सम्पादकीय

किसान आत्महंता क्यों है?

Rani Sahu
31 Oct 2021 6:56 PM GMT
किसान आत्महंता क्यों है?
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किसान आंदोलन के बॉर्डर कुछ खुल चुके हैं और कुछ खुलने हैं

किसान आंदोलन के बॉर्डर कुछ खुल चुके हैं और कुछ खुलने हैं। टीकरी और गाज़ीपुर बॉर्डर पर अवरोधक हटाए गए हैं। बड़े बोल्डर भी हटाए जा रहे हैं। कीलें और कंटीले तार उखाड़ेे जा रहे हैं। कुछ रास्ता जरूर खुला है। दोपहिया वाहन और एंबुलेंस गुज़र सकते हैं। सामान ढोने वाले भारी वाहन अब भी ठहरे हुए हैं। सबसे बड़ा धरनास्थल सिंघु बॉर्डर रहा है। फिलहाल वहां यथास्थिति है। पुलिस और किसान नेताओं में सहमति नहीं बन पाई है। किसान आंदोलन जारी रहेगा। किसान अपनी मांगों पर अड़े और डटे हैं। मुद्दों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का भी असर उन पर नहीं है। कुछ किसान नेताओं ने 'दिल्ली कूच' की बात कही है। हालांकि निर्णय अभी घोषित किया जाना है। रास्ते भी सर्वोच्च अदालत की तल्ख टिप्पणियों के बाद खोले गए हैं। इस बीच राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2020 तक की रपट जारी की गई है, जिसका सारांश है कि किसान अब भी आत्महंता है। उसकी आत्महत्या केस 18 फीसदी बढ़े हैं। बीते साल 10,677 किसानों ने आत्महत्या की है। उनमें 5579 पूरी तरह किसान थे, जबकि 5098 खेतिहर मजदूर थे। किसानों के अलावा छात्र, पेशेवर, उद्यमी, रिटायर व्यक्ति आदि की संख्या 1,53,052 है, जिन्होंने आत्महत्या की है।

कोरोना-काल में भी कृषि की औसत विकास-दर 3.4 फीसदी रही थी। बंपर फसलें हुईं, लिहाजा भारत सरकार 80 करोड़ से अधिक गरीबों को मुफ़्त खाद्यान्न बांट पाई है। कृषि प्रधान देश और फसलें भी लहलहाती हुई, फिर भी किसान आत्महंता क्यों है? ज्यादातर आत्महत्याएं फसल कटने के बाद की गई हैं, क्योंकि सूदखोर महाजन खेत पर आकर फसल पर कब्जा कर लेता है। किसान को कर्ज़ चुकाना है और सूदखोर को अपना पैसा वसूल करना है। अंततः किसान खाली हाथ और भूखे पेट….! यह आज भी प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास 'गोदान' के होरी की कहानी लगती है, लेकिन देश में छोटे किसानों का यथार्थ आज भी यही है! औसतन हर घंटे एक किसान की अप्राकृतिक मौत हो रही है। किसान आंदोलन इस भयावह और त्रासद यथार्थ को संबोधित नहीं कर रहा है। वह मंडियों और फसल के दाम तक सीमित है। या ऐसे यथार्थ का भ्रम फैलाया जा रहा है, जिसकी संभावना ही नहीं है और कानूनों में ऐसा दर्ज भी नहीं है। किसानों की आत्महत्या पर घडि़याली आंसू जरूर बहाए जा रहे हैं। आंदोलन पूरी तरह राजनीतिक रंग में डूब गया है। अब भी महाराष्ट्र 4006 आत्महत्याओं के साथ पहले स्थान पर है। छत्तीसगढ़ में 535 किसानों ने आत्महत्या की और यह आंकड़ा उप्र से अधिक है, लेकिन कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी भागकर उप्र तो जा सकती हैं।
तेरा किसान, मेरा किसान के भाव में प्रलाप कर सकती हैं और पीडि़त परिवारों को दिलासा भी दे सकती हैं, लेकिन वह यह तथ्य नहीं जानतीं कि तीन पीढि़यों से पंजाब के किसान आत्महत्या करते आ रहे हैं। यह संख्या इतनी बढ़ गई कि गणना ही बंद कर दी गई अथवा राज्य सरकारें आत्महत्या के कम आंकड़े दर्ज कराती हैं। आत्महत्या करने वाले किसानों में करीब 69 फीसदी गरीबी रेखा के नीचे रहने को विवश हैं। सरकार उद्योगपतियों के 10 लाख करोड़ रुपए के कर्ज़ माफ कर सकती है, लेकिन किसानों पर 18 लाख करोड़ रुपए का कर्ज़ है। कर्जमाफी 2 लाख करोड़ रुपए की होती है। किसानों का कर्ज ऐसा क्या है कि जो माफ नहीं किया जा सकता। यूपीए सरकार ने 65-70 हजार करोड़ रुपए के कर्ज़ माफ किए। कुछ राज्य सरकारों ने भी माफ किए, लेकिन किसान आज भी कर्ज़दार है। आखिर क्यों…? क्या सरकार इसका रास्ता नहीं निकाल सकती? यदि बैंक पूरा कर्ज़ जारी कर सकते, तो किसान सूदखोर महाजन के पास क्यों जाता और अपना सब कुछ गिरवी रखकर कर्ज़ लेता? दरअसल सरकार और व्यवस्था ही किसान को शहरी मज़दूर बनाने पर आमादा है। यही हमारी अर्थव्यवस्था और नीतियों का डिजाइन है। कृषि को खत्म करने की कोशिश कौन-सी अर्थव्यवस्था में अपेक्षित है।

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