वे तीन सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी. उसे कुल 17,84,258 वोट मिले थे. क़ौमी एकता दल भी 43 सीटें लड़कर 2 सीटें जीतने में कामयाब रहा. लेकिन राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल का खाता तक नहीं खुला. चुनाव के बाद अंसारी बंधुओं ने तो क़ौम की क़यादत करने का ख्वाब छोड़कर मायावती की शरण ले ली थी. अपनी पार्टी का बहुजन समाज पार्टी में विलय कर दिया था. 2017 के विधानसभा चुनाव में पीस पार्टी और राष्ट्रीय उलमा कौंसिल का डिब्बा पूरी तरह गोल हो गया. दोनों में से किसी का खाता तक नहीं खुला. इस बार गठबंधन के सहारे खाता खोलने की कोशिशो में जुटे हैं.
अब ओवैसी हैं मैदान में
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हैदराबाद के सांसद और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी पूरे देश के मुसलमानों के नेता बनने की कोशिश में लगे हैं. उत्तर प्रदेश के मुसलमानों का नेता बनने के लिए उन्होंने 2017 के विधानसभा चुनाव में भी क़िस्मत आज़माई थी. उनकी पार्टी ने तब 38 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था. लेकिन एक को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी. एकमात्र संभल विधानसभा सीट पर उनकी पार्टी के उम्मीदवार को 60 हज़ार से ज्यादा वोट मिले थे. उम्मीदवार समाजवादी पार्टी के मौजूदा सांसद शफ़िक़ुर्रहमान बर्क़ के बेटे थे. इस नाते उनका व्यक्तिगत जनाधार इस इलाके में है. लिहाज़ा इतने वोट हासिल करने में ओवैसी की पार्टी का कोई ख़ास योगदान नहीं माना जा सकता. आगामी चुनाव के लिए ओवैसी पूरे दमख़म के साथ 100 सीटो पर ताल ठोख रहे हैं.
क्या कामयाब होंगे ओवैसी?क्या ओवैसी अपने मक़सद में कामयाब होंगे? इस सवाल का जवाब वैसे तो भविष्य के गर्भ में हैं. लेकिन पिछले नेताओं र उनकी पार्टियो के हुए हश्र से अंदाज़ा तो लगाया जा सकता है. दरअसल ओवैसी उत्तर प्रदेश में नाकाम हो चुके प्रयोगों को ही दोहरा रहे हैं. लिहाज़ा इनका अंजाम भी पुराने प्रयोगों की तरह होना है. उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने उनका का नेता बनने की कोशिश करने वाले मुस्लिम नेताओं को नकार कर हमेशा धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व को तरजीह दी है. आज़ादी के बाद 20 साल तक कांग्रेस मुसलमानों की पहली पसंद रही. उसके बाद कांग्रेस से लोगों का मोहभंग होना शुरू हुआ. कांग्रेस के विकल्प में जो भी पार्टी सामने आई मुसलमानों का रूझान भी उसी की तरफ़ होता चला गया. आपातकाल के बाद उत्तर प्रदेश में बहुजन राजनीति की शुरुआत करने वाले कांशीराम और मायावती को मुसलमानों ने नेता माना. वहीं समाजवादी आंदोलन को आगे बढ़ाने वाले मुलायम सिंह यादव पर मुसलमान बरसों भरोसा करते रहे. पश्चिम उत्तर प्रदेश में पहले चौधरी चरण सिंह को मुसलमानों ने नेता माना, उनके बाद उनके बेटे अजित सिंह पर भरोसा किया और अब जयंत पर उनका भरोसा है.
आज़ादी के बाद हुए तमाम विधानसभा चुनावों के नतीजों का विश्लेषण करने पर ये बात साफ़ हो जाती है कि यूपी के मुसलमान कभी किसी मुस्लिम नेतृत्व वाली पार्टी के पीछे नहीं चले. मुसलमान ऐसी पार्टियों की सभाओं में उनके जज्बाती भाषण सुनकर तालियां तो ख़ूब पीटते रहे. लोकिन वोट करते वक्त उनकी पसंद धर्मनिरपेक्ष दल ही रहे. ऐसा लगता है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में भी यही कहानी दोहराई जाएगी. ओवैसी का नेतृत्व क़ुबूल करने के बजाय यूपी के मुसलमान सपा, बसपा, कांग्रेस और रालोद को ही पसंद करेंगे.
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