सम्पादकीय

किरण मजूमदार शॉ ने बेंगलुरु के बारे में जो चिंताई है, उस पर मंथन करने की जरूरत क्यों है

Gulabi Jagat
5 April 2022 7:00 AM GMT
किरण मजूमदार शॉ ने बेंगलुरु के बारे में जो चिंताई है, उस पर मंथन करने की जरूरत क्यों है
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पैनिक बटन वाली जो बात हेडलाइन में आनी चाहिए थी
संजय झा.
पैनिक बटन वाली जो बात हेडलाइन में आनी चाहिए थी, उसे एक तरीके से सामान्य कर दिया गया है. यहां मैं भारत में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण (Communal Polarization) के मुद्दे की बात कर रहा हूं, जो सत्ताधारी सरकार बीजेपी (BJP) के लिए अपने राजनीतिक अस्तित्व का मूल कारण है. 2014 से पहले जब भी धार्मिक मान्यताओं पर अपमानजनक टिप्पणियां होती थीं तो इन पर कुछ चिर-परिचित अंदाज में बातचीत की जाती थी, इसमें या तो कहीं माहौल पर वास्तविक चिंता झलकती थी या फिर बौद्धिक तर्क और कुतर्क होते थे. यानी ऐसे विषयों पर बातचीत हमेशा होती रहती थी.
देश की बड़ी भगवा पार्टी का मिजाज तब भी ऐसे ही कट्टर था, लेकिन विपक्ष में होने की वजह से ये एक दायरे को पार नहीं कर पाती थी. मुख्यधारा के मीडिया ने भी आमतौर पर उनके इस चरमपंथ को हाइलाइट नहीं किया जिससे उनकी ओर से की जाने वाली हर जोरदार अपील का प्रभाव सीमित ही रहा. लेकिन 2014 में बीजेपी की भारी जीत, और फिर 2019 में विपक्ष के दोबारा सफाए ने माहौल को पूरी तरह बदल दिया.
बेंगलुरु के बारे में शॉ की स्पष्ट चिंता पर गहरे मंथन की जरूरत है
2015 में मोहम्मद अखलाक नाम का एक शख्स मॉब लिंचिंग की भयावह छवि बन गया था. इस घटना पर पूरा देश स्तब्ध था, तो सामान्य संवेदनाओं वाले अधिकतर इंसान इस खौफनाक मंजर को नर्क जैसे हालात ही मान रहे थे. लेकिन आज इस तरह की भीषण हत्याओं पर क्षण भर के लिए ही ध्यान जाता है. क्योंकि भारत बदल गया है. और यह तेजी से चिंताजनक रूप से बदल रहा है, हमारे धार्मिक जुड़ाव को हमारे सामाजिक तानेबाने की प्राथमिक परिभाषा बनाया जा रहा है. कुछ लोगों का रोष जब किसी की मौत की वजह बन जाए तो हमें रुक कर सोचने की जरूरत है, न कि बड़े बड़े बयान देने की. अगर ऐसा हो रहा है तो मान लें कि कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है.
पूरब की सिलिकॉन वैली के भविष्य पर बायोकॉन की कार्यकारी अध्यक्ष किरण मजूमदार शॉ द्वारा व्यक्त की गई आशंकाओं को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. जिस तरह कर्नाटक में दमन के मनहूस बादल छा रहे हैं, उससे उनके शब्द इस क्षेत्र में विवेक और अच्छाई की वापसी की पुरजोर अपील ही लगती है. समाज स्थायी इमारतों की तरह नहीं होता है, यह बारहमासी रूप से विकसित होता है और इसके पास ढहकर फिर से ढलने की एक असाधारण प्रवृत्ति होती है. अपने गृह शहर बेंगलुरु के बारे में शॉ की स्पष्ट चिंता पर गहरे मंथन की जरूरत है.
कर्नाटक में अगले साल की दूसरी तिमाही में चुनाव होने हैं. और शायद इसी वजह से वहां सांप्रदायिक भावनाओं को भड़का कर और ज्वलनशील बनाया जा रहा है. बीजेपी इस लोकप्रिय कहावत पर चलती है कि अगर कुछ टूटा नहीं है तो उसे ठीक करने की जरूरत भी नहीं है. हिंदुत्व वर्चस्व, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा का राजनीतिक खाका एक सफल चुनावी फॉर्मूला है जो उनके लिए चुनावों में बेहतरीन रूप से काम कर रहा है. ऐसे में वो इसे क्यों बदलना चाहेंगे?
हमने भगवा रणनीतियों का एक पूरा पिटारा देखा है
इतना ही नहीं, अपने इस एजेंडे में उन्होंने राज्य कल्याण की रिटेल मार्केटिंग – करदाताओं का पैसा होने के बावजूद जिसे बीजेपी की धर्मार्थ उदारता के रूप में बेचा जाता है – के साथ और लुभावना बनाया है. 'आप ने मेरा नमक खाया है या नहीं?' – उत्तर प्रदेश में जोर शोर से ये शब्द गूंजे थे. मैंने अयोध्या के निवासी, ओबीसी श्रेणी के एक हिंदू से पूछा – बीजेपी इतनी आसानी से फिर से क्यों जीत गई? उन्होंने कहा, 'मोदी जी ने मुफ्त राशन और सिलेंडर दिए.' इस पर मैंने पूछा, 'लेकिन आपका 23 वर्षीय बेटा अभी भी बेरोजगार है, आपके चाचा की कोविड से मृत्यु हो गई, आप सैकड़ों मील पैदल चलकर घर पहुंचते हैं और बुनियादी जरूरतों के दाम आसमान छू रहे हैं'. उसने मुझे हैरानी और आश्चर्य से देखा और बोला – 'वह तो पहले भी था'.
जब आबादी को उनके धार्मिक मूल के कारण श्रेष्ठ महसूस कराया जाता है, तो इससे वह जीवन भर अपने सामने खड़ी समस्याओं को बड़ा नहीं मानती और उसी सोच में खुश रहती है – इससे आर्थिक तंगी ज्यादा परेशान नहीं करती, तार्किक आधार पर ये सही लगने लगती है और सत्ता के नशे के आगे यह छोटा सा समझौता लगता है. प्रभुत्व. स्वामित्व. 'अन्य' को हमारी तरह ही सोचना और आचरण करना चाहिए. कर्नाटक इन दिनों इन्ही बाइनरी अभिव्यक्तियों को देख रहा है. कोरोना महामारी के बाद तकनीक की बड़ी दुनिया में अपने राज्य या शहर को इस तरह की बातों के बहकावे में आते देखकर शॉ का चिंतित होना लाजमी है. वह शायद इस बात से भी अवगत हैं कि एक खंडित समाज मानवीय विकास में कभी भी ऊंचा नहीं उठ सकता है; आखिर दोनों विपरीत रूप से संबंधित जो हैं.
हाल ही में, हमने भगवा रणनीतियों का एक पूरा पिटारा देखा है. हमने देखा कि कैसे हिजाब विवाद को बड़ी चतुराई से अंजाम दिया गया. इसने जनता की कल्पनाओं पर इस तरह कब्जा जमा लिया कि यह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बीच में भी एक बड़ा मुद्दा बन का उभरा. मीडिया ने भी हिंदू-मुस्लिम द्वंद्व को प्रमुखता से दिखाया. इससे यही पता लगता है कि मानवीय कमजोरियों को भुनाते हुए एक भावनात्मक कथा बनाना कितना आसान होता है.
शॉ ने जो चिंता जताई है, वो दक्षिणपंथी पार्टी को चुभ गई है
यही कारण है कि गंभीर शासन विफलताएं, बेरोजगारी, मुद्रास्फीति, लोकतांत्रिक अवसाद, कोविड कुप्रबंधन, दिवालिया व्यवसाय, ग्रामीण संकट जैसे मुद्दे आसानी से पृष्ठभूमि में जाकर फीके पड़ जाते हैं. इसलिए बीजेपी को उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है. उसके पास एक जादू का फॉर्मूला है जो अक्षमता, घोर पूंजीवाद, असफल वादों और ढुलमुल शासन जैसी तमाम कमियों को मात देता है. निस्संदेह एक कमजोर कांग्रेस के नेतृत्व में विलुप्त होने की कगार पर खड़ा विपक्ष बीजेपी की जीत के पीछे एक और फैक्टर है.
जब हम ये लेख लिख रहे हैं, उस समय मुस्लिम व्यापारियों को मंदिर परिसर के बाहर अपने छोटे व्यवसायों के संचालन से प्रतिबंधित करने पर शॉ ने जो चिंता जताई है, वो दक्षिणपंथी पार्टी को चुभ गई है. इसके लिए उनको बीजेपी के जोसेफ गोएबल्स के नेतृत्व में इंटरनेट पर ट्रोल किया जा रहा है. इसके अलावा धर्मांतरण विरोधी कानून भी बनाया गया है. अपमानजनक होने के लिए जानी जाने वाली मुखर आवाजें पारंपरिक मदरसों के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रही हैं. और अब तो हलाल मांस भी कर्नाटक की राजनीतिक शब्दावली में प्रवेश कर गया है. सत्तारूढ़ दल विभाजनकारी विषयों की एक बड़ी संख्या को उठाता जा रहा है जो इस बार की गर्मी में सांप्रदायिक तापमान को बढ़ाते रहेंगे. यह सब क्लिकबेट सामग्री है और जो सामने आया है, वो अभी तक सिर्फ एक टीज़र ट्रेलर ही है.
कर्नाटक बीजेपी सरकार पर वैसे भी '40 प्रतिशत सरकार' होने का आरोप लगाया जाता है. जाहिर तौर पर यह भ्रष्टाचार का रेट कार्ड है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि इससे मंत्री पद पर आसीन लोगों को कोई चिंता होती होगी. उनको तो बस राज्य के 40 पर्सेंट हिंदू वोट्स (राज्य की आबादी का 84 फीसदी) से मतलब है. बहुमत तुष्टीकरण, कोई भी? बीजेपी के लिए सत्ता जीतना कभी इतना आसान नहीं था. लेकिन इस तरह तो भारत विनाश की ओर जाती एक खतरनाक सड़क की ओर जा रहा है.
(लेखक कांग्रेस पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं, यहां व्यक्त किए गए उनके विचार व्यक्तिगत हैं.)
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