सम्पादकीय

यह दुनिया इतनी बेबस क्यों है?

Rani Sahu
28 Aug 2021 6:49 PM GMT
यह दुनिया इतनी बेबस क्यों है?
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मुनव्वर राणा नामचीन शायर हैं। उनकी शायरी का मैं भी मुरीद रहा हूं, लेकिन पिछले कुछ सालों में उन्होंने जिस तरह जहर-बुझे बयान दिए हैं

शशि शेखर। मुनव्वर राणा नामचीन शायर हैं। उनकी शायरी का मैं भी मुरीद रहा हूं, लेकिन पिछले कुछ सालों में उन्होंने जिस तरह जहर-बुझे बयान दिए हैं, वे मुझे चौंकाते और डराते हैं। इतिहास गवाह है कि जब बुद्धिजीवी विषवमन पर उतर आते हैं, तब समय और समाज पर सांघातिक चोट पहुंचती है। इकबाल, जो हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानीयत के मकबूल शायर थे, उन्होंने ही भारत विभाजन के सपने को हवा दी थी। उनसे पहले इंग्लैंड में रहने वाले चौधरी रहमत अली ने 'पाकिस्तान' का नारा उछाला जरूर, मगर उस पर अवाम ने ध्यान नहीं दिया था। वह इकबाल ही थे, जिनकी पेशगोई ने 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा' को दो टुकड़ों में तोड़कर रख दिया। हम उसका दंश आज तक भोग रहे हैं।

यही वजह है कि जब खुद को मुसलमानों का रहनुमा कहने वाले एक सांसद जाने-अनजाने तालिबान की तुलना भारत के स्वतंत्रता-संग्राम सेनानियों से कर डालते हैं या अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक सदस्य तालिबान की तारीफ करते हैं, तो मुझे अतीत में बोए गए बबूलों में नई कोपलें फूटती नजर आती हैं। तालिबान अफगानिस्तान में जो करें सो करें, लेकिन यह सच है कि इन लोगों की अर्थहीन बयानबाजी भारतीय समाज की बंद पड़ी दरारें खोलने का दुष्कृत्य कर सकती है। इससे मुस्लिम ही नहीं, बल्कि अन्य तबकों के फिरकापरस्त तत्वों को भी फलने-फूलने का मौका मिलेगा। यह भारत जैसे चौतरफा चुनौतियों से घिरे देश के लिए अच्छा नहीं है।
तालिबान ने सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि समूची दुनिया को सकते में डाल दिया है। वे दावे-वायदे कुछ भी करें, पर हमें भ्रमित होने के बजाय उनके अतीत को याद करना होगा। साल 1996 में तालिबानी हुकूमत शुरू होते ही कश्मीर में कई नागरिकताओं के आतंकवादी प्रकट होने लगे थे। बात यहीं तक सीमित नहीं रही। 24 दिसंबर,1999 को भारतीय विमान का अपहरण कर कंधार ले जाया गया। उन त्रासदी भरे पलों में ऐसा बहुत कुछ हुआ, जो आंखें खोलने वाला था। वह विमान कंधार की हवाई पट्टी पर 150 से भी अधिक घंटे खड़ा रहा था। इस दौरान अचानक ही तालिबान के कुछ अनाम प्रवक्ता प्रकट हो गए थे, जो भारत में उभरते निजी टेलीविजन समूहों को 'फोन-इन' दे रहे थे। वे कौन लोग थे? तय था, यह सब कुछ आईएसआई का रचा हुआ खेल था, पर भारतीय अवाम को इस तथ्य का पता तब लगा, जब हमारे विदेश मंत्री जसवंत सिंह 31 दिसंबर, 1999 को दहशतगर्दों और नोटों से भरे तथाकथित बक्सों को लेकर कंधार के लिए रवाना हुए।
अफसोस, अमेरिका और पश्चिम तब भी तंद्रा में थे। उन्हें शायद यह सब कुछ असभ्य और बर्बर लोगों की आपसी लड़ाई लग रहा था। काश, वे तभी सजग हो गए होते! उनकी आंखें तो 9/11 के हमले के बाद खुलीं। उस वक्त अमेरिका ने अपने आस्तीन के नागों से मुक्ति पाने के लिए अफगानिस्तान पर हमला किया था। आज वह उसी नागदंश से बचने के लिए मुंह चुराता हुआ वापस लौट गया है। जो झांसे में हैं, वे जान लें, तालिबान अब पहले से ज्यादा ताकतवर और बेखौफ हैं। आने वाले दिनों में अफगानिस्तान एक बार फिर दहशतगर्दी का 'एपिसेंटर' बन सकता है। जुमेरात को काबुल हवाई अड्डे के पास हुए धमाकों ने एक और बात साबित कर दी है। अफगानिस्तान में तालिबान अकेले खिलाड़ी नहीं हैं। यह स्थिति और भयावह है। तालिबान अकेले होते, तो उनसे बातचीत की जा सकती थी। अब किन-किन को साधना होगा, यही तय करने में वक्त लग जाएगा। तब तक क्या इंसानियत ऐसे ही रक्तस्नान करती रहेगी?


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