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नीतीश कुमार का दिल अचानक दिल्ली के सिंहासन के लिए क्यों मचलने लगा है?
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | दिल भी बड़ा अजीब चीज है. जब तक धड़कता है तो सांसें चलती रहती हैं और जब मचलने लगता है तो क़यामत आ जाती है. इन दिनों पूर्वी भारत के दो मुख्यमंत्रियों का दिल मचलते दिख रहा है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (mamata banerjee) का दिल तो प्रदेश में चुनाव जीतते ही मचलना शुरू हो गया था और अब उस सूची में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ( nitish kumar) का नाम भी जुड़ गया है. दोनों का दिल दिल्ली की कुर्सी के लिए मचल रहा है. पिछले हफ्ते ममता बनर्जी दिल्ली आयीं और कांग्रेस पार्टी और कई अन्य विपक्षी दलों के नेताओं से मिली. उनका लक्ष्य साफ़ है – सभी विपक्षी दलों को एकजुट करके अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पराजित करना, और जिस प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पिछले सात वर्षों से नरेन्द्र मोदी आसीन हैं, उस पर बैठना. अब दौड़ में नीतीश कुमार भी शामिल हो गए हैं, भले ही वह इसे फिलहाल नकार रहे हों.
जरा घटनाक्रम पर नज़र डालते हैं. नीतीश कुमार का दिल्ली आने का अधिकारिक मतलब था जनता दल (यूनाइटेड) के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव या फिर यूं कहें कि नए अध्यक्ष का मनोनयन. यह बैठक पटना में भी हो सकती थी पर उससे दिल्ली का सिंहासन नहीं डोलता. माना कि अभी संसद का सत्र चल रहा है, पर पार्टी के मात्र 21 सांसद ही हैं – 16 लोकसभा और 5 राज्यसभा में. किसी भी सप्ताहांत में बड़े आराम से ये सभी सांसद पटना जा सकते थे और नीतीश कुमार के फैसले पर मुहर लगा सकते थे पर यह बैठक दिल्ली में हुयी.
नीतीश कुमार के दिल्ली आगमन से ठीक पहले जेडीयू के महासचिव के.सी. त्यागी हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और इंडियन नेशनल लोकदल के अध्यक्ष ओमप्रकाश चौटाला से मिले जिसके बाद चौटाला ने केंद्र में तीसरे मोर्चे के बात करनी शुरू कर दी. अपने दिल्ली प्रवास के दौरान नीतीश कुमार भी चौटाला से मिले. अब चौटाला इतने बड़े नेता तो रहे ही नहीं, हरियाणा में भी वह अपने वजूद को बचाने में ही लगे हैं. अभी-अभी जेल से सजा काट कर बाहर आये हैं. उनकी पार्टी का ना तो कोई ही कोई सांसद है और ना ही विधायक. चौटाला नीतीश कुमार की तरह समाजवादी नेता भी नहीं हैं कि पुराने तारों को जोड़ने के लिए उनसे मिले हों. पर चौटाला राजनीति के पुराने और घिसे हुए खिलाड़ी हैं और अकाली दल के नेताओं से उनका घरेलू ताल्लुकात है, यानि अगर चौटाला से मिल लिया तो फिलहाल अकाली दल में नेताओं से मिलने की जरूरत नहीं हैं. और इस सबके बाद जेडीयू पार्लियामेंट्री बोर्ड के चेयरमैन उपेन्द्र कुशवाहा का कहना कि नीतीश कुमार पीएम मटेरियल हैं, कहीं ना कहीं नीतीश कुमार को संशय के घेरे में खड़ा करता है.
नीतीश कुमार के बारे में दो बातें जाननी जरूरी है. पहला कि उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना काफी पुराना है. भले ही वह दिखाने की लाख कोशिश करें कि उन्हें पद का लालच नहीं है, पर उनकी पद के लिए लालच कितनी गहरी है इस बारे में जीतन राम माझी से बेहतर कोई और नहीं जानता. 2014 के लोकसभा चुनाव में अपने गढ़ बिहार में मोदी लहर में सफाया होने के बाद नैतिकता के नाम पर नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और अपनी जगह मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया. पर जल्द ही उनकी हालत जल बिन मछली वाली हो गयी. मांझी आसानी से पद त्यागने के लिए राजी नहीं थे. चूंकि पार्टी पर नीतीश कुमार की ही पकड़ थी, 9 महीनों के बाद मांझी को हटा कर नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बन गए.
दूसरा तथ्य है कि नीतीश कुमार की राजनैतिक शैली में नैतिकता का कोई महत्व नहीं होता है. किस तरह जेडीयू के संस्थापक जॉर्ज फ़र्नांडिस को उन्होंने पार्टी से बाहर निकाल फेंका था वह कोई भूला नहीं है. फ़र्नांडिस समाजवादी इतिहास में राममोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के बाद सबसे बड़े नेता थे. 2010 का बिहार विधानसभा चुनाव बीजेपी के साथ गठबंधन करके लड़ा पर जब यह लगने लगा कि बीजेपी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का दावेदार घोषित करने वाली है तो वह बीजेपी का साथ छोड़ कर अपने पुराने मित्र लालू प्रसाद यादव के शरण में चले गए और आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन के समर्थन से अल्पमत की सरकार चलाते रहे. 2015 का चुनाव लालू प्रसाद के महागठबंधन का हिस्सा बन कर लड़े और 2017 में महागठबंधन को टाटा बाय बाय करके फिर से बीजेपी के साथ जुड़ गए. अब उन्हें मोदी से परहेज नहीं था.
नीतीश कुमार को जनादेश से कुछ लेना देना नहीं है. 2020 का चुनाव बीजेपी के साथ गठबंधन में लड़ा, जेडीयू की सीटों के भारी गिरावट आयी पर जब बीजेपी ने उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बनाने की पेशकश की तो नीतीश कुमार ने पद ग्रहण करने से मना भी नहीं किया. पर यह सोचना कि 2025 तक नीतीश कुमार जनादेश का पालन करते हुए बीजेपी के साथ ही रहेंगी, संभव शायद ना हो. जो उन्होंने पूर्व में दो बार किया उसे वह तीसरी बार ही कर सकते हैं. बिहार से लगातार ख़बरें आ रही थीं कि वह आरजेडी के संपर्क में हैं. लालू प्रसाद यादव जब जेल में थे तबसे ही वह नीतीश कुमार पर डोरे डाल रहे थे और अब जबसे वह जमानत पर रिहा हो कर जेल से बाहर आ गए हैं तो बिहार की राजनीति में सुगबुगाहट बढ़ने लगी है.
पिछले बिहार चुनाव के बाद ख़बरें आईं थीं कि नीतीश कुमार और बीजेपी के बीच एक डील हुयी है जिसके तहत नीतीश कुमार बिहार की गद्दी बीजेपी के किसी नेता को सौंप देंगे और बदले में उन्हें भारत का अगला उपराष्ट्रपति बनाया जाएगा. उपराष्ट्रपति चुनाव में अब एक साल से भी कम का समय बाकी है और बीजेपी की तरफ से उन्हें कोई ठोस संकेत नहीं मिल रहा है. राजनीति में posturing यानि हाव भाव दिखाने का भी माफ़ी महत्व होता है. यकायक नीतीश कुमार का ओमप्रकाश चौटाला से मिलना, कुशवाहा का उन्हें पीएम मटेरियल करार देना, पेगासस जासूसी की जांच की मांग आदि देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि नीतीश कुमार की posturing कुछ चेंज हुई है. हो सकता है कि अगर बीजेपी उपराष्ट्रपति बनाने से इनकार कर दे तो वह लालू प्रसाद के साथ फिर से जुड़ जायेंगे, ममता बनर्जी के दूसरे मोर्चे के प्रयास की भ्रूणहत्या करके नीतीश कुमार तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री पद के विकल्प बन जायेंगे. फिलहाल बहुत सारे ऐसे सत्ताधारी क्षेत्रिय दल हैं जो मोदी की विदाई देखना तो पसंद करेंगे पर ममता बनर्जी से उन्हें लगाव नहीं. ऐसे नेताओं और उनके दलों को नीतीश कुमार के साथ जुड़ने में शायद कोई संकोच ना हो.