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जीत मिलने के बाद भूख बढ़ जाना स्वाभाविक है. आन्दोलनकारी किसान नेताओं की भूख भी बढ़ गयी है
अजय झा. जीत मिलने के बाद भूख बढ़ जाना स्वाभाविक है. आन्दोलनकारी किसान नेताओं की भूख भी बढ़ गयी है. पिछले एक साल से उनकी मांग यह थी कि कृषि कानून वापस लिया जाए. केंद्र सरकार ने काफी जद्दोजहद के बाद, और जिन कारणों से ही सही, कृषि कानून वापस लेने की उनकी मांग स्वीकार कर ली.
कृषि कानूनों को वापस लेने की शुक्रवार को की गई घोषणा के साथ ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किसानों से अपने घर और खेत वापस जाने का आग्रह किया. किसान नेताओ ने यह मांग ठुकरा दी, कहा की संसद में बना कानून जब तक संसद में वापस नहीं लिया जाता वह अपनी जगह बने रहेंगे. अपने आप में ही यह निर्णय आपत्तिजनक था. मोदी ने यह घोषणा बीजेपी के नेता के रूप में किसी चुनावी सभा में नहीं की थी, बल्कि भारत के प्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्र के नाम सन्देश में की थी. आन्दोलनकारियों का दिल्ली की सीमा पर डटे रहेने का फैसला मोदी की नहीं बल्कि भारत के प्रधानमंत्री पदका अपमान है.
किसानों की आड़ में कुछ और लोग राजनीति कर रहे हैं
एक बार को यह मान भी लें कि किसान नेताओं को भारत के प्रधानमंत्री पर भरोसा नहीं था, पर इस फैसले को क्या कहेंगे की 27 नवम्बर को किसानों की दिल्ली में ट्रैक्टर रैली होगी. यही नहीं, अब तो ऐसा लगने लगा है कि अगर अगले लोकसभा चुनाव तक नहीं तो कम से कम अगले वर्ष की शुरुआत में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव तक तो यह आन्दोलन जारी रहेगा. यह भी अब स्पष्ट हो चुका है कि किसानों की आड़ में कुछ लोग अपनी राजनीतिक रोटी सेंक रहे थे और प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद उनके पैरों तले मनो जमीन खिसक गयी. कांग्रेस पार्टी इसमें सबसे अव्वल थी. अपनी पीठ थपथपाने के बाद पार्टी ने घोषणा की कि उनके नेता और कार्यकर्ता किसानों के साथ अगले दिन यानि शनिवार को उनकी ख़ुशी में शामिल होंगे. और उस दिन से ही अब नित नई मांग सामने आ रही है.
हर रोज नई मांग सामने आ रही है
अब तक कृषि कानूनों की वापसी ही किसानों की मांग थी, अब उसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य की लिखित गारंटी, सभी मुक़दमे वापस लेने की मांग और सभी मृतकों के परिवारों को आर्थिक मुआबजा देने की मांग भी शामिल हो गई है. यानी, जो तथाकथित किसान गुंडागर्दी पर उतर आये थे या कानून को अपने हाथ में ले लिया था, उनके खिलाफ मुकदमा वापस ले लिया जाए. मृतकों की संख्या 700 से ऊपर बतायी जा रही है जो शक के घेरे में है. पुलिस के लाठी-डंडे से तो कोई नहीं मारा, क्योकि लाठी-डंडा चला नहीं. अगर आन्दोलनकारी गांधीवादी तरीके से आदोलन करने का दावा कर रहे हैं तो सरकार ने भी उनके साथ जोर-जबरदस्ती नहीं की. मुझे तो याद है कि दिल्ली में 26 जनवरी को ट्रैक्टर पलटने के कारण एक युवक की मृत्यु हो गई थी. लखीमपुर खीरी में चार आंदोलनकारियो को कुचल दिया गया था. अगर पंजाब और छत्तीसगढ़ सरकारों ने मृतक परिवरों को घोषित दो-दो करोड़ की राशि दे दी हो तो प्रत्येक मृतक परिवर को अब तक 4.5 करोड़ की धनराशि मिल चुकी होगी, जिसमे उत्त्तर प्रदेश सरकार द्वारा घोषित 50 लाख का मुआवजा भी शामिल हैं. और हां, एक व्यक्ति की निर्मम हत्या निहंग सिखों ने की थी. अब अगर कोई सड़क दुर्घटना में मरा या कोई प्राकृतिक कारणों से मरा तो उनके परिवार को भी सरकार मुआबजा दे? कांग्रेस पार्टी और किसान नेताओं को याद रहना चाहिए की सरकार के पास कर का ही पैसा होता है जो आम लोग लोग आयकर, GST या VAT के रूप में देते हैं. कृषि से कमाई राशि करमुक्त है. यह मांग कहां तक बढ़ती रहेगी, इसका आभास अभी किसी को नहीं है, शायद किसान नेताओं को भी नहीं.
अब शीतकालीन सत्र पर नजरें
रोज नई मांग करने की बजाय सही यही होगा कि यह मांग सामने रख दी जाए कि मोदी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री की गद्दी सौंप दें, भले ही जनता ने उन्हें अस्वीकार कर दिया हो. कांग्रेस पार्टी की मंशा तो यही लग रही है. कांग्रेस पार्टी शायद भूल रही है कि सत्ता आन्दोलन से नहीं चुनाव जीत कर प्राप्त किया जाता है. किसान आन्दोलन के कारण आम जनता को परेशानी उठानी पड़ी, पर वह चुप रहे, क्योंकि कहीं ना कहीं उन्हें यह लगने लगा था कि कृषि कानूनों से किसानों का फायदा कम और नुकसान ज्यादा होने वाला था. मोदी ने भी स्वीकार किया था कि सरकार अपनी बात किसानों को समझाने में असफल रही. संसद का शीतकालीन सत्र 27 नवम्बर से शुरू हो रहा है. उम्मीद यही की जानी चाहिए कि अगर विपक्ष संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चलने दे तो पहले सप्ताह में ही सरकार तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का बिल सदन में लाएगी, जिसे पास करने में किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए. औरअगर कृषि कानूनों को निरस्त किया जाने के बिल के पास हो जाने के बाद भी आदोलन चलता रहा तो फिर यह साफ़ हो जाएगा कि यह आन्दोलन किसानों के हित के लिए नहीं लड़ा गया बल्कि ऐसे व्यक्तियों के हित के लिए जिन्हें पूर्व में जनता ने चुनाव में पराजित कर दिया था, जिसमें राकेश टिकैत, गुरनाम सिंह चढ़ूनी का नाम प्रमुख है, और अगर कोई चाहे तो उनके साथ राहुल गांधी का भी नाम शामिल कर सकता है. इन सभी को आन्दोलन चलने से राजनीतिक लाभ की उम्मीद है.
जनता जो भी हो रहा है, सब देख रही है. अब अगर आन्दोलन ख़त्म नहीं होता तो जनता के धैर्य का बांध टूट सकता है. अगर अभी हाल में ही हुए उपचुनावों में जनता ने बीजेपी को सचेत करने की कोशिश की थी तो जनता अब कांग्रेस और उसके द्वारा उकसाए गए किसान नेताओं को हराने का माद्दा भी रखती है. किसानों की मांग पर राजनीति करने की कोशिश कुछ लोगों पर भारी भी पड़ सकता है और शायद उनके बीच फूट भी पैदा कर सकता है, खासकर पंजाब में जहां अमरिंदर सिंह किसानों के साथ अपने नजदीकी रिश्ते के कारण उन्हें आन्दोलन ख़त्म करने की सलाह दे सकते हैं. याद रहे कि किसान आन्दोलन तात्कालिक मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के उकसावे के कारण ही पंजाब में शुरू हुआ था और हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के किसान इस आन्दोलन से बाद में जुड़े थे.
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