सम्पादकीय

कर्नाटक में 'मुस्लिम बैन' की राजनीति क्यों बेचैन करने वाली है?

Gulabi Jagat
31 March 2022 7:53 AM GMT
कर्नाटक में मुस्लिम बैन की राजनीति क्यों बेचैन करने वाली है?
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कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने में अभी एक साल से ज्यादा का समय बचा है
बिपुल पांडे।
कर्नाटक में विधानसभा चुनाव (Karnataka Assembly Election) होने में अभी एक साल से ज्यादा का समय बचा है. परंतु इससे पहले ही पूरे प्रदेश में 'मुस्लिम बैन' की राजनीति इस स्तर पर पहुंच गई है, जो आज से पहले कभी नहीं देखी गई. टीपू सुल्तान (Tipu Sultan) के सिर से 'मैसूर टाइगर' का ताज छीनने की कोशिश हो रही है, मंदिर-मेलों में मुस्लिमों (Muslim) को धड़ाधड़ बैन किया जाने लगा है, यहां तक कि हलाल और झटका की प्रथा में भी टकराव सामने आने लगा है. लेकिन ये सिर्फ इत्तेफाक नहीं है कि 'मुस्लिम बैन' के फैसले 'हिजाब' के विवाद और 'हर्ष' की हत्या के बाद तेजी से बढ़े हैं. यहां तक कि इसने संक्रामक रोग की तरह असर दिखाना शुरू किया है. कर्नाटक की बदलती इस पूरी तस्वीर को देखकर ये तर्क जरूर दिया जा सकता है कि कर्नाटक में अगले साल चुनाव होने हैं, इससे पहले बीजेपी ने ध्रुवीकरण की कोशिशें शुरू कर दी हैं.
लेकिन इस तर्क के साथ एक सवाल ये भी जुड़ा है कि बीजेपी ने ध्रुवीकरण की कोशिशें कब नहीं की? क्या बीजेपी की ओर से ध्रुवीकरण की कोशिश पहली बार हो रही है? अगर नहीं, तो कर्नाटक में 'मुस्लिम बैन' का इतना तीखा असर इससे पहले क्यों नहीं दिखा? देश को समझना ये होगा कि ध्रुवीकरण आसमान से नहीं टपकता. उसका इस धरती पर ही आधार तैयार होता है. एक वर्ग का समर्थन मिलता है. इसके बाद ही ध्रुवीकरण आकार लेता है. लिहाजा कर्नाटक में जो हालात हैं, उसका चुनाव से क्या नाता है, इस पर माथा फोड़ने से ज्यादा जरूरी है हालात को समझना. समस्या को प्वाइंट आउट करना और हिंदू-मुसलमान के बीच एक सम्मानजनक लक्ष्मण रेखा खींचना, जो दोनों के हित में हो. रेड लाइन का उल्लंघन हर व्यवस्था को परेशानी में डालता रहता है. चाहे वो इतिहास ही क्यों ना हो.
टीपू सुल्तान के सिर से 'मैसूर टाइगर' का ताज छीनने की बेताबी क्यों है?
कर्नाटक सरकार ने सोशल साइंस के सिलेबस की समीक्षा के लिए रोहित चक्रतीर्थ समिति बनाई थी, जिसने छठी से दसवीं क्लास के सिलेबस में बदलाव की सिफारिश की थी. इस सिफारिश के आधार पर अब 2022-23 के सेशन से कर्नाटक के स्कूली किताबों से टीपू सुल्तान को महिमामंडित करने वाले चैप्टर्स हटा दिए जाएंगे. रोहित चक्रतीर्थ ने अपनी सिफारिश में कहा है कि- 'टीपू को मैसूर हुली यानी मैसूर टाइगर कहा तो जाता है, लेकिन किसी को नहीं पता कि 18वीं सदी के मैसूर के शासक को यह उपाधि किसने और किस संदर्भ में दी थी.' कमेटी की इस सिफारिश में कोई लौजिक नहीं है. अगर इतिहास में उपनाम रखने वालों के नाम का आधार तलाशा जाए तो उपनाम तो दूर बर्थ सर्टिफिकेट भी नहीं मिल सकता. और उपनाम का आधार ढूंढा जाए तो कई शख्सियतों के सिर से ताज उठ जाएगा, जो हिंदूवादी संगठनों की राजनीति को सूट ना करते हों.
इस मामले में पूरा विवाद महानता दिखाने को लेकर है, जिसका आधार मैसूर में ही मौजूद है. किसी की बर्बरता को उसकी महानता के आवरण में नहीं ढंका जा सकता. कर्नाटक का एक वर्ग यही कह रहा है. कर्नाटक के कोडागू जिले में टीपू को एक विवादित शख्सियत के तौर पर देखा जाता है. स्थानीय कोडावस समुदाय के लोगों का मानना है कि टीपू सुल्तान के दौर में कोडावस पुरुषों और महिलाओं पर बर्बरता की गई. उनकी हत्याएं हुईं और लोगों को जबरन इस्लाम धर्म कबूल कराया गया. लिहाजा टीपू सुल्तान को 'मैसूर टाइगर' का ताज अगर महान बनाता है, तो रेप, मर्डर, मंदिर तोड़ना, कन्वर्जन कराना भी उनकी महानता का एक हिस्सा होना चाहिए. इस सच्चाई को इतिहास नकार नहीं सकता कि हिंदुस्तान एक हिंदू लैंड है. मुसलमानों ने कई सौ सालों तक हिंदू लैंड पर राज किया और कर भी रहे हैं. अपनी धमक कायम करने के लिए मुस्लिम शासकों ने कभी मंदिर तोड़े होंगे, कभी हिंदू अस्मिता पर चोट किया होगा, कभी बर्बरता दिखाई होगी और सत्ता कायम की होगी.
इस सत्ता को जारी रखने के लिए अकबर महान की तरह बहुतों ने हिंदुओं पर थोड़ी रहम दिखाई होगी, असंतोष मिटाने के लिए कुछ मंदिर भी बनवाए होंगे. लेकिन इतिहास में टीपू सुल्तान को बहादुर देशभक्त बताते हुए, हिंदू बहुल इलाकों श्रीरंगपट्टनम, मैसूर समेत कुछ जगहों पर मंदिर बनवाने के लिए महिमामंडित नहीं किया जा सकता. ये टीपू सुल्तान के लिए राज काज चलाने का हथियार था, जिसे इतिहास में निरपेक्ष होकर रखा जाना चाहिए था. लेकिन इतिहासकारों को सोचना चाहिए कि मैसूर के सुल्तान को लेकर जब नैरेटिव सेट करना शुरू कर देंगे, तो ये नैरेटिव एक वर्ग के लिए अपाच्य बन जाएगा और ये ही ध्रुवीकरण का आधार बन जाएगा.
कर्नाटक में 'मुस्लिम बैन' की राजनीति खतरनाक मोड़ पर पहुंच गई है
कर्नाटक में हिंदू त्योहारों और मंदिर में लगने वाले सालाना मेलों में मुस्लिमों को कारोबार करने से रोकने की तेजी से मांग उठने लगी है. पहले इस तरह की मांग शिवमोगा और दक्षिणी कन्नड़ जिलों में उठी थी, लेकिन अब ये मांग गलुरु शहरी, हासन, तुमकुरु और चिक्कमंगलुरु जैसे जिलों में भी उठने लगी है. हिजाब विवाद की तरह ये मामला भी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ा है और एक जिले से दूसरे जिले तक फैला है.
कर्नाटक में कांग्रेस राज में बना एक कानून ही इसका आधार बना है. राज्य सरकार का कर्नाटक धार्मिक संस्थान और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम 2002 के नियम 12 में गैर-हिंदुओं को मंदिरों के पास व्यापार करने से रोकने का प्रावधान है और इसी नियम के हवाले से मुस्लिम बैन की मुहिम चलाई जा रही है. विश्व हिंदू परिषद मंदिरों का प्रबंधन देखने वाले मुजराई विभाग को राज्य भर के किसी भी मंदिर में मुस्लिम व्यापारियों को अनुमति नहीं देने को कह रही है और चिंताजनक बात ये है कि ऐसा होने भी लगा है.
'हिजाब' के बाद के ताजा विवाद कैसे फैल रहे हैं?
कर्नाटक के शिवमोगा जिले का एक विख्यात मेला है 'कोटे मरिकंबा जात्रा'. ये मेला दो साल में एक बार लगता है और पांच दिनों तक चलता है. इस बार ये मेला 22 से 27 मार्च तक चला लेकिन अन्य वर्षों की तरह इस बार मेले में एक भी मुस्लिम दुकानदार अपनी दुकान नहीं लगा सका. इससे पहले इस मेले में मुस्लिम और ईसाई भी यहां दुकानें लगाते रहे हैं. इतना ही नहीं, मनोकामना पूरी करने के लिए 'मरिकंबा माता' की पूजा भी करते रहे हैं. इस साल मेले में सांप्रदायिक रंग कहां से आया, इसे साफ करते हुए कमिटी के अध्यक्ष एस के मरियप्पा ने द हिंदू को बताया कि- "इतने सालों में कमिटी ने किसी खास धर्म के खिलाफ कभी इस तरह फैसला नहीं लिया था. लेकिन, कुछ लोगों ने मुस्लिम दुकानदारों को अनुमति देने के खिलाफ सोशल मीडिया पर कैंपेन चला दिया. मेला शुरू होने में सिर्फ तीन दिन बाकी थे. इसमें हजारों लोग पहुंचते हैं. मेला सही तरीके से चले, इसलिए हमने उनकी (हिंदुत्व संगठनों) मांग मान ली."
बात शिवमोगा तक ही सीमित नहीं है. कौप के होजा मारीगुड़ी मंदिर में भी 'सुग्गी मारी पूजे' मेले में सिर्फ हिंदुओं को दुकानें लगाने की अनुमति दी गई. शिवमोगा के एक बीजेपी नेता चन्नाबसप्पा ने द हिंदू से कहा- "इतने सालों में हमने कभी मुस्लिमों को दुकान लगाने से नहीं रोका. हाल के दिनों में उनकी गतिविधियों ने हमें ऐसी मांगों को रखने पर मजबूर किया. जब वे हमारे कार्यकर्ता (हर्ष) की हत्या की निंदा तक नहीं करते तो उन्हें हमारे (हिंदुओं के) कार्यक्रम में क्यों शामिल होना चाहिए?" जाहिर है, ये ही वो कमजोर कड़ी है, जो कर्नाटक में ध्रुवीकरण का आधार बन रही है. जिसपर विचार करने की जरूरत है. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण कन्नड़ जिले में एक मंदिर के वार्षिक मेले में बाकायदा होर्डिंग लगा दी गई, जिसमें लिखा गया था कि- "जो धरती माता और कानून का सम्मान नहीं कर सकते, जो हमारी आराध्य गायों का वध करते हैं और जो भाईचारे के विरुद्ध हों, उन्हें हम मेले में व्यापार की अनुमति नहीं देंगे."
सामाजिक तानाबाना टूटता है, तो उसका दूर तक असर पड़ता है. उडुपी डिस्ट्रिक्ट स्ट्रीट वेंडर्स एंड ट्रेडर्स असोसिएशन के सचिव मोहम्मद आरिफ का कहना है कि ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं थी. लगभग 700 पंजीकृत सदस्य हैं जिनमें से 450 मुस्लिम हैं. कोविड-19 की वजह से पिछले दो साल से हमारे पास कोई कारोबार नहीं था. अब जब हम फिर से कमाई करना शुरू कर रहे हैं, तो हमें मंदिर समितियों ने बैन कर दिया गया है.
सरकार का क्या तर्क है?
बुधवार 24 मार्च को ये मामला कर्नाटक विधानसभा में भी उठा था. विधानसभा में कानून मंत्री जेसी मधुस्वामी ने कर्नाटक धार्मिक संस्थान और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम 2002 के नियम संख्या 12 का हवाला दिया और कहा कि- 'हिंदू संस्थानों के पास स्थित भूमि, भवन या साइट सहित कोई भी संपत्ति गैर-हिंदुओं को पट्टे पर नहीं दी जाएगी. ये नियम हमारी (BJP) सरकार ने नहीं बनाए, बल्कि कांग्रेस सरकार ने 2002 में नियम बनाए थे और अब हम पर आरोप मढ़ने की कोशिश हो रही है.' दूसरी ओर कांग्रेस तर्क दे रही है कि अधिनियम के तहत तत्कालीन कांग्रेस सीएम एसएम कृष्णा ने नियम बनाया था. ये इसलिए बनाया गया था ताकि मंदिर विक्रेताओं के प्रतिनिधित्व के बाद संबंधित धर्मों के विक्रेताओं की मदद की जा सके. हिंदुओं को भी मस्जिदों या चर्चों के पास व्यापार करने की अनुमति नहीं थी.
हलाल मीट तक जा पहुंची 'मुस्लिम बैन' मुहिम!
कर्नाटक में उगाड़ी के अगले दिन देवताओं को मीट चढ़ाया जाता है, लेकिन इस साल मुसलमानों से मीट खरीदने का भी बहिष्कार किया गया. बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव सीटी रवि ने बयान दिया कि हलाल मीट में जिहाद छिपा है. इसी के बाद कर्नाटक में देवी देवताओँ को चढ़ाए जाने वाले हलाल मीट के बहिष्कार की मुहिम चल पड़ी. हिंदू जन जागृति समिति के प्रवक्ता मोहन गौड़ा ने तो यहां तक आरोप लगा दिया कि- 'मुस्लिम दुकानों पर मिलने वाला मीट धर्मनिष्ठ नहीं होता है और उसे देवी-देवताओं को नहीं चढ़ाया जा सकता है. क्योंकि मुस्लिम व्यापारी इसे अपने ईश्वर को चढ़ाने के बाद ही बेचते हैं. इसलिए यह हमारे त्योहार के योग्य नहीं है.' हिंदू-मुस्लिम के रहन-सहन, खान-पान में अंतर नया नहीं है, लेकिन ये अंतर जब-तब विस्फोट करने लगे तो कमियों को ढूंढना आवश्यक हो जाता है.
आपसी व्यवहार को ऑडिट करे की जरूरत है
अब मूल प्रश्न की ओर लौटते हैं. मान भी लिया जाए कि इस पूरी मुहिम में घनघोर राजनीति है, लेकिन ये मुहिम एक वर्ग को इतना आकर्षित क्यों कर रही है? इसकी मूल वजह ये है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती. अगर कोई वर्ग दूसरे धर्म का सम्मान करता है तो वह किसी को उपकृत नहीं करता. यही सामाजिकता है. यही व्यावहारिकता है और यही मानवता है. इस दोष का ठीकरा राजनीति के सिर मंढ़ने से कोई लाभ नहीं होने वाला. बल्कि हिंदू-मुस्लिम धर्मगुरुओं को एक साथ बैठना होगा. अपनी मान्यताओं और व्यवहार के साथ-साथ रिश्तों को भी ऑडिट करना होगा. एक-दूसरे की लक्ष्मण रेखा और लॉ ऑफ लैंड का सम्मान करना होगा. और जिस दिन हर हिंदुस्तानी इस सच्चाई को समझ लेगा, राजनीति खुद ब खुद रास्ते पर आ जाएगी. अन्यथा 'मुस्लिम बैन' की राजनीति लंबे समय तक देश को मथती रहेगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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