सम्पादकीय

पुस्तक, जो 75 वर्षों के बाद भी क्यों बताई जा रही है शिक्षकों के लिए अनिवार्य?

Gulabi
27 Sep 2021 7:30 AM GMT
पुस्तक, जो 75 वर्षों के बाद भी क्यों बताई जा रही है शिक्षकों के लिए अनिवार्य?
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‘नन्हे बच्चे जिज्ञासु, खोजी इंसान होते हैं. वे अपनी समस्त इंद्रियों की मदद से दुनिया की अनूठी चीजें तलाशते हैं

'नन्हे बच्चे जिज्ञासु, खोजी इंसान होते हैं. वे अपनी समस्त इंद्रियों की मदद से दुनिया की अनूठी चीजें तलाशते हैं. वे समग्रता में जीकर सीखते हैं. पर, केवल इतना ही नहीं है, उन्होंने जो कुछ सीखा होता है, उसका उपयोग पहले या नई स्थितियों में करते रहते हैं.'

'लोकतांत्रिक नियंत्रण तभी आ सकता है जिसमें बच्चों को अपनी समस्याओं के समाधान स्वयं खोजने की आजादी हो.'
'हम एक सतत बदलती दुनिया में रहते हैं. ऐसी दुनिया में प्रभावी ढंग से बने रहना है तो हमें इसका सामना रचनात्मक तरीके से करना होगा. हम सब रचनात्मक शक्ति के ऐसे संसाधन हैं जिन्हें हमने टटोला तक नहीं है. इसके लिए हमें उन सभी बंधनों को तोड़ना होगा जो हमने आलोचना के डर से या हीन—भावना के कारण बना लिए हैं. पाठ्यचर्या को विकसित करने में कुछ चीजें चुननी पड़ती हैं.'

'सिखाते समय हम शिक्षकों को कुछ सामाजिक लक्ष्य अपने समक्ष रखने चाहिए और ये लक्ष्य इस विचार से उपजने चाहिए कि हम किस प्रकार का समाज चाहते हैं.'

ये सारे कथन हैं जूलिया वेबर गार्डन के, जो 1946 में प्रकाशित उनकी पुस्तक 'माई कंट्री स्कूल डायरी' से हैं, जिसमें जूलिया ने बतौर शिक्षिका अमेरिका में स्टोनीग्रोव नाम के गांव की दुर्गम पहाड़ी पर स्थित स्कूल के अनुभव साझा किए हैं.

इस दौरान उनका चार वर्षों का अनुभव बताता है एक विपन्न ग्रामीण समुदाय अपने स्कूल को सीखने लायक सम्पन्न शैक्षणिक वातावरण में बदल सकता है. यह अनुभव बताता है कि विषम से विषम परिस्थितियों में भी यदि किसी शिक्षक को मौका मिले तो वह क्या कर सकता है!

यह कहानी एक तरह से इस अवधारणा को पुष्टि करती है कि एक तरफ यदि महंगे भवन, लैब, मशीनें और तमाम तरह की सुख-सुविधाओं हों और दूसरी तरफ कुशल-संवेदनशील शिक्षक या शिक्षिका हो तो आखिरी में शिक्षक या शिक्षिका किस तरह अधिक महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती है.

जूलिया तीस बच्चों की शाला की अकेली शिक्षिका होती हैं, जो एक कमरे की शाला में पहली से आठवीं तक के सभी विषयों को पढ़ाने की जिम्मेदारी तो निभाती ही हैं, अपने बच्चों को कथित बड़े स्कूलों के बच्चों के मुकाबले बेहतर तरीके से जीवन जीने के लिए तैयार भी करती हैं.
एक अहम बात और! उनकी डायरी को पढ़ते हुए लगता है कि 1940 के दौरान स्कूल और शिक्षा की चुनौतियां आज की ही तरह थीं. भारत में भी खास तौर से दूरदराज के सरकारी स्कूल तरह-तरह के अभाव और गुणवत्ता की कमी से जुझ रहे हैं.

स्कूल जिसने समुदाय को बदल दिया
कुछ स्कूल बच्चों में बदलाव लाते हैं. लेकिन, 'माई कंट्री स्कूल डायरी' ऐसी कहानी की तरह है, जिसमें स्कूल समुदाय में बदलाव लाता है. इस डायरी में स्कूल सबको आपस में बांध देता है. इसे पढ़ते हुए मन में कई सवाल पैदा होते हैं.


जैसे कि, स्कूल के नाम पर केंद्रीकृत विशालकाय कारखानों की बजाय क्या छोटे स्कूल कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण साबित हो सकते हैं, जिसमें शिक्षक वह सब कर पाते हैं जो जूलिया वेबर कर सकीं. यह भी कि "रास्ता कितना भी असंभव क्यों न लगे, अगर हम उतना ही करें जितना हमें समझ में आ रहा हो, तो अगला चरण साफ हो जाता है."

4 भागों में विभाजित यह डायरी का हर भाग एक वर्ष की तरह है. इस प्रकार वर्ष-दर-वर्ष कुल 4 वर्षों का लेखा-जोखा है, जिसमें बतौर शिक्षिका जूलिया वेबर ने बच्चों को जानने के लिए सीखने की कोशिशों से लेकर एक नई शुरुआत, रचनात्मक हस्तक्षेप, वंचित समुदाय की शक्ति, नई तकनीक, अपना दर्शन और लोकतंत्र में जीने जैसी बातों को एक क्रम दिया है.
इसके बाद, अभावग्रस्त व्यवस्था और अभावगस्त ग्रामीण जीवन के बीच यह शिक्षिका जूलिया वेबर एक विनम्र नायिका की तरह हमारे समाने आती है, जिसे कमजोर या लापरवाह कहे जाने वाले बच्चों से कोई शिकायत नहीं है. जूलिया वेबर बच्चों की पृष्ठभूमि का पता लगाने के लिए उनके घर जाती हैं और परिजनों से बतियाती हैं.
फिर हर बच्चे को ध्यान में रखते हुए उसे सिखाने की तैयारी करती हैं. फिर स्कूल की दुनिया को ग्रामीण परिवेश और समुदाय से जोड़ती हैं और यर्थाथ को समझने का माध्यम बनाती हैं.

योजना औपचारिक, लेकिन क्रियान्वयन अनौपचारिक
जूलिया का सामूहिक जीवन चौथे वर्ष में अपनी श्रेष्ठता पर पहुंचता है, जो बीते तीन वर्षों के अथक संघर्षों के बिना संभव नहीं हो पाता. किंतु, संघर्ष की इस कहानी के पीछे कहीं खीज या निराशा का दूर-दूर तक कोई संकेत नहीं
नतीजा, न्यूनतम साधन और संसाधनों से ही यह एक कमरे का छोटा स्कूल 'सीखने की बड़ी लैब' में बदल जाता है. पहले दिन की तैयारी के दौरान जूलिया एकल-शिक्षक शाला को अपने लिए बड़े अवसर के तौर पर देखती हैं, जिसमें रचनात्मक और लोकत्रांतिक जीवन के लिए बच्चों की तरह करने की संभावना कहीं अधिक होती है.
फिर एक शिक्षिका के तौर पर जूलिया इस प्रकार से सामने आती हैं, जिसमें वह योजनाओं को तो बहुत औपचारिक तरीके से तैयार करती हैं, लेकिन उसे लागू कराने के मामले में बच्चों के साथ अनौपचारिक और दोस्ताना तरीका अपनाती हैं.
यह उनके कौशल का ही प्रभाव होता है कि बच्चे लघु-पुस्तिकाएं और स्कूल के सामने फूलों वाले पौधों की छोटी क्यारियां बनाने जैसी पहल खुद करते हैं. इसी तरह, वह बच्चों की आपसी सहभागिता बढ़ाने के लिए 'खजाने की खोज' जैसे खेल तैयार करती हैं और उससे बच्चों में सहयोग की भावना बढ़ाती हैं.
इस प्रकार के उपक्रम सिखाते हैं कि एक शिक्षक या शिक्षिका का अपने बच्चों से किस प्रकार का संबंध होना चाहिए.

जूलिया को जब लगता है कि उनके बच्चों के जीवन का अनुभव बेहद सीमित है तो वह उन्हें कई तरह की रुचियों से जोड़ती हैं. वह पैदल यात्रा, पिकनिक, सामूहिक गीत और नाटकों से बच्चों के जीवन को समृद्ध बनाती हैं. इसी कड़ी में बच्चे अखबार भी निकालते हैं.
वर्तनी और भाषा की गलतियों को रिकार्ड करने के लिए वे बड़ों बच्चों को एक नई कॉपी बनाने के लिए कहती हैं. बड़े बच्चे इन कॉपियों में गलत के सामने सही वर्तनी दर्ज करते हैं.

इसके अलावा नए और कठिन शब्दों को समझने के लिए आपसी चर्चा कराई जाती है और परिणाम यह होता है कि धीरे-धीरे बच्चों की शब्दावली बढ़ती जाती है.
सभी बच्चों को अच्छे शिक्षक मिलेंगे

जूलिया न केवल सभी विषयों को पढ़ाती हैं, बल्कि बच्चों में भाषण, खेलकूद, कृषि और हस्त-कला जैसे कौशल विकसित करने में मदद करती हैं. विशेष बात यह है कि जूलिया के बच्चे अपने सवाल अपने मन में नहीं रखने की बजाय एक-दूसरे से पूछते हैं और उन्हें समझने के लिए आपस में चर्चा करते हैं. जूलिया को जब कभी लगता है कि बच्चों के लिए किसी विशेष चीज की जरुरत है तो वे उधार मांगने से भी नहीं झिझकतीं. समुदाय की मदद से ही उन्होंने एक बड़ा पुस्तकालय तैयार किया.

इसी तरह, उन्होंने बड़े बच्चों को लकड़ी के खिलौने बनाना सिखाने के लिए बढ़ई को राजी किया. यहां यह बताना महत्त्वपूर्ण है कि जूलिया गांव वालों को स्कूल में लाती हैं और बच्चों से बातचीत कराती हैं. अंत में वह स्कूल को जीवंत समुदाय का अंग बनाती हैं. मैंने भी इस डायरी को इसे उम्मीद के साथ पूरा किया कि एक दिन सभी बच्चों को अच्छे शिक्षक मिलेंगे.

इस डायरी को पूरा पढ़ने के बाद यह उम्मीद होनी भी चाहिए, जिसके कारण शिक्षा-साहित्य में यह पुस्तक आज भी उतनी प्रांसगिक बनी हुई है जितनी सात दशक पहले जब यह लिखी जा रही थी. एक और जरुरी बात यह कि इस डायरी में शिक्षिका का अपने बच्चों के साथ भावनात्मक रिश्ता और उन बच्चों की अपनी-अपनी कहानियां जिस तरीके से खुलती जाती हैं उससे यह पूरा वर्णन एक आकर्षक कथानक में बदल जाता है.

'माई कंट्री स्कूल डायरी' को शिक्षा साहित्य की क्लासिकल पुस्तक माना गया है. पहला छपने के बाद कई साल तक इस पुस्तक का दूसरा संस्करण नहीं आया. फिर अमरीकी शिक्षाविद् जॉन होल्ट के प्रयासों से यह दुनिया भर में चर्चित हुई. यह पुस्तक विशेष तौर पर शिक्षकों के लिए प्रेरणादायी दस्तावेज है.





(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शिरीष खरे, लेखक व पत्रकार
2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.
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