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पिछले दिनों राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के एक पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हिंदू-मुस्लिम एकता के संदर्भ में कहा कि ‘हिंदू-मुस्लिम एकता की बात भ्रामक है,
तिलकराज| पिछले दिनों राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के एक पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हिंदू-मुस्लिम एकता के संदर्भ में कहा कि 'हिंदू-मुस्लिम एकता की बात भ्रामक है, क्योंकि वे अलग नहीं, बल्कि एक हैं। सभी भारतीयों का डीएनए एक है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों। हम एक ही पूर्वज के वंशज हैं।' मोहन भागवत के इस वक्तव्य के बाद देश के राजनीतिक गलियारों में एक नई बहस छिड़ गई। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा द्वारा जहां संघ प्रमुख के कथन का समर्थन किया गया है, वहीं विपक्ष के अनेक नेताओं के सुर इसके विरोध में रहे हैं। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह हों या बसपा प्रमुख मायावती अथवा एआइएमआइएम के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी, इन सब विपक्षी नेताओं ने इस वक्तव्य का विरोध किया।
विरोध के पीछे विशुद्ध राजनीतिक कारण
विचार करें तो इस विरोध के पीछे विशुद्ध राजनीतिक कारण हैं। चूंकि आगामी कुछ माह के भीतर देश में उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में विपक्ष को लगता है कि संघ प्रमुख ने यह वक्तव्य मुस्लिमों को भारतीय जनता पार्टी की तरफ लाने की रणनीति के तहत दिया है, जिससे आगामी चुनावों में भाजपा को लाभ मिल सके। यही कारण है कि जाति-मजहब के आधार पर अपनी राजनीति चमकाने वाले दलों और नेताओं को संघ प्रमुख का यह वक्तव्य बहुत चुभ रहा है और वे इसके विरोध में लामबंद हुए हैं।
संघ कोई राजनीतिक संगठन नहीं
बहरहाल, राजनीति का तो चरित्र ही ऐसा है कि इसमें हर बात को चुनावी लाभ-हानि की कसौटी पर रखकर देखा जाता है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि संघ भाजपा के साथ भले हो, लेकिन अपने आप में वह कोई राजनीतिक संगठन नहीं है और न ही संघ प्रमुख कोई राजनीतिक व्यक्ति हैं। अत: उनके वक्तव्य को राजनीतिक चश्मे से देखना उचित नहीं है। आज जब देश में जाति-धर्म के नाम पर विद्वेष की घटनाएं आए दिन देखने-सुनने को मिल रही हैं, ऐसे समय में देश के लोगों को उनकी वास्तविक पहचान से अवगत कराकर उनमें एकजुटता की भावना पैदा करने वाले इस तरह के वक्तव्य समय की आवश्यकता बन गए हैं। इस पर विवाद होना दुर्भाग्यपूर्ण ही है।
RSS प्रमुख का वक्तव्य ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित
मोहन भागवत का वक्तव्य न केवल ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है, बल्कि संविधान की भावना के अनुरूप भी है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि देश में मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा अपने शासन के दौर में बड़े पैमाने पर हिंदुओं को जबरन मतांतरण के जरिये मुसलमान बनाया गया था। आज देश के जो मुसलमान हैं, वे उन मतांतरित हिंदुओं की ही संतानें हैं। अत: मूल रूप में वे हिंदुओं से अलग नहीं हैं। यह एक ऐतिहासिक सच है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। इसके अलावा, बौद्ध, जैन, सिख आदि मतों का मूल भी हिंदू मत में ही है। ऐसे में मोहन भागवत ने इस देश के सभी लोगों का डीएनए एक बताया, तो इसमें गलत क्या है?
राष्ट्रीय पहचान का सूचक भारतीय हो चुका
गौर करें तो मोहन भागवत ने अपने वक्तव्य में हिंदुओं के प्रभुत्व की बात नहीं की है, बल्कि यह कहा है कि 'हम एक लोकतंत्र में हैं और यहां हिंदुओं या मुसलमानों का प्रभुत्व नहीं हो सकता है। यहां केवल भारतीयों का वर्चस्व हो सकता है।' यह बात देश के संविधान की भावना के अनुरूप है। हमारे संविधान की प्रस्तावना में देश के नागरिकों को 'हम भारत के लोग' कहकर संबोधित किया गया है, जहां इस देश के नागरिकों की पहचान एक भारतीय के रूप में निश्चित हो जाती है। वैसे यह पहचान केवल आजादी के बाद अस्तित्व में आए संविधान से ही नहीं है, अपितु प्राचीनकाल से है। यह प्रसंग सर्वविदित है कि दुष्यंत पुत्र राजा भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। भरत का वंशज होने के आशय से ही महाभारत में कृष्ण द्वारा अर्जुन को अनेक अवसरों पर 'भारत' कहकर संबोधित किया गया है। यह 'भारत' ही अब हमारी राष्ट्रीय पहचान का सूचक भारतीय हो चुका है।
आर्य यहीं के निवासी थे
भारतीयों को उनकी वास्तविक पहचान से भटकाने की कोशिश देश में लंबे समय से होती आई है। अंग्रेजों द्वारा इतिहास में आर्य आक्रमण सिद्धांत के जरिये आर्यों को बाहरी साबित करने की जो कुचेष्टा की गई उसका निर्वाह आजाद भारत के वामपंथी इतिहासकारों ने भी किया। यह सिद्ध करने का प्रयास होता रहा है कि आर्य बाहर से आए और यहां के मूल निवासियों को खदेड़कर यहीं बस गए। लेकिन जब राखीगढ़ी के अवशेष सामने आए तो उन्होंने इन वामपंथी प्रपंचों को बेनकाब कर दिया। राखीगढ़ी से प्राप्त कंकाल के अवशेषों की जांच के आधार पर यह स्पष्ट हुआ है कि पिछले कम से कम बारह हजार साल से एशिया का जीन एक ही रहा है, अत: आर्य यहीं के निवासी थे। कई अन्य तथ्यों के भी सामने आने से नई अवधारणाएं सामने आईं।
कहने का आशय यह है कि समय के साथ अलग-अलग संस्कृतियों के संपर्क व प्रभाव से भले ही देश की आबादी के एक हिस्से की जीवनशैली और पूजा-पद्धति में अंतर आ गया हो, परंतु इस देश के सभी निवासियों का मूल एक ही है। वे महाभारत काल में 'भारत' से संबोधित होते थे, आज उनकी पहचान भारतीय है और इसी पहचान के साथ देश को आगे बढ़ना है। मोहन भागवत ने अपने वक्तव्य में इसी पहचान द्वारा राष्ट्रीय एकजुटता का आह्वान किया है। जो लोग इससे सहमत नहीं हैं, वे कहीं न कहीं भारतीयता की भावना से ही असहमत हैं।
मोहन भागवत ने हिंदू-मुस्लिम एकता को लेकर जो कुछ कहा है, उसका उद्देश्य चुनावी राजनीति के संकीर्ण दायरे से कहीं बड़ा और व्यापक है जिसे समग्रता में समझा जाना चाहिए
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