सम्पादकीय

क्यों उठ रहा जातीय जनगणना का सियासी शोर, क्या सामाजिक न्याय का दीया कमजोर पड़ रहा?

Shiddhant Shriwas
14 Oct 2021 11:19 AM GMT
क्यों उठ रहा जातीय जनगणना का सियासी शोर, क्या सामाजिक न्याय का दीया कमजोर पड़ रहा?
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विशेषाधिकारों को खत्म करने के लिए सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर गणना करनी ही होगी, जातीय जनगणना के आंकड़ों का सामने लाना ही होगा

भारत की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में यह नारा सदियों से लगता रहा है, 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी'. यहीं से शुरू होती है सामाजिक न्याय की लड़ाई. अब जबकि ये लड़ाई राजनीतिक दलों को कमजोर होती दिखने लगी है, वोट बैंक खिसकने का खतरा मंडराने लगा है, सामाजिक न्याय का दीया बुझने का अहसास होने लगा है, तो उसे ठोस आधार प्रदान करने के लिए जातीय जनगणना का शोर मचाया जाने लगा है.

जातीय जनगणना कराने की मांग करने वाले नेताओं को ऐसा लगता है कि अन्य पिछड़ी जातियों यानी ओबीसी की श्रेणी में आबादी बढ़ी है, जिसका फायदा उन्हें जातीय जनगणना के आंकड़ों से मिल सकता है. शायद इसीलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस बात को जोर-शोर से उठाना शुरू कर दिया है कि जातीय जनगणना कराना बहुत जरूरी है. सामाजिक न्याय और जातीय जनगणना की बात जब उठती है तो एक साथ कई सवाल भी उभरते हैं. पहला सवाल ये कि सामाजिक न्याय का दीया बुझने क्यों लगा है? और दूसरा, जातीय जनगणना कराने से मोदी सत्ता बच क्यों रही है? लेकिन इन सवालों की पड़ताल करने से पहले जातीय जनगणना के ऐतिहासिक तथ्यों को जान लेना जरूरी है.
जातीय जनगणना के ऐतिहासिक तथ्य
सामाजिक आबादी के बारे में लोगों को जानकारी देना, उसका विश्लेषण करना और भारत जैसे लोक कल्याणकारी राज्य में यह पता लगाना कि लोगों की पहुंच का स्तर क्या है, यह न केवल समाज विज्ञानियों के लिए बल्कि देश व दुनिया के नीति निर्माताओं और सरकार के लिए भी काफी अहम होता है. देश में पहली बार 1881 में जनगणना कराई गई थी. तब यहां अंग्रेजों का राज हुआ करता था. तब भी जातीय जनगणना के आंकड़े जारी किए गए थे. 1931 तक की जनगणना में जातीय आंकड़े भी जारी किए जाते रहे. पहली बार 1941 की जनगणना में ऐसा हुआ कि जातीय आंकड़े जुटाए तो गए, लेकिन उसे जारी नहीं किया गया. आजादी के बाद पहली बार 1951 में जनगणना हुई. तब से लेकर अब तक सात बार की जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े ही प्रकाशित किए गए. वीपी सिंह की सरकार ने जिस मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर पिछड़ों को आरक्षण दिया, उसने भी 1931 की जनगणना को आधार मानकर ही ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत मानी थी.
क्यों बुझने लगा है सामाजिक न्याय का दीया?
जब हम सामाजिक न्याय की बात करते हैं तो सबसे पहले ये ख्याल आता है कि सभी मनुष्य समान हैं, लिहाजा सभी को समान अवसर मिलना चाहिए. इससे आगे बढ़ते हैं तो ये भी महसूस होता है कि किसी के साथ सामाजिक, धार्मिक, लैंगिक, भाषा, नस्ल आदि के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए. वक्त के साथ सामाजिक न्याय की अवधारणा में कई नए आयाम जुड़े. 50 और 60 के दशक को याद करें तो समाजवादी नेता व चिंतक राममनोहर लोहिया ने तब इस बात पर जोर दिया था कि पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों को एकजुट होकर सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करना चाहिए. लोहिया चाहते थे कि ये समूह एकजुट होकर सत्ता और नौकरियों में ऊंची जातियों के एकाधिकार को चुनौती दें. लोहिया के विचारों की इसी पृष्ठभूमि में आपातकाल के बाद के राजनीतिक कालखंड में सामाजिक न्याय भारतीय राजनीति का एक प्रमुख नारा बना भी. खासतौर से 90 के दशक में उन जातियों का वर्चस्व राजनीति में भी स्थापित हुआ जिनकी बात लोहिया ने की थी. लेकिन जिस अरमान से जनता ने लालू, मुलायम, मायावती जैसे नेताओं को सत्ता के शिखर पर पहुंचाया, लोहिया के मानकों पर खड़े नहीं उतरे. उसकी बड़ी वजह यह रही कि ये नेता परिवारवाद और भाई-भतीजावाद में इस कदर फंस गए कि शासन की नीति के तौर पर जो काम इन्हें करने चाहिए थे वो वक्त रहते कर नहीं पाए. इनके लिए सामाजिक न्याय का नारा महज चुनावी नारा बनकर रह गया. चुनाव जीतने के बाद उन्होंने पलटकर नहीं देखा कि उनके लोग किस हाल में हैं.
वक्त बदला, उसके साथ राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियां भी बदलीं. मौका पाकर भाजपा ने राजनीति की दिशा ही बदल दी. धर्म के आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण और सरकारी कंपनियों का निजीकरण देश को उस मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया जहां नौकरियों में आरक्षण के मायने खत्म होने को हैं. जाति से इतर पूरे देश को 85 प्रतिशत बनाम 15 प्रतिशत में बांट दिया गया. 85 प्रतिशत आबादी जो एक तरह से मजदूरों की श्रेणी में आती हैं उनको जीने भर की चीजें तथाकथित तौर पर मुफ्त में बांटी जा रही है. ऐसे में सामाजिक न्याय का शब्द बेमानी हो गया. जाहिर सी बात है, जब देश में सरकारी कंपनियां बचेंगी ही नहीं तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण का मतलब क्या रह जाएगा. जब सभी शिक्षण संस्थान प्राइवेट हाथों में चले जाएंगे तो दाखिले में मिलने वाले आरक्षण के क्या मायने रह जाएंगे. जब यह सब नहीं होगा तो सामाजिक न्याय का दीया कब तक जलेगा और उसके नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं की सत्ता कब तक बचेगी?
जातीय जनगणना से क्यों बच रही मोदी सत्ता?
मंत्रिमंडल विस्तार के बाद जो मोदी सरकार खुद को ओबीसी मंत्रियों की सरकार कहते नहीं थक रही, जो मोदी सत्ता नीट परीक्षा के ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी आरक्षण देने पर खुद अपनी पीठ थपथपा रही हो, वही सत्ता जातीय जनगणना के विचार से क्यों डर रही है? यह अपने आप में बड़ा सवाल है. दरअसल, जनगणना खुद में एक बेहद जटिल कार्य है और इसमें कोई भी चीज जब दर्ज हो जाती है, तो उसी से राजनीति भी जन्म लेती है, विकास के नए आयाम भी उसी से निर्धारित होते हैं. इस वजह से कोई भी सरकार बहुत सोच-समझ कर फैसला लेती है. अंग्रेज़ों की ओर से जनगणना लागू करने के पहले जाति व्यवस्था बेहद लचीली और गतिशील हुआ करती थी. लेकिन जब अंग्रेज जातिगत जनगणना लेकर आए तो सब कुछ रिकॉर्ड में दर्ज हो गया और इसके बाद से जाति व्यवस्था बेहद जटिल हो गई.
याद करें तो 1931 के बाद से जातीय जनगणना नहीं हुई, बावजूद इसके जाति के नाम पर राजनीति अब भी हो रही है. हालांकि अभी जो राजनीति हो रही है, उसका कोई ठोस आधार नहीं है, उसे कानूनी तौर पर चुनौती दी जा सकती है. लेकिन अगर एक बार जनगणना में सब दर्ज हो गया तो वह एक आधार बन जाएगा. और इसके लिए जिस तरह के सत्ता संतुलन की जरूरत होती है वह सत्ताधारी दलों के लिए चुनौती जैसी होती है.
दूसरी तरफ इसके नकारात्मक पहलू को परखें तो अगर जातियों की संख्या एक बार पता चल जाए और उस हिसाब से हिस्सेदारी दी जाने लगी तो कम संख्या वाली जातियों का क्या होगा? उनके बारे में कौन सोचेगा? एक दूसरा डर भी है. ओबीसी की सूची केंद्र की अलग है और राज्यों में अलग है. कुछ जातियां ऐसी हैं जिनकी राज्यों में गिनती ओबीसी में होती है, लेकिन केंद्र की सूची में उनकी गिनती ओबीसी में होती ही नहीं है. ऐसे में जातीय जनगणना हुई तो बवाल होना तय है. केंद्र की मोदी सत्ता इस बात को अच्छे से समझती है. लिहाजा वह सुप्रीम कोर्ट में भी कह चुकी है कि केंद्र सरकार 2021 की जनगणना में सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना नहीं करा सकती है. इसकी कई व्यवहारिक वजहें भी सरकार के तरफ से गिनाई गई हैं.
भाजपा नीत मोदी सत्ता जातीय जनगणना से इसलिए भी बच रही है क्यों कि उसे यह डर सता रहा है कि अगर ऐसा हुआ तो क्षेत्रीय दलों को केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में ओबीसी कोटे में बदलाव के लिए सरकार पर दबाव बनाने का मुद्दा मिल जाएगा, बहुत हद तक संभव है कि ओबीसी की संख्या उन्हें केंद्र की नौकरियों में मिल रहे मौजूदा आरक्षण से कहीं अधिक हो जाए. इससे मंडल पार्ट-2 जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है और भाजपा को चुनौती देने का एजेंडा तलाश रहीं क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को नया हथियार मिल सकता है जिसे बहुत हद तक भाजपा तोड़ चुकी है. कहने का मतलब यह कि सामाजिक न्याय का जो दीया बुझ रहा है उसे जातीय जनगणना से संजीवनी मिल सकती है.
राष्ट्रीय दल भी साधते रहे हैं अपना हित
ऐसा कहा जाता है कि देश की राष्ट्रीय पार्टियां जातीय जनगणना के खिलाफ हैं, लेकिन याद करें तो 2011 की जनगणना से ठीक पहले 2010 में तत्कालीन भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने संसद में कहा था कि अगर इस बार भी जनगणना में ओबीसी की गणना नहीं की गई तो ओबीसी को सामाजिक न्याय देने के लिए और 10 साल लग जाएंगे. हम उनके साथ अन्याय करेंगे. इतना ही नहीं, मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में जब राजनाथ सिंह गृह मंत्री थे, 2021 की जनगणना तैयारियों का जायजा लेते समय 2018 की एक प्रेस विज्ञप्ति में सरकार ने माना था कि नई जनगणना में ओबीसी का आंकड़ा जुटाया जाएगा.
लेकिन अब सरकार अपने वादे से मुकर रही है. कांग्रेस की बात करें तो भले ही लालू यादव और मुलायम सिंह यादव के दबाव में 2011 की जनगणना में सोशियो इकोनॉमिक कास्ट सेंसस आधारित डेटा जुटाया गया था. लेकिन सत्ता बदल जाने के बाद साल 2016 में मोदी सरकार ने इसके जो आंकड़े प्रकाशित किए उसमें जातीय आंकड़ों को छिपा लिया गया. ये आंकड़े आज भी सामाजिक कल्याण मंत्रालय की फाइलों में दबा पड़ा है.
बहरहाल, जातीय जनगणना एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन चुका है. केंद्र सरकार ने बड़े ही शालीन तरीके से अपनी आपत्ति जताते हुए गेंद राज्य सरकारों के पाले में डाल दिया है. लेकिन इस सच को कोई झुठला नहीं सकता कि जाति की वजह से आए विशेषाधिकारों को खत्म करके ही हम जातिविहीन समाज की स्थापना कर सकेंगे, जहां सभी एक-समान होंगे.


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