सम्पादकीय

आज जेपी को क्यों याद करें

Deepa Sahu
10 Oct 2021 6:37 PM GMT
आज जेपी को क्यों याद करें
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नायकों को याद करने का मनोविज्ञान अब बदल गया है।

हरजिंदर, वरिष्ठ पत्रकार। नायकों को याद करने का मनोविज्ञान अब बदल गया है। कुछ को रस्म अदायगी के लिए याद किया जाता है, खासकर जब इसके लिए सरकारी आयोजनों की परंपरा हो। और कुछ को इसलिए याद किया जाता है कि धर्म, जाति या संप्रदाय के लिए उनकी उपयोगिता अब भी कुछ बची हुई है; खासकर वे नायक, जिनके नाम पर अब भी वोट हासिल किए जा सकते हैं या राजनीतिक गोलबंदी हो सकती है। अब हम किसी को इसलिए याद नहीं करते कि उनसे कोई प्रेरणा ली जा सकती है। वैसे, आज नायकों से प्रेरणा लेना भी कौन चाहता है? अचानक ही हम एक ऐसे दौर में पहुंच गए हैं, जिसमें गांधी जयंती पर नाथूराम गोडसे को याद करने वाले लगातार बढ़ रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू और खासकर उनके योगदान को भुलाने की तो बाकायदा संगठित कोशिशें तक होती दिख रही हैं।

ऐसे में, भला जयप्रकाश नारायण को कौन याद करेगा? उन्हें याद करने वाले बहुत कम दिखाई देते हैं। जितने हैं, वे भी लगातार कम होते जा रहे हैं। 11 अक्तूबर को उनकी जयंती कब आती है और कब चली जाती है, अक्सर इसका पता भी नहीं चलता। अभी तीन दिन पहले, 8 अक्तूबर को उनकी बरसी थी, तब भी उन्हें कितने लोगों ने याद किया! जबकि उनके पूरे जीवनकाल को देखें, तो ऐसे बहुत सारे कारण हैं, जिनके चलते आज की मुश्किलों के बीच उन्हें याद करना शायद सबसे जरूरी है। लेकिन जब हम लोगों को उनकी भूमिका के लिए या आज के दौर में उनकी प्रासंगिकता के लिए याद नहीं करके, उनकी उपयोगिता के लिए याद करने लगते हैं, तो ऐसे लोगों की फेहरिस्त में जयप्रकाश नारायण के लिए कोई जगह नहीं बनती।
फिलहाल, हम आजादी के बाद के दौर की बात करें, तो कई बार आश्चर्य होता है कि वह ऐसा कैसे कर सके? पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और फिर प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद ऐसे कई लोग थे, जो इस पद के लिए जयप्रकाश नारायण को सबसे उपयुक्त मानते थे, लेकिन वह प्रधानमंत्री पद की रेस में कहीं नहीं थे। उस समय जो राजनीतिक समीकरण थे, उनमें वह प्रधानमंत्री बन पाते या नहीं, यहां यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितना यह तथ्य कि जेपी ने न तो ऐसी कोई इच्छा जताई, और न ही वह ऐसे किसी सक्रिय प्रयास का हिस्सा बने। एक ऐसे दौर में, जब तमाम छोटे-बड़े राजनेता खुलेआम कहते हैं कि वे सत्ता के लिए ही राजनीति में आए हैं, तब जेपी जैसे व्यक्तित्व की कल्पना करना भी मुश्किल है।
इसका यह अर्थ भी नहीं कि जेपी ने पूरी तरह संन्यास लेकर राजनीति से अपने आपको दूर कर लिया था। बल्कि, जितने बडे़ राजनीतिक काम जेपी ने उस दौर में किए, उतने किसी दूसरे नेता ने नहीं किए। जब भी देश के सामने कोई बड़ी समस्या खड़ी हुई, उसके समाधान के लिए वह हमेशा सामने आए। और वह भी बिना किसी राजनीतिक गुणा-भाग की परवाह किए। चाहे वह नक्सल समस्या हो या नगालैंड का मसला, जेपी ने उनके समाधान के सबसे गंभीर प्रयास किए। इसी तरह, कश्मीर समस्या के समाधान में भी वह आगे आए। उनके निजी राजनीतिक स्वार्थ नहीं थे, इसलिए वह सबके लिए विश्वसनीय थे, उनकी बात सभी पक्षों ने सुनी भी। आंदोलनकारियों और सरकार के बीच पुल बनाने का काम जितनी अच्छी तरह से उन्होंने किया, वैसा उनके बाद कोई और न कर सका। आज जब किसान आंदोलन एक वर्ष पूरा करने की तरफ बढ़ रहा है, जेपी को याद करना जरूरी हो जाता है।
चंबल की डाकू-समस्या के समाधान का सबसे गंभीर प्रयास भी जेपी ने ही किया। उन्होंने उन नामी-गिरामी डाकुओं तक पहुंच बनाई, जो बहुत खूंखार माने जाते थे। जिनके नाम से ही आस-पास के इलाकों के लोग थर्रा जाते थे, उन्हें भी जेपी की बातें भरोसेमंद लगीं और वे समर्पण के लिए तैयार हो गए। इससे भी बड़ी बात यह थी कि जेपी पूरे देश को यह समझाने में कामयाब रहे कि जिसे हम डाकू-समस्या कहते हैं, वह सिर्फ अपराध का मामला नहीं है, इसके पीछे सामाजिक और आर्थिक कारण हैं, जिन्हें हल किए बिना समस्या को निर्मूल करने की बात नहीं सोची जा सकती।
इसके बाद, सन 1974 तक आते-आते हमें एक ऐसे जयप्रकाश नारायण मिलते हैं, जिन्होंने देश की एक पूरी नौजवान पीढ़ी के सोचने और समझने का तरीका बदल दिया। शुरुआत एक छोटी सी समस्या से हुई। गुजरात के एक विश्वविद्यालय में हॉस्टल की फीस और मेस का चार्ज बढ़ा दिया गया। छात्रों ने इसके विरोध में हड़ताल कर दी। जल्द ही यह हड़ताल बाकी जगह भी फैलने लगी। अब बात सिर्फ इन्हीं दो मुद्दों तक सीमित नहीं रही। उसमें तमाम तरह के व्यापक मसले भी जुड़ते गए। गुजरात से निकलकर जब यह आंदोलन बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में फैलने लगा, तो कई तरह की आशंकाएं सिर उठाने लगीं। छात्र-आंदोलन के इसके पहले के कुछ अनुभव बहुत अच्छे नहीं थे, जिनसे यह एक आम धारणा बन गई थी कि ऐसे आंदोलनों की अंतिम परणति हिंसा में होती है। यह वह धारणा है, जो प्रशासन के लिए भी काफी मुफीद होती है।
लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। जेपी आगे आए और पूरे आंदोलन की दिशा ही बदल गई। अब यह आंदोलन सिर्फ छात्रों की मांगों को लेकर नहीं था, वह सामाजिक परिवर्तन का आंदोलन बन चुका था। इन नौजवानों का एक नारा था- जात-पात तोड़ दो, तिलक-दहेज छोड़ दो। लेकिन जल्द ही संपूर्ण बदलाव की इस बयार को आपातकाल से कुचल दिया गया।
आपातकाल खत्म हुआ, तो प्राथमिकताएं बदल गई थीं। सबसे बड़ी प्राथमिकता सत्ता-परिवर्तन की थी और इसी क्रम में जनता पार्टी की सरकार बनी, जो एक तरह से बहुदलीय सरकार थी। वह जेपी ही थे, जो इन दलों को आपस में जोड़ रहे थे। जेपी चाहते, तो इसमें एक बड़ी भूमिका ले सकते थे, लेकिन वह इससे दूर रहे। उन्होंने इस सरकार का रिमोट कंट्रोल बनने की कोशिश भी नहीं की। उनके मूल्य और प्रतिबद्धताएं इसकी इजाजत नहीं देती थीं। आज अगर हम मूल्यों और प्रतिबद्धताओं का कोई संग्रहालय बनाएं, तो आजादी के बाद उसमें सबसे बड़ा नाम जयप्रकाश नारायण का ही होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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