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क्या उग्रवादी गुटों से समझौता बेअसर रहा?
प्रवीण कुमार।
नगालैंड के मोन जिला स्थित गांव तिरु में सुरक्षा बलों की फायरिंग में 21 पैरा स्पेशल फोर्सेज के एक जवान और एक दर्जन से अधिक ग्रामीणों की मौत के बाद सड़क से लेकर संसद तक हंगामा खड़ा हो गया है. सुनने में घटना बहुत छोटी सी लगती है कि सेना के 21 पैरा स्पेशल फोर्सेज किसी बड़े ऑपरेशन की ताक में थे. खुफिया विंग की गलत इनपुट की वजह से सुरक्षा बलों ने उग्रवादी समझ ग्रामीणों के उस वाहन पर फायरिंग झोंक दी जिसमें गांव के निर्दोष दिहाड़ी मजदूर थे. माना कि जो कुछ हुआ उसमें सुरक्षा बलों से बड़ी चूक हुई है, लेकिन इस हकीकत से सरकार पल्ला कैसे झाड़ सकती है कि नगालैंड के हालात ठीक नहीं हैं और यह ताजा मामला इतना हल्का नहीं जितना सुनने में लग रहा है. निश्चित रूप से फायरिंग की इस वीभत्स घटना ने केंद्र सरकार, सेना की खुफिया विंग, नगालैंड सरकार और स्थानीय पुलिस सबको कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में बयान देकर भले ही एसआईटी गठन की बात की हो और सेना ने कोर्ट ऑफ इंक्वायरी की, लेकिन इस सवाल का जवाब तो केंद्र सरकार को देना ही पड़ेगा कि सुरक्षाबलों ने किन उग्रवादियों पर कार्रवाई के लिए इतनी बड़ी घेरेबंदी की थी? उन उग्रवादियों की तो नहीं जिनके साथ 2015 में केंद्र ने फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर किया था. समझौते के 6 साल बीतने के बावजूद केंद्र सरकार विवादों को खत्म करने में आखिर क्यों विफल रही है? अभी भी AFSPA कानून से जकड़ा नगालैंड खुद को ठगा सा क्यों महसूस कर रहा है?
शांति बहाल नहीं होने के पीछे हैं कई वजहें
दरअसल, म्यांमार की सीमा से सटे नगालैंड में स्थायी शांति लाने के प्रयास तभी से ठप्प पड़े हैं जब से केंद्र सरकार ने एनएससीएन की ओर से अवैध तरीके से टैक्स की जो वसूली कर रहे थे उसपर रोक लगा दी. संगठन की दलील है कि केंद्र सरकार का यह फैसला ठीक नहीं है. उल्लेखनीय है कि जिस उग्रवादी संगठन से केंद्र सरकार ने 2015 में फ्रेमवर्क समझौता किया था वह अपनी स्थापना के वक्त से ही राज्य के तमाम लोगों, व्यापारियों और सरकारी कर्मचारियों तक से टैक्स वसूलता रहा है. जब सरकार ने इसपर शिकंजा कसा तो समझौते का असर बेअसर होने लगा. दूसरी अहम बात यह है कि नागा समुदाय को डेवलपमेंट यानी विकास से बहुत चिढ़ है. केंद्र सरकार को लगता है डेवलपमेंट के जरिये ही वह सरकार से दूर हो रहे लोगों को अपनी तरफ ला पाएंगी, लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं. नागाओं के बीच अमीर और गरीब की खाई एक बड़ी समस्या है जो निरंतर बढ़ती ही जा रही है. इनकी इस समस्या को कोई एड्रेस नहीं करता है. पलायन की वजह से गांव के गांव खाली हो रहे हैं. इन खाली होते नागा गांवों की बात कोई सरकार या राजनीतिक दल नहीं करता. पहाड़ी गांवों में पानी की किल्लत है. जलवायु परिवर्तन की वजह से फसलें चौपट हो रही हैं. लिहाजा यहां की बड़ी आबादी मजदूरी के लिए गांव छोड़ने को मजबूर हैं. तीसरी अहम बात यह कि केंद्र सरकार ने 3 अगस्त, 2015 को एनएससीएन के इसाक मुइवा गुट के साथ जिस फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर किए थे उसके प्रावधानों को गोपनीय रखा गया था. बाद में साल 2017 में नगा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप जैसे सात विद्रोही गुटों को जब शांति समझौते में शामिल किया गया तो कुछ नागा संगठनों ने इसको लेकर निराशा जताई थी और इसे शांति प्रक्रिया को लंबा खींचने का जरिया बताया था. बाद में एनएससीएन ने जब फ्रेमवर्क समझौते के प्रावधानों को सार्वजनिक किया तो शांति प्रक्रिया में मध्यस्थ रहे आर.एन. रवि जो इस वक्त प्रदेश के राज्यपाल भी हैं, पर साझा संप्रभुता का हवाला देते हुए मूल समझौते में कुछ लाइनें बदलने का आरोप लगाया था.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि एनएससीएन अलग संविधान और अलग झंडे की मांग पर आज भी अड़ा है जबकि केंद्र सरकार इसके लिए तैयार नहीं है. यही शांति प्रक्रिया की राह में सबसे बड़ी बाधा है. समझौता होना जरूरी है और समय-समय पर समझौते होते भी रहे हैं, लेकिन समझौते करने वाले पक्षों ने कभी आम नागाओं की जिंदगी के बारे में न तो सोचा और न ही समझा? तो फिर कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि नागा लोगों की जिंदगी पटरी पर आ जाएगी और ऐसे में यह उम्मीद करनी तो और भी बेमानी है कि नगालैंड में शांति बहाल हो जाए. सारे विवाद खत्म हो जाएं. एक और जो सबसे अहम बात है वह यह कि उत्तर-पूर्वी भारत के बहुत सारे हिस्से आज भी खुद को भारत से अलग-थलग महसूस करते हैं. नगालैंड भी उनमें से एक है. राजनीतिक अलगाव की वजह से हर बार नागा शांति समझौता अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पाता है. थोड़ी देर के लिए खुद ही सोचकर देखिए- भारतीय संविधान में कश्मीर को दिए गए विशेष दर्जे को लेकर हम सब जितनी बहसें करते हैं उतनी कभी नगालैंड को दिए गए विशेष दर्जे के बारे में करते हैं? बिल्कुल नहीं. जबकि हकीकत यह है कि नगालैंड का इतिहास काफी पुराना और काफी विवादित रहा है जिसकी शुरुआत आजादी से पहले से होती है.
बहुत पेचीदा है नगालैंड का इतिहास
नागा किसी एक अकेली जनजाति का नाम नहीं, बल्कि यह जनजतियों के समूह का नाम है. अंग्रेजों ने इनके इलाके में एक छावनी बनाई थी. यही छावनी मौजूदा वक्त में नगालैंड की राजधानी है जिसे कोहिमा कहा जाता है. नागा पहाड़ों पर रहते थे जिन्हें नागा हिल्स कहा जाता था. ये पहाड़ तमाम संसाधनों से अटे पड़े थे जिनपर अंग्रेजों की नजरें गड़ी थीं. आधिकारिक तौर पर साल 1881 में नागा हिल्स ब्रिटिश भारत का हिस्सा बन गया. लेकिन ऐसा कहा जाता है कि नागा जनजाति के लोग ब्रिटिश भारत का हिस्सा अपनी मर्जी से नहीं बने थे. इनके साथ तब भी जबरदस्ती की गई थी जैसा कि साम्राज्यवादी ताकतें अपने उपनिवेशों के साथ किया करती थी. गुलामी के खिलाफ नागा लोगों ने भी विरोध की आवाज बुलंद की थी और साल 1918 में नागा क्लब का गठन किया. साइमन कमीशन जब भारत आया तो नागाओं ने कहा कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए. 1946 में अंगामी जापू फिजो की अगुआई में नागा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) बना. शुरुआती वक्त में इनका कहना था कि नागा हिल्स के तौर पर यह भारत का हिस्सा होगा, लेकिन अपने शासन चलाने के तरीकों को वह खुद तय करेंगे. इसको लेकर भारत सरकार और नागाओं के बीच अकबर हैदरी समझौता भी हुआ था. लेकिन आजादी के ठीक पहले यह समझौता टूट गया.
14 अगस्त, 1947 को नागाओं ने भी खुद को आजाद घोषित कर दिया. उसी दिन पाकिस्तान भी बना. वक्त का पहिया ऐसा घूमा कि पाकिस्तान को तो देश के तौर पर मान्यता मिली लेकिन नागाओं को नहीं मिली. भारत के संविधान बनने के एक साल बाद नागा नेशनल काउंसिल की अगुआई में नागा गुटों ने रेफरेंडम करवाया जिसमें पता चला कि 99 फीसदी से अधिक नागा आजाद नगालैंड चाहते हैं. भारत सरकार ने इस रेफरेंडम को मानने से इंकार कर दिया. लेकिन अपनी आजादी के लिए नागाओं ने अपनी लड़ाई जारी रखी. 22 मार्च, 1952 को फिजो ने भूमिगत नागा फेडरल गवर्नमेंट (एनएफजी) और नागा फेडरल आर्मी (एनएफए) का गठन किया. मतलब देश के अंदर देश और उसकी अपनी फौज भी. इनसे निपटने के लिए भारत सरकार ने सैनिकों को बहुत अधिकार दिए. साल 1958 में नागा फेडरल आर्मी से निपटने के लिए भारत सरकार ने 1958 में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (AFSPA) बनाया. यहीं से AFSPA कानून की शुरुआत हुई जिसे बाद में कश्मीर में भी लागू किया गया. लेकिन कहते हैं न कि फौजी बंदूकों से कभी कोई समाधान का रास्ता नहीं निकलता है. और आखिरकार पक्षकारों को शांति वार्ता की मेज पर बैठना ही पड़ा और साल 1963 में असम से नागा हिल्स जिले को अलग कर नगालैंड को राज्य का दर्जा दे दिया गया. 1964 में पहली बार नगालैंड विधानसभा का गठन हुआ.
नागा गुटों में तालमेल न होने से भी बिगड़ी बात
नगालैंड राज्य के गठन के बाद भारतीय संविधान में संशोधन किया गया जिसमें अनुच्छेद 371-ए जोड़ा गया. इसके मुताबिक केंद्र का बनाया कोई भी कानून अगर नागा परंपराओं (मतलब नागाओं के धार्मिक-सामाजिक नियम, उनके रहन-सहन और पारंपरिक कानून) से जुड़ा हुआ होगा तो वो राज्य में तभी लागू होगा जब नागालैंड की विधानसभा बहुमत से उसे पास करेगी. यानि नागा लोगों की संस्कृति को सुरक्षित रखे जाने का पूरा भरोसा संविधान के तहत दिया गया. लेकिन बात तब भी नहीं बनी. नागा गुटों और भारत सरकार के बीच करीब एक दशक से अधिक समय तक संघर्ष जारी रहा. फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पहल की थी. 11 नवंबर, 1975 को शिलांग समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिये NNC नेताओं का एक गुट सरकार से मिला जिसमें हथियार छोड़ने पर सहमति जताई गई. यह भी कहा कि वह अलग राज्य की मांग नहीं करेंगे और भारतीय संविधान के अंदर ही रहेंगे. लेकिन सरकार के लिए मुश्किल यह थी कि नागा समुदाय के अंदर भी कई गुट थे जिनसे संतुलन बिठाना आसान नहीं था. इसका नतीजा यह हुआ कि NNC और NFG का एक समूह इस समझौते से खुद को अलग कर लिया था.
चीन भी पीछे नहीं रहा नागाओं को भड़काने में
नगालैंड की सीमा चीन से लगी है. समय-समय पर मौका पाकर चीन ने नागाओं के विरोध की जमीन में खूब खाद-पानी दिया. कहा जाता है कि एनएनसी के तत्कालीन सदस्य थुइनगालेंग मुइवा समझौते के वक्त चीन में ही थे. इन्होंने एनएनसी और एनएफजी के तकरीबन 140 सदस्यों के साथ शिलांग शांति समझौते को ही नकार दिया था. बाद में इसी गुट ने 1980 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) का गठन किया. साल 1988 में एनएससीएन में भी दो फाड़ हो गया. खापलांग ने एनएससीएन से अलग होकर एनएससीएन (के) बना लिया. उसके बाद जो एनएससीएन बचा, वह कहलाया एनएससीएन (आईएम). आई यानी इसाक और एम यानी मुइवा. एनएससीएन (आईएम) ने 'ग्रेटर नागालिम' की मांग उठानी शुरू कर दी. ग्रेटर नागालिम में आज के नागालैंड सहित अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, असम और म्यांमार के इलाके आते हैं. एनएससीएन (आईएम) ने भारत सरकार के साथ पहला शांति समझौता 1997 में किया. 1997 के बाद से एनएससीएन (आईएम) ने सरकार से कई दौर की बातचीत की. शांति समझौते के बाद भी छिटपुट हिंसा होती रही. और फिर 3 अगस्त 2015 को नागा शांति समझौता का फ्रेमवर्क ऑफ एग्रीमेंट बना. यानी समझौता किन शर्तों पर होगा, उसका खाका बना. एनएससीएन (आईएम) के अलावा नागालैंड में कम से कम छह और हथियारबंद संगठन नागा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप्स (एनएनपीजी) थे जिन्हें सरकार ने 2017 में शांति बहाली का हिस्सा बनाया.
बहरहाल, एनएससीएन (आईएम) ने 6 साल पहले हुए फ्रेमवर्क समझौते लेकर हाल ही में एक बयान जारी किया है जिसमें कहा गया कि छह साल बीत जाने के बाद भी भारत सरकार की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली है. नागाओं के साथ ऐसा सलूक नहीं किया जा सकता. संगठन के इस बयान के बाद अचानक से नगालैंड में हलचल तेज हो गई है. सेना की खुफिया विंग समेत सरकारी एजेंसियां भी उग्रवादी संगठनों की गतिविधियों को लेकर सरकार और सेना को फिर से चौकस रहने की इनपुट दे रहे हैं. तभी तो सेना ने अपने बयान में इस बात की पुष्टि की है कि नगालैंड में मोन जिले के तिरु में उग्रवादियों की संभावित गतिविधियों की विश्वसनीय खुफिया जानकारी के आधार पर इलाके में एक विशेष अभियान चलाए जाने की योजना बनाई गई थी. मतलब नगालैंड में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है. सरकार की मुश्किलें इस रूप में भी बड़ी हो गई हैं कि भाजपा की नगालैंड इकाई के अध्यक्ष तेमजेन इम्ला एलोंग ने कहा है कि फायरिंग की घटना, शांतिकाल में युद्ध अपराध के बराबर है. यह नरसंहार और मृत्युदंड देने जैसा है. इसे किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. सिर्फ इसे खुफिया विफलता बताकर पल्ला झाड़ लेना सबसे लाचारी भरा बयान है. एलोंग ने कहा कि ऐसे वक्त में तो और अधिक संयम बरतना चाहिए था, जब भारत सरकार और नगा राजनीतिक समूहों के बीच शांति वार्ता चल रही हो. उनकी इस मांग पर कि घटना के जिम्मेदार असम रायफल्स के जवानों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाए और पीड़ितों को इंसाफ दिया जाए, आने वाले वक्त में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और भाजपा नीत केंद्र सरकार के लिए मुश्किल पैदा करेगा. तेमजेन इम्ला एलोंग नगालैंड सरकार में मंत्री भी हैं.
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