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पंजाब के बाद कांग्रेस आलाकमान ने अब उत्तराखंड की सुध ली है
अजय झा। पंजाब के बाद कांग्रेस आलाकमान ने अब उत्तराखंड की सुध ली है. वृहस्पतिवार देर शाम को पार्टी ने उत्तराखंड प्रदेश के संगठनात्मक ढांचे में बड़े फेरबदल की घोषणा की और आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कई समितियों का भी गठन किया. लिस्ट काफी वृहद है, जिस पर अगर नज़र डालें तो साफ़ हो जाता है कि पार्टी ने चुनाव की बागडोर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को सौंप दी है. रावत के करीबी गणेश गोदयाल को नया प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया है. और रावत के विरोधी प्रीतम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा कर कांग्रेस विधायक दल का नेता बनाया गया है, यानि प्रीतम सिंह को अब इंदिरा हृदयेश के निधन से रिक्त हुयी नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी थमा दी गयी है. और रावत चुनाव प्रचार (campaign) कमिटी के अध्यक्ष बनाये गए हैं.
प्रीतम सिंह की प्रदेश अध्यक्ष पद से छुट्टी से किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए. उन्हें रावत विरोधी होने की सजा तो मिलनी ही थी. पर उनको विधायक दल का नेता घोषित किया जाना ज़रा अटपटा जरूर है. रावत अब कांग्रेस पार्टी के अघोषित मुख्यमंत्री पद के दावेदार बन गए है. रावत और उनके नजदीकियों को पार्टी की कमान देने में कांग्रेस आलाकमान ने इतनी जल्दीबाजी दिखाई कि पार्टी भूल ही गयी की विधायक दल के नेता को पार्टी द्वारा नियुक्त नहीं किया जाता, बल्कि विधायक अपने बीच से ही किसी को अपना नेता चुनते हैं. संविधान और संवैधानिक परंपरा तो यही है. यह अलग बात है कि विधायक दल की बैठक में आलाकमान द्वारा चुने गए नेता के नाम पर मुहर लगाने का ही काम होता है, चुनाव कभी नहीं होता. जब तक प्रीतम सिंह को विधिवत विधायक दल की मीटिंग में नया नेता नहीं चुना जाता तब तक विधानसभा अध्यक्ष उन्हें नेता प्रतिपक्ष में रूप में मान्यता देने को बाध्य नहीं है. और जब तक प्रीतम सिंह को नेता प्रतिपक्ष के रूप में मान्यता नहीं मिल जाती तब तक उन्हें एक कैबिनेट मंत्री के बराबर का वेतन और भत्ता भी नहीं दिया जा सकता. यह चूक कांग्रेस पार्टी से कैसे हो गयी इस बारे में सिर्फ कयास की लगाया जा सकता है कि शायद पार्टी उन्हें प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने में ज्यादा उत्सुकता थी.
रही बात हरीश रावत की तो 2017 के विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद वह अपने गृह प्रदेश में अलग थलग पड़ गए थे. मुख्यमंत्री रहते हुए रावत दो क्षेत्र से चुनाव लडे़ और दोनों क्षेत्रों से पराजित हो गए थे. चूंकि रावत अब बुजुर्ग नेताओं की श्रेणी में आ चुके थे और कांग्रेस पार्टी को बुजुर्ग नेताओं से हमेशा से खास लगाव रहा है, लिहाजा उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया गया और पंजाब का प्रभारी मनोनीत किया गया. पर उनकी नजर उत्तराखंड पर ही टिकी रही ताकि वहां कोई नया नेता ना पनप सके. रावत ने पंजाब में कम और दिल्ली में ज्यादा समय बिताया. पंजाब में दो वर्षों से कुर्सी की घमासान शुरू हो गयी थी और रावत असहाय दिखे. बस उन्हें एक ही सफलता मिली कि किसी तरह वह पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह को मनाने में सफल रहे और उनके घोर विरोधी नवजोत सिंह सिद्धू, जो आलाकमान की पसंद थे, को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया. पंजाब की समस्या सुलझाने में भले भी हरीश रावत का कोई बड़ा योगदान नहीं रहा हो,पर कैप्टेन अमरिंदर सिंह को मानाने की कामयाबी के कारण पार्टी आलाकमान ने उन्हें पुरस्कार दिया और उतराखंड में पार्टी की कमान उन्हें सौंप दी.
कांग्रेस आलाकमान की एक बड़ी समस्या है. पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी 74 साल की हो गयी हैं और पिछले कई वर्षों से एक रहस्यमय बीमारी से ग्रसित हैं, जिसके इलाज के लिए उन्हें अक्सर अमेरिका जाना पड़ता है. अब किसी को याद भी नहीं कि आखिरी बार सोनिया गांधी कब जनता के बीच गयीं थीं. बीजेपी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की तरह वह लगातार एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश का भ्रमण भी नहीं कर सकतीं. उनकी मजबूरी है कि दिल्ली में अपनी कोठी में बैठ कर ही उन्हें पार्टी चलानी पड़ती है. अहमद पटेल की मृत्यु के बाद अब सोनिया गांधी के दो ही प्रमुख सलाहकार हैं – राहुल गांधी और प्रियंका गांधी. राहुल गांधी प्रदेशों का भ्रमण सिर्फ चुनाव के समय ही करते हैं. जनता के बीच उनका जाना भी नहीं के बराबर ही है. प्रियंका गांधी का भी लगभग अपने भाई जैसा ही हाल है. वैसे भी प्रियंका का सारा फोकस उत्तर प्रदेश पर केन्द्रित है जहां पंजाब और उत्तराखंड के साथ ही अगले वर्ष की शुरुआत में विधानसभा चुनाव होने वाला है. गांधी परिवार का कोई सदस्य शायद पिछले चार-साढ़े चार वर्षों से उत्तराखंड गया भी नहीं है. उत्तराखंड उन राज्यों की सूची में शामिल है जहां 2019 लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद राहुल गांधी अभी तक नहीं गए हैं.
जब गांधी परिवार और कांग्रेस के अन्य बड़े नेता वर्षों से उत्तराखंड गए ही नहीं तो भला उन्हें कैसे पता होगा कि हरीश रावत की प्रदेश में क्या स्थिति है, जनता और पार्टी में कितने लोकप्रिय या अलोकप्रिय हैं. रावत अब 2002 वाले रावत नहीं रहे जिसके प्रयासों के कारण ही 2002 चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर उनके अथक परिश्रम का नतीजा था कांग्रेस पार्टी की जीत. यह अलग बात है कि रावत की मुख्यमंत्री पद की दावेदारी अनदेखी कर दी गयी. कांग्रेस पार्टी के लिए रावत उत्तराखंड में choice(पसंद) नंबर 3 थे. पहले नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बने और 2012 में विजय बहुगुणा. रावत की बारी उनके बाद ही आई, जो उनके साथ ज्यादती से कम नहीं था.अब तिवारी जिन्दा रहे नहीं और बहुगुणा बीजेपी में हैं, अब रावत ही कांग्रेस आलाकमान की उत्तराखंड में आंख और कान हैं. वैसे भी गांधी परिवार के आस पास जनता तो दूर प्रदेश स्तर के किसी नेता को फटकने की इजाजत नहीं हैं, लिहाजा गांधी परिवार ने रावत को वफ़ादारी का इनाम देते हुए उत्तराखंड की बागडोर उन्हें सौंप दी है. उत्तराखंड चुनाव में अगर कांग्रेस पार्टी जीतती है तो जीत का श्रेय गांधी परिवार को और अगर हारी तो उसका जिम्मेदार रावत होंगे . रावत के पसंद के नेताओं की प्रमुख पदों पर नियुक्ति हो चुकी है, टिकट बंटवारे में रावत की ही चलेगी, हां, शायद राहुल गांधी चुनावों के दौरान कुछ रैली को संबोधित करने जा सकते हैं.
रावत भले ही गांधी परिवार को यह समझाने में सफल रहे हैं कि उनसे बड़ा और लोकप्रिय नेता उत्तराखंड कांग्रेस में कोई और नहीं है, पर अन्दर ही अन्दर रावत को भी पता होगा कि पार्टी की कमान मिलना चुनाव में सफलता की कुंजी नहीं है. बीजेपी का संगठन उत्तराखंड में काफी मजबूत और सक्रिय है, बीजेपी ने पुष्कर सिंह धामी जैसे युवा नेता को मुख्यमंत्री बना कर पार्टी में नयी जान फूंक दी है. वहीँ आम आदमी पार्टी भी प्रदेश में एड़ी–चोटी का जोर लगा रही है इससे कांग्रेस पार्टी का ही ज्यादा नुकसान होगा. देखना दिलचस्प होगा कि एक पिटे हुए मोहरे पर बाज़ी लगाना कांग्रेस पार्टी के लाभदायक साबित होगा या कहीं फिर ऐसा ना हो जाए कि 2017 की तरह ही रावत खुद भी डूबें और अपने साथ कांग्रेस पार्टी को भी ले डूबें.
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