- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- क्यों जरूरी है...
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। जब भारत में बहस प्रगतिशील मुद्दों पर होती थी, तब इच्छा-मृत्यु का प्रश्न राष्ट्रीय एजेंडे में आया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला भी दिया था। मगर उसके बाद देश की दिशा बदल गई। नीर-क्षीर विवेक एक दुर्लभ वस्तु बन गया। इस दौर में किसी विषय पर तसल्ली से उसके गुण-दोष की चर्चा करना दूभर होता गया है। बहरहाल, अगर प्रगतिशील सोच प्रभावी हो, तो समाज किसी दिशा में बढ़ता है, इसकी एक मिसाल हाल में न्यूजीलैंड में देखने को मिली है। वहां की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न उदारवादी नेता हैं। उन्होंने अपने समाज को जोड़ने, मुसीबतों को संभावने और समाज को आगे ले जाने के ऐसे उदाहरण पेश किए हैं कि एक छोटे देश की नेता होकर भी वे आज दुनिया में चर्चित हैं। हाल ही में उनके नेतृत्व में उनकी लेबर पार्टी जबरदस्त चुनावी जीत मिली। सत्ता में वापसी के बाद उन्होंने अपने प्रगतिशील एजेंडे पर अमल शुरू किया। गौरतलब है कि इच्छा- मृत्यु का अधिकार होना चाहिए या नहीं, इस मुद्दे पर जनमत संग्रह देश के आम चुनाव के साथ ही करा लिया गया था। पिछले हफ्ते जनमत संग्रह के वोटों की गिनती से पता चला कि 65।2 फीसदी लोग यूथेनेसिया यानी इच्छा-मृत्यु के पक्ष में हैं, जबकि 33।8 फीसदी लोग इसके खिलाफ थे।
अब सरकार ने घोषणा की है कि वह जनमत संग्रह के नतीजों का आदर करते हुए उचित कानून बनाएगी। कोशिश होगी कि 2021 में ये कानून लागू हो जाए। यानी न्यूजीलैंड जल्द ही उन मुट्ठी भर देशों में शामिल हो जाएगा, जो डॉक्टर की मदद से इच्छामृत्यु की अनुमति देते हैं। न्यूजीलैंड में पांच साल से इस सवाल पर बहस चल रही थी। नए कानून के समर्थकों का कहना है कि अति दुखदायी मौत का सहन करने वाले लोगों के पास अब अपनी इच्छा के साथ गरिमामय ढंग से मृत्यु का वरण कर सकेंगे। इच्छा मृत्यु को सबसे पहले 2002 में नीदरलैंड्स में वैध बनाया गया था। उसके बाद उसी साल बेल्जियम में भी इसे कानूनी घोषित कर दिया। 2008 में लग्जमबर्ग, 2015 में कोलंबिया और 2016 में कनाडा ने भी इसे कानूनी रूप दे दिया। यह अमेरिका के भी कई राज्यों में वैध है। यूथेनेसिया को लेकर पुर्तगाल की संसद में भी बहस चल रही है। कुल मिलाकर कुछ परिस्थितियों में मृत्यु के वरण को आसान बनाना अब एक मान्य विचार होता जा रहा है।