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क्यों बदल रहे हैं भाजपा के मुख्यमंत्री, सामाजिक समीकरणों का दबाव या फिर और कुछ?
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| तिलकराज| ऐसा लगता है कि भाजपा में मुख्यमंत्रियों के बदलने का दौर है। क्या वजह है इस बदलाव की? मुख्यमंत्रियों की अक्षमता, स्थानीय राजनीतिक परिस्थितियां, सामाजिक समीकरणों का दबाव या फिर और कुछ? पिछले चंद महीनों में तीन प्रदेशों में चार मुख्यमंत्री, जबकि मोदी के पहले कार्यकाल में एक भी मुख्यमंत्री नहीं बदला। उस समय कहा गया कि जिसे मौका दिया है, उस पर भरोसा करना चाहिए। मुख्यमंत्रियों के इस तरह बदलने का चलन कांग्रेस में रहा है। एक स्वाभाविक-सा सवाल उठता है कि क्या भाजपा का कांग्रेसीकरण हो रहा है? यह शायद इस राजनीतिक परिघटना का अति सरलीकरण होगा। यह भी कहा जाता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी केंद्रीयकरण की राजनीति करते हैं, इसलिए ऐ हो रहा है। यदि ऐसा है तो पहले पांच साल क्यों कोई मुख्यमंत्री नहीं बदला? खासतौर से राजस्थान और झारखंड में। जहां भाजपा के विरोधी भी कह रहे थे कि मुख्यमंत्री बदल जाए, तो भाजपा जीत जाएगी। इस बदलाव के पीछे कोई एक नहीं कई कारण नजर आते हैं। पहला कारण है, राज्य विशेष की राजनीतिक परिस्थितियां। जैसे उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत पार्टी के लिए बोझ बन गए थे। उन्हें बनाए रखने का मतलब था कांग्रेस को वाकओवर देना। फिर बने तीरथ सिंह रावत। महीने भर में ही पार्टी नेतृत्व को समझ आ गया कि गलती सुधारने के चक्कर में और बड़ी गलती कर दी। फिर आए पुष्कर सिंह धामी। आते ही लगने लगा कि सही दिशा मिल गई।
फौरी व्यवस्था के तहत मुख्यमंत्री बने थे विजय रूपाणी
कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा का जाना पहले से तय था। वह 78 वर्ष के हो चुके थे। फिर परिवार के लोगों का सरकार में दखल बढ़ता जा रहा था। पार्टी को वैसे भी पीढ़ी परिवर्तन करना था। और अब गुजरात। विजय रूपाणी जब मुख्यमंत्री बने थे, तभी से तय था कि वह फौरी व्यवस्था के तहत बने हैं। उनके चुनाव के दो कारण थे। एक, उनका निरापद होना और दूसरा, कोई बड़ा जातीय आधार न होना। इसलिए उन्हें बनाने से जाति समूहों की प्रतिस्पर्धा होने का कोई खतरा नहीं था। अब पार्टी को लगने लगा कि 2022 के विधानसभा चुनाव का बोझ रूपाणी के कंधे नहीं उठा पाएंगे। सो पटेल समुदाय को भी आश्वस्त कर दिया कि आप हमारे साथ हैं तो हम भी आपको भूले नहीं हैं, पर क्या सिर्फ इन्हीं वजहों से बदलाव हुआ। बदलाव के दो और बड़े कारण दिखाई देते हैं। एक, राज्यों में भविष्य का नेतृत्व तैयार करने की प्रक्रिया। जो बने हैं, वे बने रहेंगे, यह जरूरी नहीं है, पर हटा ही दिए जाएंगे, यह भी नहीं कह सकते। संसदीय जनतंत्र में नेता बनने के लिए कई गुणों का होना आवश्यक है। संगठन की समझ और उससे तालमेल, अच्छा वक्ता होना, प्रदेश के लिए विजन होना, पर ये सारे गुण बेकार हो जाते हैं, यदि वोट दिलाने की क्षमता न हो। बदलाव का दूसरा बड़ा कारण है कि मोदी-शाह के आने के बाद से पिछले सात सालों में यह देखा गया कि लोकसभा चुनाव में पार्टी को किसी राज्य में जितने वोट मिलते हैं, उसी राज्य में विधानसभा चुनाव में वोट कम हो जाते हैं।
प्रधानमंत्री का अपना वोट है
यह सही है कि पार्टी के अलावा प्रधानमंत्री का अपना वोट है। वह जब खुद के लिए लोकसभा चुनाव में वोट मांगने जाते हैं तो जितने लोग भाजपा का समर्थन करते हैं, वे सब विधानसभा चुनाव में नहीं करते। कई मामलों में यह अंतर 5 से 19 फीसद तक का होता है। इसका सीधा सा मतलब है कि राज्य के नेतृत्व पर लोगों का उतना भरोसा नहीं रहता। पार्टी इस अंतर को कम करना चाहती है। इसके लिए विश्वसनीय और जनाधार वाले नेता चाहिए। जो मोदी के अतिरिक्त वोट की मदद से हार को जीत में बदल सकें। यह काम बहुत आसान नहीं होता
कांग्रेस में बदलाव का एक ही आधार, नेहरू-गांधी परिवार के प्रति वफादारी
मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने 13 राज्यों में 19 मुख्यमंत्री बनाए हैं। योगी आदित्यनाथ, हिमंता बिस्व सरमा, सर्वानंद सोनोवाल, देवेंद्र फड़नवीस, त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत, पुष्कर सिंह धामी, जयराम ठाकुर, बिप्लब देब, मनोहर लाल खट्टर, रघुबर दास, लक्ष्मीकांत पारसेकर, प्रमोद सावंत, बीरेन सिंह, पेमा खांडू, आनंदी बेन पटेल, विजय रूपाणी, भूपेंद्र पटेल, बासवराज बोम्मई। इनमें से छह को हटाया जा चुका है। ये तीन राज्यों गुजरात, गोवा और उत्तराखंड से हैं। सर्वानंद सोनोवाल को विचारधारा के प्रति ज्यादा प्रतिबद्ध और पूवरेत्तर में पार्टी के विस्तार में भूमिका निभाने वाले हिमंता बिस्व सरमा के लिए जगह खाली करना पड़ी। फड़नवीस और रघुबर दास सत्ता से बाहर हैं। फड़नवीस, उद्धव ठाकरे के धोखे का शिकार हुए और रघुबर दास अपने अहंकार और र्दुव्यवहार का। इन बदलावों से एक बात साफ है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व राज्यों में नेतृत्व की लगातार समीक्षा कर रहा है। इस समीक्षा में वह अपने फैसले को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बना रहा। जहां लगा कि फैसला गलत हो गया, वहां बदलाव में कोई संकोच नहीं किया। आलोचना के डर से जो चल रहा है, उसे चलते रहने नहीं दिया। कांग्रेसीकरण की आशंका जताने वालों को एक बुनियादी अंतर पर ध्यान देना चाहिए। भाजपा में जो भी बदलाव हो रहे हैं, उनका आधार एक ही है कि वह पार्टी के हित में है या नहीं? कांग्रेस में बदलाव का एक ही आधार होता है और वह है नेहरू-गांधी परिवार के प्रति वफादारी। आप परिवार के प्रति वफादार हैं तो सारे गुनाह माफ, पर आप कितने भी काबिल हों और आपकी वफादारी शक के घेरे में हो तो आप इंतजार करते रह जाएंगे।
भाजपा लगातार मजबूत हो रही है और कांग्रेस कमजोर
भाजपा और कांग्रेस की कार्यशैली का फर्क दोनों की राजनीतिक स्थिति में नजर आता है। भाजपा लगातार मजबूत हो रही है और कांग्रेस कमजोर। भाजपा और कांग्रेस की कार्यशैली में यह फर्क तब तक तो बना ही रहेगा, जब तक गांधी परिवार कांग्रेस को चला रहा है। रही बात भाजपा के कांग्रेसीकरण की तो वह उसकी कार्यशैली, विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कारण कभी नहीं हो पाएगा। एक और कारण है, जिसकी वजह से भाजपा का कभी कांग्रेसीकरण नहीं होगा। वह है, भाजपा का हमेशा परिवार रहेगा, लेकिन वह कभी परिवार की पार्टी नहीं होगी। भाजपा में हर तीन साल में राष्ट्रीय और प्रदेश अध्यक्ष बदल जाता है। सामान्य कार्यकर्ता के मन में यह भरोसा है कि वह संगठन और सरकार के शिखर तक पहुंच सकता है।